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मिलिए दिल्ली उच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ से, निर्भया कांड में निभाई थी अहम भूमिका

लीला सेठ भारत में एक राजकीय उच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश थी। लीला सेठ 1978 में दिल्ली उच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनी। इसके बाद में 1991 में हिमाचल प्रदेश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त हुई। लीला सेठ दुष्कर्म कानूनों की निरिक्षण करने के लिए गठित जस्टिस वर्मा समिति की 3 सदस्यीय बेंच का भी हिस्सा थी।

By Shashank MishraEdited By: Shashank MishraUpdated: Sat, 05 Aug 2023 12:33 AM (IST)
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पहली महिला मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ का जन्म उत्तर प्रदेश के लखनऊ में 20 अक्टूबर, 1930 को हुआ था।

नई दिल्ली, शशांक शेखर मिश्रा। भारत में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। हर क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका बढ़ रही है। आज न केवल संसद, राजनीतिक और प्रशासनिक सेवाओं में महिलाओं की स्थिति मजबूत हुई है, बल्कि देश की न्यायपालिका में भी महिलाओं ने जिम्मेदारी उठा रखी है। देश में अब तक कई महिला मुख्य न्यायाधीश बन चुकी हैं।

लेकिन क्या आपको पता है कि किसी हाईकोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश कौन थीं? उनके करियर की शुरुआत कैसे हुई। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुंचने के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा। देश में पहली हाईकोर्ट महिला मुख्य न्यायाधीश का नाम लीला सेठ है। लीला सेठ को देश में 'मदर ऑफ लाॅ' कहा जाता है। चलिए जानते हैं देश की 'मदर ऑफ लॉ' लीला सेठ के बारे में.....

जानिए कौन हैं लीला सेठ

लीला सेठ का जन्म लखनऊ, उत्तर प्रदेश में 20 अक्टूबर, 1930 को हुआ। लीला सेठ बचपन में ही पिता की मृत्यु के बाद विधवा मां के सहारे पली-बड़ीं और मुश्किलों का सामना करते हुए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जैसे पद तक पहुंचने का सफर पूरा किया। लंदन में बार की परीक्षा में शीर्ष पर रहने, भारत के 15वें विधि आयोग की सदस्य बनने और कुछ चर्चित न्यायिक मामलों में विशेष योगदान के कारण लीला सेठ का नाम विख्यात है।

लीला सेठ का विवाह बाटा कंपनी में सर्विस करने वाले प्रेम के साथ हुआ था। उस समय लीला स्नातक भी नहीं कर पायी थीं, बाद में प्रेम को इंग्लैंड में नौकरी के लिये जाना पड़ा तो वह उनके साथ इंग्लैंड गईं और वहीं से स्नातक किया। जब लीला सेठ इंग्लैंड में थीं तब उनके लिये नियमित कॉलेज जाना संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने सोचा कोई ऐसा पाठ्यक्रम हो, जिसमें रोज जाना जरूरी न हो। इसलिए उन्होंने विधि पाठ्यक्रम करना तय किया, यहां वे बार की परीक्षा में अव्वल रहीं।

कैरियर की शुरुआत

कुछ समय बाद लीला सेठ के पति को भारत लौटना पड़ा तो इन्होंने यहां आकर वकालत का अभ्यास करने की ठानी, यह वह समय था, जब नौकरियों में बहुत कम महिलाएं होती थीं। कोलकता में उन्होंने शुरुआत की लेकिन बाद में पटना आकर उन्होंने अभ्यास शुरू किया। 1959 में उन्होंने बार में दाखिला किया पटना के बाद दिल्ली में वकालत की।

प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश

लीला सेठ ने वकालत के दौरान बड़ी तादात में इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, एक्सिस ड्यूटी और कस्टम सम्बंधी मामलों के अलावा सिविल कंपनी और वैवाहिक मुकदमे भी किए। 1978 में वे दिल्ली उच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनीं और बाद में 1991 में हिमाचल प्रदेश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश नियुक्त की गईं। महिलाओं के साथ भेद-भाव के मामले, संयुक्त परिवार में लड़की को पिता की सम्पति का बराबर की हिस्सेदार बनाने और पुलिस हिरासत में हुई राजन पिल्लै की मौत की जांच जैसे मामलों में लीला सेठ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

1995 में उन्होंने पुलिस हिरासत में हुई राजन पिल्लै की मौत की जांच के लिए बनाई एक सदस्य आयोग की जिम्मेदारी संभाली। 1998 से 2000 तक वह लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की सदस्य रहीं और हिन्दू उत्तराधिकार कानूनों में संशोधन कराया, जिसके तहत संयुक्त परिवार में बेटियों को बराबर का अधिकार प्रदान किया गया।

पारिवारिक दायित्व

महत्त्वपूर्ण न्यायिक दायित्व के साथ-साथ लीला सेठ ने घर परिवार की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी भी सफलतापूर्वक निभाई। अपनी पुस्तक 'ओवन बैलेंस' के हिंदी अनुवाद 'घर और आदालत' में उन्होंने जिंदगी की कई खट्टी-मीठी यादों और घर परिवार से जुड़े कई कड़वे अनुभवों को उजागर किया है।

लीला ने एक जगह लिखा है- "मैंने शादी के वक्त अपनी मां की दी हुई नसीयत का पालन करने की कोशिश की है" झगड़ा करके कभी मत सोना, रात के अंधेरे में यह और बढ़ता है, इसलिये हम हमेशा विवाद खत्म करके ही दम लेते थे।

लीला सेठ ने अदालती मुकदमों और नौकरशाही के बारे में अपना कटु अनुभव इन शब्दों में व्यक्त किया है- "एक जज होने के बाबजूद अगर मुझे जिद्दी नौकरशाही से इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है, अगर एक न्यायाधीश होते हुए भी मुझे अपने पति को अड़ियल व भारी भरकम कंपनी से लड़ने की जगह सुलह करने की सलाह देनी पड़ती है तो कानूनों की पेचीदगियों में फंसे उन आम लोगों को कितनी परेशानियों और मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा, जिनकी सत्ता तक पहुंच नहीं है या उनकी सुनने वाला कोई नहीं है उनके पास लम्बे समय तक मुकदमा लड़ने के लिए पैसा और समय नहीं है या उन्हें यह जानकारी नहीं है कि नया या अपना हक पाने के लिए किसका दरवाजा खटखटाएं।

सेवा से निवृत्त

लीला सेठ 1992 में हिमाचल प्रदेश की मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवा निवृत हुईं। लगभग 80 वर्षीय लीला सेठ अब भी कई संस्थाओं, बोर्डों, कमिशनों में अपना योगदान दे रही हैं भारतीय अंतरराष्ट्रीय सेंटर, द नेशनल नॉलेज सेंटर, द पॉपुलर फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया, लेडी श्रीराम कॉलेज, मॉडर्न स्कूल बसंत विहार, मेयो कॉलेज से भी जुड़ी हुई हैं।

शादीशुदा जिंदगी के खुशनुमा 60 साल बिता चुकीं लीला सेठ को बागवानी का बहुत शोक है और काफी एजेंसियों के माध्यम से वे सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी हुई हैं। उन्होंने महिलाओं के साथ ही समलैंगिकों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। उन्हें देश की मदर ऑफ लॉ माना जाता है। 83 साल की उम्र में मदर ऑफ लॉ लीला सेठ ने दुनिया को अलविदा कह दिया।