Upper Caste Reservation: जानें- आंबेडकर ने क्यों कहा था ‘आरक्षण बैसाखी नहीं सहारा है’
Upper Caste Reservation पर राय बनाने से पहले समझना जरूरी है कि आंबेडकर ने संविधान में आजीवन आरक्षण क्यों नहीं किया? महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने आरक्षण पर क्या कहा था?
By Amit SinghEdited By: Updated: Tue, 08 Jan 2019 06:39 PM (IST)
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। देश में आरक्षण का इतिहास तकरीबन 136 साल पुराना है। भारत में आरक्षण की शुरूआत वर्ष 1882 में उस वक्त शुरू हुई, जब हंटर आयोग का गठन हुआ था। उस वक्त विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, साथ ही अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग की थी। 1908 में अंग्रेजों ने पहली बार आरक्षण लागू करते हुए प्रशासन में हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों की हिस्सेदारी तय की।
ब्रिटिश राज से आज के प्रगतिशील भारत तक आरक्षण की बेल लगातार फल-फूल रही और बढ़ती जा रही है। नतीजतन देश में आरक्षण की मांग और इसे खत्म करने के लिए सैकड़ों आंदोलन हो चुके हैं। अब एक बार फिर केंद्र सरकार ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को 10 फीसद आरक्षण की घोषणा कर इस मुद्दे को हवा दे दी है। सरकार की इस घोषणा के बाद से लोग अलग-अलग तरह की राय व्यक्त कर रहे हैं। आरक्षण पर कोई भी राय बनाने से पहले हम सबके लिए ये जानना जरूरी है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान में स्थाई आरक्षण क्यों नहीं रखा? साथ ही इस मुद्दे पर राष्ट्रपति महात्मा गांधी और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की क्या राय थी?
आरक्षण कमेटी भी इसके खिलाफ थी
आरक्षण के मुद्दे पर बनी कमेटी भी इस व्यवस्था के खिलाफ थी। यही वजह है कि कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर जब दिसंबर 1949 में धारा 292 और 294 के तहत मतदान कराया गया तो उस वक्त सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में मतदान किया था। दरअसल इन्होंने आरक्षण के दूरगामी परिणाओं का अंदाजा उसी वक्त लगा लिया था।
आरक्षण के मुद्दे पर बनी कमेटी भी इस व्यवस्था के खिलाफ थी। यही वजह है कि कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर जब दिसंबर 1949 में धारा 292 और 294 के तहत मतदान कराया गया तो उस वक्त सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में मतदान किया था। दरअसल इन्होंने आरक्षण के दूरगामी परिणाओं का अंदाजा उसी वक्त लगा लिया था।
आरक्षण पर राजनीति
आज के दौर में आरक्षण एक समूह के उत्थान की जरूरत से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। साथ ही आरक्षित वर्ग के संभ्रांत और ऊंची पहुंच वाले लोगों के लिए ये आरक्षण उनकी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रखने का माध्यम बन चुका है। भारतीय संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गई थी, उसका उद्देश्य केवल कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना था। इस मामले में हमारे राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से ज्यादा विकृत निकली। यही वजह है कि आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से कराईं, बल्कि उन्हें लागू भी किया। इसके खिलाफ सवर्ण युवाओं ने काफी हंगामा और प्रदर्शन किया। इन सवर्ण छात्रों ने संसद से लेकर सड़क तक विरोध प्रदर्शन किया। इसके कुछ की जान भी चली गई। आरक्षण आज ऐसा मुद्दा बन चुका है जो किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए जीत-हार की वजह बनता है। आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं, सहारा है- आंबेडकर
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने खुद संविधान बनाते वक्त उसमें आरक्षण की स्थाई व्यवस्था नहीं की थी। उन्होंने कहा था ’10 साल में यह समीक्षा हो कि जिन्हें आक्षण दिया गया, क्या उनकी स्थिति में कोई सुधार हुआ या नहीं’? उन्होंने यह भी कहा था कि यदि आरक्षण से किसी वर्गा का विकास हो जाता है तो उसके आगे की पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहिए। इसके पीछे उन्होंने वजह बताई थी कि आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं है, जिसके सहारे पूरी जिंदगी काट दी जाए। यह विकसित होने का एक मात्र अधिकार है। यही वजह है कि आंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की स्थाई व्यवस्था नहीं की थी। आरक्षण जाति धर्म पर नहीं, आर्थिक आधार पर हो- महात्मा गांधी
महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में लिखा था ‘धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। सरकारी मदद केवल उन्हीं लोगों को मिलनी चाहिए, जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो’। आरक्षण से समाज का संतुलन बिगड़ेगा- जवाहर लाल नेहरू
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 26 मई 1949 को असेंबली में भाषण देते हुए जोर देकर कहा था ‘यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज में असंतुलन बढ़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी।’ आरक्षण 95 फीसद पहुंचने पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
वर्ष 2006 में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण 95 फीसद तक पहुंच गया था। इसके बाद वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने वित्तपोषित सरकारी संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा पर तो सहमति जता दी, लेकिन संपन्न तबके को इससे बाहर रखने को कहा था। आज संविधान को लागू हुए 69 वर्ष पूरे हो चुके हैं और दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 69 वर्ष पूरा कर चुका है। बावजूद आज भी सवाल बरकरार है कि क्या आरक्षण से दलित समाज स्वावलंबी बन पाया? सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि आरक्षण का लाभ किसे मिल रहा है इस पर बराबर नजर रखी जाए। बावजूद ऐसा नहीं हुआ। इस वजह से आरक्षण केवल नासूर बनकर रह गया। सक्षम लोग ही उठा रहे आरक्षण का लाभ
आरक्षण की अवधारणा के विपरीत वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ ऐसे वर्ग को मिल रहा है जिनके पास सब कुछ है और जिन्हें आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है। आरक्षित वर्ग के बहुत से लोग उच्च पदों पर पहुंच चुके हैं। इनमें कुछ करोड़पति तो कुछ अरबपति भी हैं। बावजूद आरक्षित जाति का होने की वजह से उनके बच्चे भी आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। बुद्धजीवी अक्सर सवाल उठाते रहे हैं कि ऐसे लोगों के लिए आरक्षण क्यों? इसी तरह आरक्षित वर्ग के बहुत से लोग जो मुस्लिम या ईसाई धर्म अपनाकर सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, वह भी गैरकानूनी तरीके से आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। यह भी पढ़ें-
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आज के दौर में आरक्षण एक समूह के उत्थान की जरूरत से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। साथ ही आरक्षित वर्ग के संभ्रांत और ऊंची पहुंच वाले लोगों के लिए ये आरक्षण उनकी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रखने का माध्यम बन चुका है। भारतीय संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गई थी, उसका उद्देश्य केवल कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना था। इस मामले में हमारे राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से ज्यादा विकृत निकली। यही वजह है कि आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से कराईं, बल्कि उन्हें लागू भी किया। इसके खिलाफ सवर्ण युवाओं ने काफी हंगामा और प्रदर्शन किया। इन सवर्ण छात्रों ने संसद से लेकर सड़क तक विरोध प्रदर्शन किया। इसके कुछ की जान भी चली गई। आरक्षण आज ऐसा मुद्दा बन चुका है जो किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए जीत-हार की वजह बनता है। आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं, सहारा है- आंबेडकर
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने खुद संविधान बनाते वक्त उसमें आरक्षण की स्थाई व्यवस्था नहीं की थी। उन्होंने कहा था ’10 साल में यह समीक्षा हो कि जिन्हें आक्षण दिया गया, क्या उनकी स्थिति में कोई सुधार हुआ या नहीं’? उन्होंने यह भी कहा था कि यदि आरक्षण से किसी वर्गा का विकास हो जाता है तो उसके आगे की पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहिए। इसके पीछे उन्होंने वजह बताई थी कि आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं है, जिसके सहारे पूरी जिंदगी काट दी जाए। यह विकसित होने का एक मात्र अधिकार है। यही वजह है कि आंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की स्थाई व्यवस्था नहीं की थी। आरक्षण जाति धर्म पर नहीं, आर्थिक आधार पर हो- महात्मा गांधी
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वर्ष 2006 में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण 95 फीसद तक पहुंच गया था। इसके बाद वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने वित्तपोषित सरकारी संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा पर तो सहमति जता दी, लेकिन संपन्न तबके को इससे बाहर रखने को कहा था। आज संविधान को लागू हुए 69 वर्ष पूरे हो चुके हैं और दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 69 वर्ष पूरा कर चुका है। बावजूद आज भी सवाल बरकरार है कि क्या आरक्षण से दलित समाज स्वावलंबी बन पाया? सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि आरक्षण का लाभ किसे मिल रहा है इस पर बराबर नजर रखी जाए। बावजूद ऐसा नहीं हुआ। इस वजह से आरक्षण केवल नासूर बनकर रह गया। सक्षम लोग ही उठा रहे आरक्षण का लाभ
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