Move to Jagran APP

बेखौफ प्रदूषण का खतरा, जानें- कौन हैं असली गुनहगार

देश के नीति निर्धारक प्रदूषण के निदान पर बड़े-बड़े भाषण तो देते हैं, लेकिन कोई ठोस रणनीति बनाते नहीं दिखते हैं।

By Lalit RaiEdited By: Updated: Mon, 11 Dec 2017 10:55 AM (IST)
Hero Image
बेखौफ प्रदूषण का खतरा, जानें- कौन हैं असली गुनहगार

नई दिल्ली [ पंकज चतुर्वेदी]। भारत में हर साल कोई 4.4 खरब लीटर पानी को प्लास्टिक की बोतलों में पैक कर बेचा जाता है। यह बाजार 7,040 करोड़ रुपये सालाना का है। जमीन के गर्भ से या फिर बहती धारा से प्रकृति के आशीर्वाद स्वरूप मुफ्त मिले पानी को कुछ मशीनों से गुजार कर बाजार में लागत के 160 गुणा ज्यादा भाव से बेच कर मुनाफे का पहाड़ खड़ा करने वाली ये कंपनियां हर साल देश में पांच लाख टन प्लास्टिक बोतलों का अंबार भी जोड़ती हैं। शीतल पेय का व्यापार तो इससे भी आगे है और उससे उपजा प्लास्टिक कूड़ा भी इधर-उधर पड़ा रहता है। चूंकि ये बोतल इस किस्म की प्लास्टिक से बनती हैं जिनका पुनर्चक्रण हो नहीं सकता, सो कबाड़ी इन्हें लेते नहीं हैं। या तो यह प्लास्टिक टूट-फूट कर धरती को बंजर बनाता है या फिर इसे एकत्र कर ईंट भट्टे या ऐसी ही बड़ी भट्टियों में झोंक दिया जाता है, जिससे निकलने वाला धुआं दूर-दूर तक लोगों का दम घोंटता है। ठीक यही हाल हर दिन लाखों की संख्या में बिकने वाली कोल्ड डिंक्स की बोतलों, दूध की थैलियों, चिप्स आदि के पैकेटों का है। देश के नीति निर्धारक बढ़ते प्रदूषण के निदान पर बड़े-बड़े आयोजन, परियोजनाएं और भाषण देते हैं, लेकिन पानी की बोतलों का छोटा सा तथ्य बानगी है कि देश के जल-जंगल-जमीन को संकट में डालने वाले उत्पादों को मुनाफा कमाने की तो छूट है पर उनके उत्पाद से उपजे जहरीले कचरे के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

आखिर कौन है जिम्मेदार
असल में, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के चलते नैसर्गिकता में आए बदलाव का मूल कारण हमारा प्रकृति पर निर्भरता से दूर होना है। कुछ संगठन व व्यापारी यह कहते नहीं अघाते कि प्लास्टिक के आने से पेड़ बच गए। पेड़ से मिलने वाले उत्पाद, चाहे वे रस्सी हों या जूट या कपड़ा, या कागज इस्तेमाल के बाद प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते थे। पेड़ का दोहन करें तो उसे फिर से उगा कर उसकी पूर्ति की जा सकती है, लेकिन एक बार प्लास्टिक धरती पर किसी भी स्वरूप में आ गई तो उसका नष्ट होना असंभव है और वह समूचे पर्यावरण तंत्र को हानि पहुंचाती है। यह मसला अकेले पानी की बोतलों का ही नहीं है, खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर हर तरह के सामान की पैकिंग में प्लास्टिक या थर्माकोल का इस्तेमाल बेधड़क हो रहा है, लेकिन कोई भी निर्माता यह जिम्मेदारी नहीं लेता कि जानलेवा कचरे का उचित निबटान करने कौन करेगा। मोबाइल, कंप्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों का मुनाफा असल उत्पादन लागत का कई सौ गुणा होता है, लेकिन करोड़ों-करोड़ विज्ञापनों में खर्च करने वाली ये कंपनियां इससे उपजने वाले ई-कचरे की जिम्मेदारी लेने को राजी नहीं होतीं।

ई कचरे का बढ़ता खतरा
एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलोग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब होकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है। इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाइलों से भी उपज रहा है। इनसे निकलने वाले जहरीले तत्व और गैस मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुंच कर बीमारियों को जन्म देते हैं। रंगीन टीवी, माइक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, फैक्स मशीन, टैबलेट, सीडी, एयर कंडीशनर आदि को भी जोड़ लें तो हर दिन ऐसे उपकरणो में से कई हजार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़े में डाल दिए जाते हैं। ऐसे सभी इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है।

आखिर सरकारें खामोश क्यों
ऐसे नए उपकरण खरीदने के दौरान पैकिंग व सामान की सुरक्षा के नाम पर कई किलो थर्माकोल व पॉलीथीन का इस्तेमाल होता है जोकि उपभोक्ता कूड़े में ही फेंकता है। क्या यह अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए कि इस तरह की पैकेजिंग सामग्री कंपनी खुद तत्काल उपभोक्ता से वापिस ले ले? इन दिनों बड़े जोर-शोर से ई-रिक्शे को पर्यावरण-मित्र बता कर प्रचारित किया जा रहा है। इसने साइकिल रिक्शों को निगलना भी शुरू कर दिया है। यह बात दीगर है कि ई-रिक्शा को विदेश से मंगाने व उसे बेचने में चूंकि कई ताकतवर राजनेताओं के व्यावसायिक हित हैं, सो यह नहीं बताया जा रहा कि ई-रिक्शे की बैटरी के कारण जमीन तेजी से बंजर हो रही है। औसतन हर साल एक रिक्शे की बैटरी के चलते दो लीटर तेजाब वाला पानी या तो जमीन पर या फिर नालियों के जरिये नदियों तक जा रहा है। हर साल खराब बैटरियों के कारण बड़ी मात्र में सीसा धरती को बेकार कर रहा है। ई-रिक्शा बेचकर खासी कमाई करने वले उस रिक्शे की चार्जिग, उसकी बैटरी की पर्यावरण-मित्र देखभाल की कहीं जिम्मेदारी नहीं लेते। ठीक यही हाल देश के सबसे बड़े व्यवसायों में से एक ऑटोमोबाइल क्षेत्र का है। कंपनियां जमकर वाहन बेच रही हैं, लेकिन ईंधन से उपजने वाले प्रदूषण, खराब वाहनों या पुराने वाहनों को चलने से प्रतिबंधित करने जैसे कार्यो के लिए कोई कदम नहीं उठातीं। हर साल करोड़ों टायर बेकार होकर जलाए जा रहे हैं और उनका जहरीला धुआं परिवेश को दूषित कर रहा है, लेकिन कोई भी टायर कंपनी पुराने टायरों के सही तरीके से निपटाने को आगे नहीं आती।

यह तो किसी छिपा नहीं है कि विभिन्न सरकारों द्वारा पर्यावरण बचाने के नाम पर वसूले जा रहे टैक्स से उनका खजाना जरूर भरा हो, लेकिन कभी पर्यावरण संरक्षण के ठोस कदम तो उठे नहीं। भारत जैसे विशाल और दिन-दुगनी, रात चैागुनी प्रगति कर रहे उपभोक्तावादी देश में अब अनिवार्य हो गया है कि प्रत्येक सामान के उत्पादक या निर्यातक को यह जिम्मेदारी लेने को बाध्य किया जाए कि उसके उत्पाद से उपजे कबाड़ या प्रदूषण के निबटारे की तकनीकी और जिम्मेदारी वह स्वयं लेगा। यह कहां तक नैतिक व न्यायोचित है कि कंपनियां मोबाइल, कार, पानी बेच कर मुनाफा कमाएं और उससे निकले प्रदूषण से समाज और सरकार जूझे।

(लेखक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)