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जब रातों रात जम्‍मू कश्‍मीर से अपना घर छोड़ कर भागना पड़ा था, आज भी याद है वो मंजर

आतंकवाद के डर से अपनी जान बचाकर भागने को मजबूर हुए कश्‍मीरी पंडितों को अब अपनी वापसी की उम्‍मीद जगने लगी है। लेकिन उन्‍हें वो खौफनाक मंजर आज तक याद है जब वह वहां से निकले थे।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Tue, 06 Aug 2019 01:09 PM (IST)
जब रातों रात जम्‍मू कश्‍मीर से अपना घर छोड़ कर भागना पड़ा था, आज भी याद है वो मंजर
जब रातों रात जम्‍मू कश्‍मीर से अपना घर छोड़ कर भागना पड़ा था, आज भी याद है वो मंजर

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। जम्‍मू कश्‍मीर की संवैधानिक स्थिति में हुए बदलाव के बाद कश्‍मीर से रातों रात अपना घर छोड़कर भागने वाले विस्‍थापितों को अब घर वापसी की उम्‍मीद जगने लगी है। लेकिन इस उम्‍मीद में उनका दर्द भी साफतौर पर छलक रहा है। साथ ही एक सवाल भी उठ रहा है कि क्‍या इस बदलाव से उन्‍हें वहां पर सुरक्षित माहौल मिल सकेगा। इस नए और एतिहासिक बदलाव का असर घाटी समेत पूरे राज्‍य पर किस तरह से पड़ता है यह तो वक्‍त ही बताएगा। लेकिन इस बीच दैनिक जागरण ने कुछ विस्‍थापितों से उनका दर्द जानने की कोशिश की। इनमें से एक हैं रवि कौल, दूसरे हैं एन के भट्ट और तीसरे हैं एम धर।

भट्ट और कौल साहब भारतीय जीवन बीमा निगम से रिटायर हो चुके हैं और फिलहाल गाजियाबाद में रह रहे हैं। वहीं धर साहब बैंक से रिटायरमेंट लेकर गाजियाबाद में ही रह रहे हैं। इन सभी का दर्द और उम्‍मीद एक जैसी है। इन तीनों को ही वो दिन आज तक याद है जब रातों रात इन्‍हें अपना घर छोड़कर जान बचाकर परिवार के साथ भागना पड़ा था। ये 90 के दशक की बात है जब जम्‍मू कश्‍मीर में आतंकवाद चरम पर था। हर रोज लोगों के मारे जाने की घटनाएं आम हो गई थीं। कौल बताते हैं कि वह अपनी मां, बीवी और बच्‍चों के साथ अनंतनाग में रहते थे। जिस वक्‍त राज्‍य में आतंकवाद शुरू हुआ धीरे-धीरे वहां से सरकारी ऑफिस भी अपना कामकाज समेटने लगे थे। एलआईसी की जिस ब्रांच में कौल काम करते थे वहां पर भी आतंक का साया नजर आने लगा था। आतंकियों की नजरें कश्‍मीरी पंडितों पर लगी थीं। उनका मकसद या तो उन्‍हें मारना था या फिर उन्‍हें भगाना था।

अनंतनाग में सरकारी जॉब और दहशत के बीच दिन काट रहे कौल बताते हैं कि आतंकवाद के चलते बच्‍चों का बाहर निकलना बंद हो चुका था। पूरा दिन बच्‍चे घर में ही रहते थे। जब भी गेट बजता था तब मन में इस बात का डर रहता था कि न मालूम गेट के दूसरी तरफ कौन हो। उनका ये डर एक दिन सच साबित हुआ। एक रात करीब दस बजे उनके गेट पर किसी ने दस्‍तक दी। कौल साहब ने गेट खोला तो सामने चार आतंकी हाथों में एके 47 लिए और मुंह पर कपड़ा बांधे खड़े थे। पूरा घर उन्‍हें देखकर सन्‍न रह गया था। आतंकियों ने कौल साहब को धक्‍का देकर नीचे गिरा दिया और उनके सीने पर राइफल तान दी। उनकी पत्‍नी आतंकियों से कौल साहब के जीवन की भीख मांग रही थी और बच्‍चे डर के मारे दीवार के पीछे छिपे थर-थर कांप रहे थे।

कौल साहब बताते हैं कि वो दिन शायद अच्‍छा था कि आतंकियों ने उन्‍हें गोली नहीं मारी और ये कहते हुए वहां से चले गए कि दिन निकलने तक वो परिवार समेत वहां से चले जाएं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो अगले दिन सभी को मार दिया जाएगा। आतंकियों के जाने के बाद बिना देर किए कौल साहब ने कुछ सामान लिया और रातों-रात घर से निकल गए। दिल में दहशत थी और आंखों में आंसू थे। दिन में अपना ही घर छोड़ने का दर्द था। वो नहीं जानते थे कि उन्‍हें कभी वापस आने का मौका मिलेगा भी या नहीं। सुनसान सड़क पर मिली एक टैक्‍सी से वो किसी तरह से जम्‍मू पहुंचे और फिर दिल्‍ली। उन्‍हें दिल्‍ली में नए ऑफिस में ज्‍वाइनिंग तो मिल गई लेकिन वह डेढ़ दशक तक कभी अपने घर नहीं जा सके।

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