Swami Vivekanand Smriti Divas: जानिए, किसने स्वामी जी को दिया था विवेकानंद का नाम
स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी दुनिया में भारतीय धर्म और दर्शन की पताका फहराने का काम किया था। उनका यह अमूल्य योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा।
By Brij Bihari ChoubeyEdited By: Updated: Sat, 04 Jul 2020 12:49 PM (IST)
नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। स्वामी विवेकानंद 39 वर्ष की अल्पायु में ही इस दुनिया को अलविदा कह गए लेकिन इस धरती पर इस छोटे से काल के लिए अवतरित होने वाले स्वामी जी का योगदान इतना विशाल है कि उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। क्या आपको पता है कि स्वामी जी यानी नरेंद्रनाथ को विवेकानंद का नाम किसने दिया था? यह नाम उन्हें राजस्थान के शेखावटी अंचल स्थित खेतड़ी के राजा अजित सिंह ने दिया था।
विवेकानंद से पहले उन्हें सच्चिदानंद और विविदिषानंद के नाम से जाना जाता था। अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल होने से पहले स्वामी जी राजा अजित सिंह के बुलावे पर 21 अप्रैल, 1893 खेतड़ी पहुंचे थे। यह उनकी दूसरी खेतड़ी यात्रा थी। इससे पहले वे 7 अगस्त 1891 से लेकर 27 अक्टूबर 1891 तक खेतड़ी में रहे थे। अपने प्रथम खेतड़ी प्रवास के दौरान ही राजा अजित सिंह ने उन्हें अपना गुरु मान लिया था।
खेतड़ी में दूसरे प्रवास के दौरान राजा अजित सिंह ने उन्हें विविदिषानंद के बजाय विवेकानंद का नाम धारण करने का अनुरोध किया, जिसे स्वामी जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। राजा का कहना था कि पश्चिम के लोगों के लिए विविदिषानंद का न सिर्फ उच्चारण करने में दिक्कत होगी बल्कि उन्हें इसका अर्थ समझाने में भी मुश्किल होगी।
आपको यह भी बता दें कि शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में जाने के लिए जब स्वामी जी को कहीं से वित्तीय मदद नहीं मिली तो राजा अजित सिंह ही इसके लिए आगे आए और उनकी यात्रा और ठहरने का उचित प्रबंध किया था। यहां तक कि अमेरिका जाने के बाद स्वामी जी के पैसे गुम हो गए तो राजा अजित सिंह ने दोबारा उन्हें पैसे भेजे थे।
राजा खेतड़ी और स्वामी जी के रिश्तों के अलावा भी बहुत की बातें हैं जिन्हें जानना जरूरी है। क्या आप जानते हैं कि स्वामी जी को पश्चिम जाने की प्रेरणा किसने दी थी? मार्च, 1892 में स्वामी जी गुजरात के पोरबंदर शहर में प्रवास कर रहे थे। वहां वे महान संस्कृत विद्वान पंडित शंकर पांडुरंग के मेहमान थे।
ये शंकर पांडुरंग ही थे जिनसे स्वामी जी ने पणिनी के संस्कृत व्याकरण की शिक्षा ग्रहण की थी। पांडुरंग ने ही स्वामी जी को समझाया था कि तुम यहां व्यर्थ ही अपना समय नष्ट कर रहे हो क्योंकि यहां कोई तुम्हारी बात नहीं समझेगा। तुम्हारे ज्ञान का आदर करने के बजाय लोग तुम्हारा उपहास उड़ाएंगे। पांडुरंग के समझाने पर स्वामी जी हिंदू धर्म की सम्यक व्याख्या करने के लिए अमेरिका जाने को तैयार हुए थे।