जजों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता की कमी, न्यायपालिका पर है सुधार की जिम्मेदारी- विशेषज्ञ
विशेषज्ञों का कहना है कि जजों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता की कमी है। इसमें सुधार की जरूरत है जिसकी जिम्मेदारी न्यायपालिका पर है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज शिव कीर्ति सिंह ने कहा कि चयन के मानक और कारण बताए जाने चाहिए।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था एक बार फिर चर्चा में है। कानून मंत्री कई मौकों पर कोलेजियम व्यवस्था पर सवाल उठा चुके हैं। उधर, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति से जुड़े मामले पर सुनवाई के दौरान सरकार द्वारा कोलेजियम की सिफारिशों को लंबे समय तक लंबित रखने को अस्वीकार्य बताया। ये परिस्थितियां बताती हैं कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर सब कुछ ठीक नहीं है।
कोलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता की कमी
विशेषज्ञ भी मानते हैं कि कोलेजियम व्यवस्था तो ठीक है, लेकिन उसमें पारदर्शिता की कमी है। इसमें सुधार की जरूरत है और इसकी जिम्मेदारी न्यायपालिका की है। विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि कोई भी सिस्टम फूलप्रूफ नहीं होता। इसमें भी कुछ कमियां हैं जिन्हें आपसी विचार-विमर्श से निपटाया जाना चाहिए। कुछ एनजेएसी (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) जैसा कानून फिर लाने की बात भी करते हैं। उच्च न्यायपालिका यानी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कोलेजियम व्यवस्था लागू है।
कोलेजियम व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है सरकार
प्रधान न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों का कोलेजियम नियुक्ति की सिफारिश करता है और उस पर सरकार नियुक्ति करती है। कई बार सरकार भेजे गए नाम पर सवाल उठाते हुए मामला कोलेजियम के पास पुनर्विचार के लिए भेज देती है, लेकिन जब कोलेजियम अपनी सिफारिश दोहराता है तो कई बार सरकार उसे लंबे समय तक दबा कर बैठ जाती है क्योंकि अभी इस बारे में कोई समयसीमा तय नहीं है। यह व्यवहार बताता है कि सरकार कोलेजियम व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है।
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कोलेजियम में खामियां को दूर करने की जिम्मेदारी सरकार पर
कोलेजियम प्रणाली पर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश शिवकीर्ति सिंह कहते हैं कि अभी तो यह सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है, लेकिन इसमें कुछ कमियां हैं। खामियां दूर करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका पर है क्योंकि यह प्रणाली उसी के फैसले से लागू हुई है।
'पारदर्शिता की कमी'
जस्टिस सिंह कहते हैं कि इसमें पारदर्शिता की कमी है। एक-दूसरे के हितों को देखते हुए नाकाबिल को भी चयनित कर लिया जाता है। ऐसे में पारदर्शिता ही सर्वश्रेष्ठ नीति है। इसे लागू करने के बहुत से तरीके हैं, लेकिन एक चीज इसके आड़े आ रही है, जिसमें उम्मीदवार की जानकारी सार्वजनिक होनी है, क्योंकि इससे उसकी प्रतिष्ठा को हानि पहुंच सकती है। अगर यह सार्वजनिक हो जाए कि यह उम्मीदवार आया था और इसे इसलिए ड्राप किया गया तो बहुत से अच्छे-अच्छे वकीलों और जिला जजों आदि की प्रतिष्ठा खराब हो जाएगी।
'संतुलन बनाना होगा'
उन्होंने कहा कि इस चीज को संतुलित करने में थोड़ी मुश्किल आ रही है, लेकिन संतुलन बनाना होगा, जिससे उम्मीदवार की प्रतिष्ठा भी प्रभावित न हो और किसी को क्यों चुना गया, उसका कारण भी सार्वजनिक हो। चार-पांच मानक तय करके यह बताया जाना चाहिए, विशेष तौर पर जिसे बार (वकीलों से) से चुना जाता है। अगर सर्विस में भी किसी को सुपरसीड करके लाया गया है तो उसका भी कारण बताया जाना चाहिए। इससे जो लोग छूट गए हैं वे कुछ संतुष्ट होंगे और पक्षपात के आरोप कम होंगे।
'लोग न्याय की उम्मीद नहीं करेंगे'
जस्टिस सिंह ने कहा कि सरकार जो व्यवस्था को बदलना चाहती है, वो ठीक नहीं है, क्योंकि जो प्रणाली है, उससे अच्छा नहीं हो सकता। इसे खत्म करने से व्यवस्था अच्छी होगी, ऐसा नहीं लग रहा। फिर तो राजनीतिक नियुक्तियां होने लगेंगी, जो कि भारतीय न्याय तंत्र की प्रकृति को सूट नहीं करेगी। अभी न्याय की जो प्रकृति है, उसमें सबसे बड़ा पक्षकार कार्यपालिका होती है और अगर वही उच्च न्यायपालिका के जज चुनेगी तो लोग न्याय की उम्मीद नहीं करेंगे।
कार्यपालिका को शक्ति दे सरकार
उन्होंने कहा कि हमारे यहां अभी यह समय नहीं आया है कि हम कार्यपालिका को यह शक्ति दे दें। नियुक्तियों में सरकार का आधिपत्य नहीं होना चाहिए। अभी भी सरकार प्रक्रिया में शामिल है, लेकिन उसका आधिपत्य नहीं है। वह मानते हैं कि न्यायपालिका को गहराई में जाकर खुद सुधार करने चाहिए। हर दो-तीन वर्ष में सरकार से परामर्श करके व्यवस्था में सुधार करते रहना चाहिए।
पूर्व विधि सचिव बोले, कोलेजियम प्रणाली की खामियां दूर हों
पूर्व विधि सचिव पीके मल्होत्रा कहते हैं कि कोलेजियम व्यवस्था का जिक्र संविधान में नहीं है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि कोलेजियम व्यवस्था क्यों आई। इसके आने से पहले सरकार ने राजनीतिक रूप से सूट करने वाले लोगों की नियुक्ति शुरू कर दी थी और मेरिट को अनदेखा किया जाने लगा था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कोलेजियम व्यवस्था लागू हुई जो 1993 से लागू है।
सुप्रीम कोर्ट ने रद किया सरकार का कानून
पीके मल्होत्रा ने कहा कि शुरू में इसने भी अच्छे जज दिए, अब इसके बारे में बातें उठने लगी हैं और भाई-भतीजावाद के आरोप लगने लगे हैं। इस व्यवस्था को हटाने के लिए सरकार 2015 में जजों की नियुक्ति के लिए एनजेएसी गठित करने का कानून लाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे यह कहते हुए रद कर दिया कि यह न्यायपालिका में दखलंदाजी होगी।
मल्होत्रा कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि एनजेएसी में कार्यपालिका का एक व्यक्ति होने से न्यायपालिका में दखलंदाजी हो जाएगी। उठ रही बातों को शांत करने के लिए या तो कोलेजियम प्रणाली की समीक्षा हो और उसकी खामियों को दूर किया जाए या फिर सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाई गई आपत्तियों को दूर करके फिर से एनजेएसी जैसा कानून लाए।
पूर्व न्यायाधीश ने कहा, हमेशा अच्छा होता है सामूहिक निर्णय
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम का हिस्सा रह चुके सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीश कहते हैं कि कोलेजियम व्यवस्था में कोई कमी नहीं है, क्योंकि सामूहिक निर्णय हमेशा अच्छा होता है। कोलेजियम ने कोई नाम भेजा और सरकार उस पर सहमत नहीं है तो बता दे कि उसमें क्या कमी है। कोलेजियम उस पर विचार करे।
उन्होंने कहा कि यह कोई प्रतिष्ठा का मामला नहीं है। यहां देश चलाना है और न्यायपालिका उसका जरूरी हिस्सा है तो मिलजुल कर विचार-विमर्श होना चाहिए। कोई सिस्टम फूलप्रूफ नहीं होता। सरकार को अपनी आपत्तियां बतानी चाहिए, लेकिन मामला लंबित रखना ठीक नहीं। इसका मतलब तो है कि कोलेजियम प्रणाली आजकल काम नहीं कर रही। सरकार को जो ठीक लगता है उसकी नियुक्ति कर देती है, जो नहीं लगता वो लंबित।
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