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स्मृति शेष : कृष्णा सोबती ने कहा था 'मरने के बाद भी जिंदा रहते हैं शब्द, धीमे मत बोलना'

कृष्‍णा का लेखन हमेशा वक्‍त से आगे रहा, पर उनका लेखन हमेशा संयमित रहा। अपने कालजयी उपन्यास मित्रो मरजानी में उन्होंने अपने बेलौस संवाद के द्वारा कथा-भाषा को एक विलक्षण ताजगी दी।

By JP YadavEdited By: Updated: Fri, 25 Jan 2019 02:16 PM (IST)
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स्मृति शेष : कृष्णा सोबती ने कहा था 'मरने के बाद भी जिंदा रहते हैं शब्द, धीमे मत बोलना'

नई दिल्ली [स्मिता]। अपने उपन्‍यास 'मित्रो मरजानी' के माध्‍यम से स्‍त्री की सशक्‍तता का अहसास कराने वाली कृष्‍णा सोबती अपने हाव-भाव से भी पुरुष सत्‍ता को चुनौती देती प्रतीत होती थीं। कई बार इंटरव्यू के लिए मना करने के बाद जब वे तैयार हुईं, तो पहले उन्‍होंने पूरा क्‍वेश्‍चनैयर सुना। जब उन्‍हें सुनने में दिक्‍कत होती, तो वे डांटने के अंदाज में कहतीं, ये शब्‍द ही हैं, जो मरने के बाद भी जिंदा रहते हैं... इसलिए कभी धीमे मत बोला करो। हमारी आवाज में ठसक होनी चाहिए। पता नहीं वे मुझे कितना परिवर्तित कर पाईं, लेकिन खुद ठसक के साथ न सिर्फ लिखती थीं, बल्कि पूरे दमखम के साथ अपनी बात भी कहतीं।

कई बार तो उन्‍होंने पुरस्‍कार यहां तक कि राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार भी लौटाए। पूछने पर उन्‍होंने बताया कि लेखक को यह अधिकार है कि स्वीकार करने से पहले सम्मानों और पुरस्कारों की संहिता को वह सैद्धांतिक स्तर पर अच्छी तरह परखे। लेखक को इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिए। यह समाज के प्रबुद्धों का ध्यान बंटाने के लिए बहुत जरूरी है। प्रकाशित होने के बाद कृति लेखक की होते हुए भी विलग हो जाती है, लेकिन आलोचना, सराहना का सामना करना लेखक की जिम्मेदारी होती है। उन्‍हें अपने शब्‍दों से इतना लगाव था कि अपने उपन्‍यास 'जिंदगीनामा' के नाम के लिए वे कोर्ट तक पहुंच गईं।

कृष्णा सोबती ने अपने तरीके से इतिहास को जिया था। उन्होंने न सिर्फ भारत-पाकिस्‍तान को बंटते और देश को आजाद होते हुए देखा था, बल्कि राष्‍ट्र का संविधान बनते हुए भी। उन्‍होंने कहा कि मैंने तीन पीढि़यों को अपने सामने जवान होते हुए देखा।

'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान' में उन्‍होंने बड़े ही मार्मिक अंदाज में बताया है कि वे किस तरह दिल्ली पहुंचती हैं और कैसे हिंदुस्तान का गुजरात उन्हें आवाज देता है और वे पाकिस्तान के गुजरात की अपनी सुखद स्मृतियों को एक बक्‍से में बंदकर अपनी पहली नौकरी के लिए चल पड़ती हैं। उनका यह महासमुद्र सा अनुभव उनके हर उपन्यास और कहानियों में दिखता है।

कृष्‍णा का लेखन हमेशा वक्‍त से आगे रहा, पर उनका लेखन हमेशा संयमित रहा। अपने कालजयी उपन्यास 'मित्रो मरजानी' में उन्होंने अपने बेलौस संवाद के द्वारा कथा-भाषा को एक विलक्षण ताजगी दी। सूरजमुखी अंधेरे के, डार से बिछुड़ी, जिंदगीनामा, दिलोदानिश, समय सरगम आदि में उन्होंने कथा को अप्रतिम ताजगी और स्फूर्ति प्रदान की। उनकी लंबी कहानी 'ए लड़की' का स्वीडन में नाट्य मंचन भी हुआ। वे जब तक वे लिखने-पढ़ने में समर्थ रहीं युवाओं का लेखन पढ़ती रहीं।

उन्‍होंने बताया कि युवाओं के लेखन से बीत रहे समय का पता चलता है। आप समय के साथ कदम मिला पाते हैं। अपने फोटो के प्रति वे इतनी संवेदनशाील थीं कि अपने मनपसंद ड्रेस में ही फोटो खिंचवाई। उन्‍होंने कहा, आज मेरा मूड ठीक नहीं है, फोटो अच्‍छी नहीं आएगी। आज भी याद है इंटरव्यू खत्‍म होने के बाद यह हिदायत देती हुई वह दरवाजे तक छोड़ने आईं कि अच्‍छे से शब्‍दश: मेरी बातों को लिखना, तभी मैं आगे बात करूंगी। पर अब उनकी आवाज खामोश हो चुकी है। 

यहां पर बता दें कि पाकिस्तान के गुजरात प्रांत में 18 फरवरी, 1925 जन्मीं भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद इनका परिवार दिल्ली में आकर रहने लगा। यहां रहने के दौरान कृष्णा ने साहित्य सृजन-सेवा की शुरुआत की। उन्होंने नारी पर होने वाले अत्याचारों को अपने साहित्य के जरिये उजागर किया। इतना ही नहीं, इस बहाने उन्होंने उनकी विभिन्न समस्याओं के साथ उन्हें प्राप्त होनें वाले सामजिक अश्लीलता का बखूबी वर्णन किया है। यह अलग बात है कि इस बात के लिए उनकी आलोचना भी हुई, लेकिन अपने अंदाज के लिए मशहूर कृष्णा सोबती ने कभी परवाह नहीं की।