Move to Jagran APP

पूर्वोत्तर का शिवाजी: इतिहास की किताबों में उचित सम्मान पाने से वंचित रह गए लचित बरफुकन

लचित बरफुकन शत्रु सेना को अपनी सीमा में प्रवेश करने देते थे फिर आगे और पीछे से आक्रमण करते थे। अहोम सेना ने ब्रह्मपुत्र नदी पर नाव के पुल बनाने की तकनीक भी सीखी थी। उनकी नौसेना काफी मजबूत हो गई थी जिसने मुगलों पर विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Fri, 25 Nov 2022 11:07 AM (IST)
Hero Image
लचित बरफुकन : पूर्वोत्तर का शिवाजी। फोटो विकिपीडिया
डा. अरुण कुमार। महान योद्धा अहोम सेनापति लचित बरफुकन की आज 400वीं जन्म जयंती है। जिस रूप में राजस्थान में महाराणा प्रताप को, महाराष्ट्र में शिवाजी को और पंजाब में गुरु गोबिंद सिंह को याद किया जाता है, उसी रूप में असम के लोग लचित बरफुकन को भी याद करते हैं। लचित एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने जान की बाजी लगाकर अपनी जन्मभूमि की रक्षा की। असम में जब भी वीरगाथाओं की चर्चा होती है तो सरइघाट के युद्ध की चर्चा जरूर होती है, इसी युद्ध के महानायक थे लचित बरफुकन। मुगलों की विशाल सेना को सीमित संसाधनों, वीरता, देशभक्ति और युद्ध कौशल के बल पर हराने का महान कार्य लचित ने कर दिखाया था। इसी कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें भारत की 'आत्मनिर्भर सेना का प्रतीक' कहा है।

भारतीय इतिहास लेखन की भेदभावपूर्ण नीति के कारण इस योद्धा को इतिहास की किताबों में वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वह हकदार थे। अब असम और केंद्र सरकार की पहल पर लचित बरफुकन की वीरता, युद्ध कौशल और देशभक्ति की भावना से पूरे देश के लोगों का परिचय कराने के उद्देश्य से कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।

असम पूर्वोत्तर भारत का एक बेहद खूबसूरत, उपजाऊ और महत्वपूर्ण राज्य है। चारों ओर सुरम्य पर्वत श्रेणियों से घिरे इस राज्य पर वर्ष 1225 ई से लेकर 1826 तक अहोम साम्राज्य का शासन था। अहोम साम्राज्य की स्थापना म्यांमार के शान प्रांत से आए छोलुंग सुकफा नामक राजा ने की थी। वर्ष 1826 में यांडाबू की संधि के साथ ही अहोम साम्राज्य का शासन समाप्त हुआ और यह क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन आ गया। उस समय असम की बहुसंख्यक जनता हिंदू थी, इसलिए अहोम राजा ने हिंदू धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप ही शासन किया। अहोम राजाओं ने हिंदू धर्म को अपनाया था और वे अपने आदिवासी देवताओं के साथ-साथ हिंदू धर्म के देवताओं की भी पूजा करते थे। उन्होंने कवियों और विद्वानों को भूमि दान दी थी, इसलिए उनके काल में असमिया संस्कृति, साहित्य और भाषा का खूब विकास हुआ। अहोम राजाओं ने संस्कृत ग्रंथों का असमिया भाषा में अनुवाद कराया था। अहोम राजाओं के शासन काल में जनता काफी खुशहाल थी।

आक्रांताओं का मुकाबला

असम के वीरों ने सदैव अपनी जन्मभूमि पर हुए बाहरी आक्रमणों का डटकर मुकाबला किया है। बख्तियार खिलजी एक विशाल सेना लेकर दिल्ली से निकला तो नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करते हुए बंगाल को जीता, फिर असम पर आक्रमण किया, परंतु वहां के वीरों से हारकर वह लौट आया। वर्ष 1639 में मुगल सेनापति अल्लाह यारखां ने भी असम पर आक्रमण किया। अहोम राजाओं की आपसी फूट के कारण वह पश्चिमी असम पर कब्जा करने में सफल हुआ, लेकिन कुछ ही समय बाद राजा जयध्वज सिंह ने पश्चिमी असम से मुगलों को खदेड़ दिया। जब औरंगजेब राजा बना तो उसने अपने सेनापति मीर जुमला को विशाल सेना के साथ असम पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वर्ष 1662 में मीर जुमला ने वहां के सेनापति को घूस देकर असम को जीत लिया। वर्ष 1663 ई में अहोम राजाओं और मुगलों के मध्य संधि हुई। संधि की शर्तों के अनुसार अहोम राजा मुगलों को हर वर्ष कुछ लाख रुपये और कई सौ हाथी भेजने को राजी हुए। अहोम राजा की राजकुमारी का विवाह औरंगजेब के बेटे के साथ हुआ और उसका मतांतरण कराते हुए उसका नाम रहमत बानो रखा गया। अहोम साम्राज्य की जनता और राजा जयध्वज के स्वाभिमान को इस संधि से काफी धक्का लगा और वे इस संधि को तोड़कर मुगलों से बदला लेना चाहते थे।

अहोम साम्राज्य के स्वाभिमान का बदला लेने की जिम्मेदारी उसके सेनापति अर्थात लचित बरफुकन को सौंपी गई। वर्ष 1667 ई में लचित बरफुकन ने गुवाहाटी को मुगलों से छीन लिया। औरंगजेब को जैसे ही इसका पता चला उसने आमेर के राजा राम सिंह की अगुवाई में एक बड़ी सेना को अहोम पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। वर्ष 1671 ई में गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर सरायघाट में मुगलों और अहोम के बीच भीषण युद्ध हुआ। इतिहास में इस युद्ध को ‘सरईघाट का युद्ध’ कहते हैं। मुगलों की विशाल सेना को पराजित करने के लिए लचित बरफुकन ने ठोस रणनीति बनाई। उसने युद्ध से पहले शत्रुओं की सही स्थिति का आकलन करने के लिए उनकी शिविरों में जासूस भेजा।

छत्रपति शिवाजी की सेना की तरह अहोम सैनिक भी गुरिल्ला युद्ध में विशेषज्ञ थे। लचित बरफुकन की युद्ध नीति भी शिवाजी की तरह ही थी। यही कारण है कि लाचित को पूर्वोत्तर का शिवाजी भी कहा जाता है और यह केवल संयोग नहीं है कि औरंगजेब को दोनों से हार का सामना करना पड़ा। लाचित शत्रु सेना को अपनी सीमा में प्रवेश करने देते थे फिर आगे और पीछे से आक्रमण करते थे। अहोम सेना ने ब्रह्मपुत्र नदी पर नाव के पुल बनाने की तकनीक भी सीखी थी। इस तकनीक के कारण उनकी नौसेना काफी मजबूत हो गई थी जिसने मुगलों पर विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, लक्ष्मीबाई कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय]