1971 भारत-पाक युद्ध के इस योद्धा को जिंदा रहते मिला था परमवीर चक्र
मेजर होशियार सिंह उन वीर सैनिकों में शामिल थे, जिन्हें 1971 में हुई भारत-पकिस्तान की युद्ध में अदम्य साहस का परिचय देते हुए उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया था।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Thu, 06 Dec 2018 09:00 AM (IST)
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। मेजर होशियार सिंह उन वीर सैनिकों में शामिल थे, जिन्हें 1971 में हुई भारत-पकिस्तान की युद्ध में अदम्य साहस का परिचय दिया। इनकी इस शूरता के लिए उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया। उन्हें जीते जी वीरता के सबसे बड़े पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। बाद में वह ब्रिगेडियर रैंक से सेवानिवृत्त हुए।
उन्होंने जंग में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया और युद्ध खत्म होने के दो घंटे पहले तक घायल अवस्था में भी बहादुरी के साथ दुश्मन सिपाहियों का सामना करते रहे। घायल होने और खून से लथपथ होने के बावजूद वह अपने सैनिकों का हौंसला बढ़ाते रहे। उनके साथ युद्ध में डटकर मुकाबला किया और एक के बाद एक दुश्मन देश के सैनिकों को रास्ते से हटाते गए।
होशियार सिंह का जन्म
हरियाणा के सोनीपत जिले के सिसाना गांव में 5 मई 1936 को होशियार सिंह का जन्म हुआ था। होशियार सिंह के पिता हीरा सिंह किसान थे। होशियार सिंह की प्रारंभिक शिक्षा सोनीपत के स्थानीय स्कूल में हुई,आगे की पढ़ाई के लिए जाट हायर सेकेंडरी स्कूल और जाट कॉलेज में दाखिला लिया। वो पढ़ने में होशियार थे और हाइस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वो वालीबॉल के बेहतरीन खिलाड़ी थे और आगे चलकर पंजाब टीम के कप्तान बने। कामयाबी का सिलसिला बरकरार रखते हुए राष्ट्रीय टीम के भी हिस्सा बन गए। सिसाना गांव के 250 से ज्यादा लोग सेना में अलग अलग पदों पर काम कर रहे थे। ये सब देखकर होशियार सिंह ने सेना में जाने का फैसला किया। 1957 में 2, जाट रेजीमेंट में सिपाही के तौर पर उनकी भर्ती हुई। 6 साल बाद परीक्षा पास करने के बाद वो सेना में अधिकारी बनने में कामयाब हुए। 30 जून 1963 को ग्रेनिडियर रेजीमेंट में उन्हें कमीशन मिला। नेफा यानि नॉर्थ इस्ट फ्रंटियर एजेंसी में तैनाती के दौरान उनकी बहादुरी की चर्चा दूर दूर तक फैली। सेना के बड़े अधिकारियों की निगाह में वो आए। 1965 में भारत-पाकिस्तान लड़ाई में उन्होंने बीकानेर सेक्टर में अहम भूमिका अदा की। उन्हें असाधारण सेवा के लिए मेंशन इन डिस्पैच हासिल किया, लेकिन 6 साल बाद देश और दुनिया उनकी शूरवीरता की साक्षी बनी।
हरियाणा के सोनीपत जिले के सिसाना गांव में 5 मई 1936 को होशियार सिंह का जन्म हुआ था। होशियार सिंह के पिता हीरा सिंह किसान थे। होशियार सिंह की प्रारंभिक शिक्षा सोनीपत के स्थानीय स्कूल में हुई,आगे की पढ़ाई के लिए जाट हायर सेकेंडरी स्कूल और जाट कॉलेज में दाखिला लिया। वो पढ़ने में होशियार थे और हाइस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वो वालीबॉल के बेहतरीन खिलाड़ी थे और आगे चलकर पंजाब टीम के कप्तान बने। कामयाबी का सिलसिला बरकरार रखते हुए राष्ट्रीय टीम के भी हिस्सा बन गए। सिसाना गांव के 250 से ज्यादा लोग सेना में अलग अलग पदों पर काम कर रहे थे। ये सब देखकर होशियार सिंह ने सेना में जाने का फैसला किया। 1957 में 2, जाट रेजीमेंट में सिपाही के तौर पर उनकी भर्ती हुई। 6 साल बाद परीक्षा पास करने के बाद वो सेना में अधिकारी बनने में कामयाब हुए। 30 जून 1963 को ग्रेनिडियर रेजीमेंट में उन्हें कमीशन मिला। नेफा यानि नॉर्थ इस्ट फ्रंटियर एजेंसी में तैनाती के दौरान उनकी बहादुरी की चर्चा दूर दूर तक फैली। सेना के बड़े अधिकारियों की निगाह में वो आए। 1965 में भारत-पाकिस्तान लड़ाई में उन्होंने बीकानेर सेक्टर में अहम भूमिका अदा की। उन्हें असाधारण सेवा के लिए मेंशन इन डिस्पैच हासिल किया, लेकिन 6 साल बाद देश और दुनिया उनकी शूरवीरता की साक्षी बनी।
होशियार सिंह और 1971 की लड़ाई
1971 की लड़ाई में पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान ने लड़ाई छेड़ दी थी। ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन को शकरगढ़ भेजा गया। 10 दिनों में ही मेजर होशियार सिंह की अगुवाई में ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन ने शानदार बढ़त बनाई। 15 दिसंबर को रावी की सहायक नदी बसंतर पर पुल बनाने की जिम्मेदारी दी गई। पाकिस्तान ने हिन्दुस्तानी सेना को रोकने के लिए वहां जबरदस्त घेरे बंदी की थी। साथ ही पूरे इलाके में बारूदी सुरंग बिछाई थी। पाकिस्तान की सेना ने भारतीय सेना की इस टुकड़ी पर जबरदस्त गोलीबारी की, जिसमें बड़े पैमाने पर क्षति उठानी पड़ी। ऐसे हालात में भी मेजर होशियार सिंह की टुकड़ी ने विपरीत हालात में आगे बढ़ने का फैसला किया। होशियार सिंह की अगुवाई में भारतीय सेना की टुकड़ी ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत स्थित जारपाल गांव को अपने कब्जे में ले लिया। पाकिस्तान की सेना ने टैंक की मदद से जबरदस्त गोलाबारी की। हालांकि होशियार सिंह के अदम्य साहस और सूझबूझ के सामने पाकिस्तान की कोई चाल कामयाब नहीं हुई।भारत की पूर्वी सीमा पर 16 दिसंबर 1971 को लड़ाई खत्म हो चुकी थी। लेकिन पश्चिमी सीमा पर लड़ाई जारी थी। 17 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने एक बार फिर जबरदस्त आक्रमण किया। उस हमले में होशियार सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए। घायल होने के बावजूद वो सैनिकों का हौसला बढ़ाने में जुटे रहे। उन्हें किसी तरह की बाधा नहीं रोक सकी। वो दुश्मन फौज पर इतनी तेजी से टूट पड़े कि पाकिस्तान फौज को भारी तबाही का सामना करना पड़ा। इस लड़ाई में उनके कमांडिंग अधिकारी मोहम्मद अकरम राजा को अपनी जान गंवानी पड़ी। 1971 की लड़ाई भारत के पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर लड़ी जा रही थी। उस युद्ध में भारतीय फौज की जीत में हर एक सैनिक का योगदान था, लेकिन अरुण खेत्रपाल, होशियार सिंह, निर्मलजीत सिंह शेखो और अल्बर्ड एक्का ने अदम्य साहस का परिचय दिया। होशियार सिंह को उनके अदम्य साहस के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। दुर्भाग्य से 6 दिसंबर 1998 को दिल का दौरा पड़ने से 62 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।
1971 की लड़ाई में पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान ने लड़ाई छेड़ दी थी। ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन को शकरगढ़ भेजा गया। 10 दिनों में ही मेजर होशियार सिंह की अगुवाई में ग्रेनेडियर रेजीमेंट की तीसरी बटालियन ने शानदार बढ़त बनाई। 15 दिसंबर को रावी की सहायक नदी बसंतर पर पुल बनाने की जिम्मेदारी दी गई। पाकिस्तान ने हिन्दुस्तानी सेना को रोकने के लिए वहां जबरदस्त घेरे बंदी की थी। साथ ही पूरे इलाके में बारूदी सुरंग बिछाई थी। पाकिस्तान की सेना ने भारतीय सेना की इस टुकड़ी पर जबरदस्त गोलीबारी की, जिसमें बड़े पैमाने पर क्षति उठानी पड़ी। ऐसे हालात में भी मेजर होशियार सिंह की टुकड़ी ने विपरीत हालात में आगे बढ़ने का फैसला किया। होशियार सिंह की अगुवाई में भारतीय सेना की टुकड़ी ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत स्थित जारपाल गांव को अपने कब्जे में ले लिया। पाकिस्तान की सेना ने टैंक की मदद से जबरदस्त गोलाबारी की। हालांकि होशियार सिंह के अदम्य साहस और सूझबूझ के सामने पाकिस्तान की कोई चाल कामयाब नहीं हुई।भारत की पूर्वी सीमा पर 16 दिसंबर 1971 को लड़ाई खत्म हो चुकी थी। लेकिन पश्चिमी सीमा पर लड़ाई जारी थी। 17 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने एक बार फिर जबरदस्त आक्रमण किया। उस हमले में होशियार सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए। घायल होने के बावजूद वो सैनिकों का हौसला बढ़ाने में जुटे रहे। उन्हें किसी तरह की बाधा नहीं रोक सकी। वो दुश्मन फौज पर इतनी तेजी से टूट पड़े कि पाकिस्तान फौज को भारी तबाही का सामना करना पड़ा। इस लड़ाई में उनके कमांडिंग अधिकारी मोहम्मद अकरम राजा को अपनी जान गंवानी पड़ी। 1971 की लड़ाई भारत के पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर लड़ी जा रही थी। उस युद्ध में भारतीय फौज की जीत में हर एक सैनिक का योगदान था, लेकिन अरुण खेत्रपाल, होशियार सिंह, निर्मलजीत सिंह शेखो और अल्बर्ड एक्का ने अदम्य साहस का परिचय दिया। होशियार सिंह को उनके अदम्य साहस के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। दुर्भाग्य से 6 दिसंबर 1998 को दिल का दौरा पड़ने से 62 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।