इस युद्ध को लेकर कई किताबें छापी गई हैं, जिनमें कुछ-न कुछ नया मिल ही जाता है। भारत के खिलाफ पाकिस्तानी की प्लानिंग, भारत का डटकर टिके रहना, लंबे संघर्ष के बाद जीत पर अपना नाम दर्ज करना। हर किताब में नए किस्से-कहानी, नई साहस की दास्तां, नए गवाह नजर आ ही जाते हैं। इस खबर में हम किताबों के कुछ अंश देते हुए आपको बहुत-सी बातों के बारे में बताएंगे।
इन्हीं किताबों में से एक है नसीम जहरा की '
फ्रॉम कारगिल टू द कॉपः इवेंट्स डैट शूक पाकिस्तान'। किताबों में बहुत ही ऐसी बातें बताई गई हैं, जिससे बहुत कम लोग ही रूबरू हैं। दरअसल, उस युद्ध से पहले की प्लानिंग, युद्ध के दौरान हुई हलचल और दोनों देशों की दशाओं और दिशाओं को लेकर खुलकर बताया गया है। इस युद्ध में भारत के जीत की दास्तां तो सबको पता है, लेकिन बहुत लोगों के मन में सवाल होता है कि इस युद्ध से पाकिस्तान को क्या हासिल हुआ था।
ऐसे शुरू हुई कहानी
8 मई, 1999, जब पाकिस्तान की 6 नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री के कैप्टेन इफ्तेखार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आजम चौकी पर बैठे हुए थे। उसी दौरान उन्हें कुछ भारतीय चरवाहे नजर आए। इस दौरान उन्होंने सोचा कि इन चरवाहों को बंदी बनाया जाए, लेकिन फिर उन्हें लगा कि अगर इन्हें बंदी बनाया गया, तो ये उनका खाना खाएंगे और इनके पास वैसे भी खाना कम ही था।
इसके बाद उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया, लेकिन कुछ देर बाद वही चरवाहे अपने साथ भारतीय सेना के 6-7 जवानों को लेकर आए। इसके बाद वहां एक लामा हेलिकॉप्टर उड़ता हुआ आया, वह इतना नीचे उड़ रहा था कि पायलट को पाक कैप्टन इफ्तेखार का बैज साफ-साफ नजर आ रहा था। यही वो पहला मौका था, जब भारतीय सैनिकों को पता लगा कि पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया है।
इसके बाद भारतीय सैनिकों की तरफ से हेलीकॉप्टर से फायरिंग की जाने लगी, लेकिन जब पाकिस्तानी सैनिकों ने हेडक्वार्टर से परमिशन मांगी, तो उन्हें मना कर दिया गया। दरअसल, मना इसलिए किया गया था, क्योंकि वो भारत के लिए कुछ बातों को सीक्रेट ही रखना चाहते थे।
पाक के नापाक इरादों से अंजान था भारत
जहां पाकिस्तान अपनी पूरी प्लानिंग के साथ तैयार होकर बैठा था, वहां भारत को इसकी भनक तक नहीं थी। यहां तक कि रॉ को भी इसकी भनक नहीं लग सकी थी कि पाकिस्तानी सेना इतनी बड़ी योजना बना कर बैठा है। दरअसल, पाकिस्तानियों ने इस ऑपरेशन के लिए कोई अतिरिक्त बल नहीं मंगवाया था, इसलिए भी रॉ को इस ऑपरेशन की हवा तक नहीं लगी थी।
पाकिस्तानी सैनिकों की पहली योजना भारत प्रशासित कश्मीर में पहाड़ की कुछ चोटियों पर कब्जा करने और फिर श्रीनगर-लेह राजमार्ग को बंद करने की थी। इसी रास्ते से भारतीय सैनिकों को रसद मिलता था। पाकिस्तानी सैनिक हर तरह से भारतीय सेना को कमजोर करने की फिराक में थी, ताकि वो अपने नापाक इरादों को अंजाम दे सके।
पाकिस्तान को गर्व या दुख?
नसीम जहरा ने अपनी किताब "
फ्रॉम कारगिल टू द कॉपः इवेंट्स डैट शूक पाकिस्तान" में कहती हैं कि "कारगिल के बारे में दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तानियों को इस ऑपरेशन को लेकर गर्व भी हो सकता है और दुख भी। जिस तरह से युवा सैनिकों को कारगिल भेजा गया था, जिस कड़ाके की ठंड में वे वहां पहुंचे थे और जिन परिस्थितियों में उन्होंने बहादुरी से लड़ाई लड़ी, वो पाकिस्तान के लिए गर्व की वजह है, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि उन्हें वहां क्यों भेजा गया?"
बेहद अच्छा प्लान था- जनरल मुशर्रफ
जनरल परवेज मुशर्रफ इस
कारगिल ऑपरेशन की योजना को लेकर बार-बार दोहराया करते थे कि ये उनकी नजर में ये बहुत अच्छा प्लान था। इसने भारतीय सेना को खासी मुश्किल में डाल दिया था।
उन्होंने अपनी आत्मकथा '
इन द लाइन ऑफ फायर' में लिखा है, "जून के मध्य तक भारतीयों को कोई खास सफलता नहीं मिली। भारतीयों ने खुद माना कि उनके 600 से अधिक सैनिक मारे गए और 1500 से अधिक जख्मी हुए, लेकिन हमारी जानकारी ये है कि असली संख्या लगभग इसकी दोगुनी थी। असल में भारत में हताहतों की बहुत बड़ी तादाद के कारण ताबूतों की कमी पड़ गई थी और बाद में ताबूतों का एक घोटाला भी सामने आया था।"
27 गुना ज्यादा ताकत की जरूरत
ये लड़ाई करीब 100 किलोमीटर के दायरे में लड़ी जा रही थी। 1700 पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा के 8 या 9 किलोमीटर अंदर घुस आए थे। इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 527 सैनिक मारे गए और 1363 जवान घायल हुए थे।ऐसा कहा जाता है कि अगर जमीन पर लड़ाई हो रही हो, तो आक्रामक फौज को रक्षक फौज का लगभग तीन गुना होना चाहिए, लेकिन वहीं अगर ये लड़ाई पहाड़ों पर हो रही है, तो ये संख्या नौ गुनी होनी चाहिए। वहीं, कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों की पोजीशन के देखते हुए माना जा रहा था कि एक पाक सैनिक से निपटने के लिए 27 जवान भेजे जाने थे।
अलग होती युद्ध की कहानी
भारतीय सैनिकों को लग रहा था कि वो इस युद्ध को अपने अनुसार सुलझा लेंगे और उन्होंने राजनीतिज्ञों को सूचित नहीं किया था। हालांकि, कुछ समय बाद जब मुद्दा बढ़ता गया तो, ये देश के हर व्यक्ति तक पहुंचने लगा। जब भारतीय नेतृत्व को इस युद्ध के बारे में पता लगा, तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन मिलाया।पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा '
नीदर अ हॉक नॉर अ डव' में लिखते हैं, "वाजपेयी ने शरीफ से फोन पर शिकायत की थी कि आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे हैं और कारगिल पर कब्जा कर रहे हैं। तब नवाज शरीफ से कहा कि उन्हें इसकी बिल्कुल भनक नहीं है।" परवेज मुशर्रफ आखिर तक कहते रहे थे कि अगर पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ने उनका साथ दिया होता, तो आज इस युद्ध की कहानी कुछ और होती।
अपनी पोजीशन से पाकिस्तान को फायदा हुआ या नुकसान?
पाकिस्तानी सेना को चोटी पर अपनी पोजिशन का फायदा हो रहा था, क्योंकि वो आसानी से भारतीय सेना पर नजर रख पा रही थी और हमला करना उनके लिए आसान था। हालांकि, जब भारतीय सेना ने धीरे-धीरे महसूस किया कि क्या हो रहा है तो, युद्ध की कहानी पलट गई और चोटी पर बंकर बनाना पाकिस्तानी सैनिकों के लिए सजा बन गई।
लेखक नसीम जहरा ने अपनी किताब
'फ्रॉम कारगिल टू द कॉपः इवेंट्स डैट शूक पाकिस्तान' में कहा कि कारगिल की पहाड़ियों से नीचे उतरने पर भी पाकिस्तान को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। उन्होंने बताया, "पाक सैनिकों के लौटने के लिए कोई सड़क या फिर वाहन मार्ग नहीं थे, न ही वे एक दोस्ताना वातावरण बचा था, जिसके जरिए वो वापस आ पाते। पहाड़ों की 16 से 18 हजार फीट की ऊंचाई से लौटना बहुत मुश्किल और खतरनाक था। युद्ध बहुत कम समय के लिए, लेकिन यह भीषण तरीके से लड़ा गया था।"
वायुसेना और बोफोर्स तोप ने बदल दी सूरत
इस युद्ध में भारतीय वायुसेना और बोफोर्स तोप ने शामिल होकर
कारगिल युद्ध की सूरत ही बदल डाली। वायुसेना लगातार पाक सैनिकों पर हमलावर होती रही और हवा में रहकर बन और गोलियां बरसाने लगी, लेकिन पाकिस्तानियों की ओर से कार्रवाई करने के आदेश नहीं दिए जा रहे थे। बोफोर्स तोपों ने पहाड़ की चोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए और भारतीय वायु सेना ऊपर से लगातार बमबारी कर रही थी।
नसीम जहरा उन्हें गलत मानती हैं, जो लोग सोचते हैं कि इस युद्ध से कश्मीर के मामले में पाकिस्तान को फायदा पहुंचा है।उनका कहना है, "युद्ध के तथ्य इस बात का समर्थन नहीं करते हैं कि पाकिस्तान को फायदा हुआ होगा। तथ्यों के मुताबिक, यह पाकिस्तान की एक ऐसी गलत चाल थी कि पाकिस्तान को सालों तक बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरू करने की कोशिश करनी पड़ी। भले ही भारत ने 1971 और सियाचिन किया हो पर कारगिल युद्ध का पाकिस्तान का फैसला बहुत गैर-जिम्मेदाराना था। इसने पाकिस्तान की छवि को नुकसान पहुंचाया।"हालांकि नसीम जहरा का मानना है कि कोई भी नुकसान या लाभ स्थायी नहीं होता है, देशों को अपनी नीतियों की समीक्षा करने का अवसर मिलते हैं।