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महाभारत में इतिहास, धर्म, दर्शन और राज्योपदेश तो हैं ही, राष्ट्रभक्ति के प्रखर स्वर भी हैं विद्यमान

ग्रंथ के अंत में पांडव जब स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते हैं तब भी रचयिता मनीषी उनसे राष्ट्र की परिक्रमा करवाना नहीं भूला। वे हस्तिनापुर से सीधे हिमालय नहीं गए। पहले वे पूर्व दिशा में गए। उसके बाद दक्षिणाभिमुख होकर समुद्रतट पर पहुंचे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 22 Apr 2022 12:26 PM (IST)
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संसार का सबसे बड़ा महाकाव्य महाभारत से सीखें राष्ट्रभक्ति। फाइल फोटो
रघोत्तम शुक्ल। संसार का सबसे बड़ा महाकाव्य ‘महाभारत’ है, जिसे पंचम वेद की भी मान्यता प्राप्त है। यह युधिष्ठिर की जय गाथा है, जिसका आदि नाम भी ‘जय’ ही है। इसे महर्षि व्यास के श्रुतलेख (डिक्टेशन) पर स्वयं आदि देव श्रीगणोश ने लिखा है। महाभारत के विषय में कहा जाता है कि ‘जो इसमें है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जाएगा। और जो इसमें नहीं है वह संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।’

महाभारत हमें न केवल बाहरी, बल्कि भीतरी शत्रुओं से भी सावधान करता है। इसमें राग-द्वेष है, श्रृंगार है, रतिप्रसंग हैं, वात्सल्य है, द्वेष है, ईष्र्या है, कामना है, तृष्णा है, क्रोध है, उत्साह है, भय, जुगुप्सा और शोक सब कुछ हैं।जिस प्रकार प्रकृति के नियम नहीं बदले, आधुनिक होकर भी मानवीय प्रवृत्तियां नहीं बदलीं, उसी प्रकार महाभारत की प्रसंगिकता भी बरकरार है। सवा लाख श्लोकों वाले इस महान ग्रंथ में इतिहास, धर्म, दर्शन, नीति और राज्योपदेश तो हैं ही, राष्ट्रभक्ति के प्रखर स्वर भी विद्यमान हैं। भीष्म पर्व, अध्याय-नौ में धृतराष्ट्र संजय से भारतवर्ष के बारे में प्रश्न करते हैं। वह जानना चाहते हैं कि ‘इसमें क्या विशेषताएं हैं, जिसके कारण इसका आधिपत्य और शासन सत्ता पाने के लिए कौरव और पांडव, दोनों लालायित हैं, स्वयं मेरी भी आसक्ति है और इतने नरेश युद्धार्थ उपस्थित हैं।’

संजय उन्हें समझाते हुए देश के संपूर्ण भूगोल का वर्णन करते हैं। वह यहां के वन, पर्वत, नदियों, समुद्र, नगर, प्रदेश और अंचलों का विशद बखान करते हैं। महाभारत में पूरा राष्ट्र कीर्तन गाया गया है। वह प्रारंभ में ही कहते हैं, ‘हे राजन! मैं यहां आपसे उस भारतवर्ष का वर्णन करूंगा, जो इंद्रदेव और वैवस्वत मनु को भी प्रिय है।’ तदनंतर पृथु, इक्ष्वाकु, अंबरीष, मांधाता, शिवि, दिलीप आदि अनेक प्रतापी राजाओं का उल्लेख करते हुए, इस भूमि को उनकी प्रिय बताया है। समग्र भूगोल को विस्तारित करते हुए, वह धृतराष्ट्र से कहते हैं कि ‘महाराज! देवता और मनुष्य शरीरधारी सभी के लिए यह भूभाग परम आश्रय है।’

कर्ण की घोष यात्रा और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सभी दिशाओं में सर्वत्र जा जाकर पांडवों का विजय पाना भी राष्ट्रीय एकीकरण और समन्वय का ही परिचायक है। ग्रंथ के अंत में पांडव पश्चिम की ओर गए और समुद्र में डूबी द्वारकापुरी देखी। फिर वे उत्तर हिमालय की ओर स्वर्ग प्रयाण के लिए बढ़े। उन्होंने पूरी प्रदक्षिणा संपन्न की। अध्यात्म और इतिहास के आवरण में लिपटी यह थी हमारे मनीषियों की राष्ट्रभक्ति।

(लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)