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Mangalyaan Mission: अंतरिक्ष की गहराइयों में विलीन होने से पहले बहुत कुछ दे गया मंगलयान

Mangalyaan Mission निसंदेह मंगलयान ने अंतरिक्ष विज्ञान में जो मुकाम इसरो को दिलाया है उसकी तुलना नहीं हो सकती है पर अब जब तक मंगलयान-दो का सफल प्रक्षेपण नहीं हो जाता भारत को कई मामलों में दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़ सकता है।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Wed, 05 Oct 2022 12:48 PM (IST)
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Mangalyaan Mission: बुझने से पहले बहुत कुछ दे गया मंगलयान
डा. संजय वर्मा। प्रकृति का नियम है कि हर चीज की एक निश्चित आयु होती है। यह दर्शन सभी पर बराबर लागू होता है-चाहे वह जीवित प्राणी हो या मशीन। पता चला है कि जिस मंगलयान को भारत ने सिर्फ छह महीने के लिए मंगल ग्रह की कक्षा में भेजा था, अब वह अंतरिक्ष की गहराइयों में विलीन हो गया है। हालांकि खामोश होने से पहले मंगलयान अपनी तयशुदा जिंदगी से 16 गुना ज्यादा यानी आठ साल आठ दिन जीवित रहा और इस अवधि में उसने वह सब कुछ दिया, जिसका हमारा देश हकदार है।

पांच नवंबर, 2013 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान यानी इसरो के श्रीहरिकोटा स्पेस सेंटर से पोलर सैटेलाइट व्हीकल (पीएसएलवी) सी-25 की मदद से प्रक्षेपित भारत के इस पहले मंगल मिशन का आधिकारिक कार्यकाल 24 मार्च, 2015 तक ही था, लेकिन करीब 450 करोड़ रुपये की लागत से 1,350 किलोग्राम वजनी मंगलयान को इसकी बैटरियों ने इतने लंबे समय तक जीवित रखा और ऐसे कीर्तिमान रचने लायक बना दिया, जिसकी उम्मीद नहीं थी।

इसरो ने करिश्मा कर दिखाया

यह तथ्य कोई नहीं भूला है कि जितने में हालीवुड की फिल्म ग्रैविटी बनी थी, तकरीबन उतनी लागत में इसरो ने वह करिश्मा कर दिखाया, जो उससे पहले अमेरिका और सोवियत संघ ही कर पाए थे-वह भी मंगलयान के मुकाबले कई गुना ज्यादा बजट में। आंकड़े बताते हैं कि पृथ्वी से औसतन साढ़े 22 करोड़ से 32 करोड़ किलोमीटर (हालांकि यह गैप न्यूनतम पांच करोड़ 46 लाख किलोमीटर से लेकर अधिकतम 40 करोड़ 10 लाख किलोमीटर तक हो सकता है) दूर मंगल ग्रह तक अपना यान पहुंचाने में अमेरिकी स्पेस एजेंसी ने मंगलयान के मुकाबले 10 गुना ज्यादा खर्च किया था।

चांद पर भारी पड़ता मंगल

मंगल ग्रह हमारे सौरमंडल में जीवन को लेकर सबसे ज्यादा संभावनाशील ग्रह के रूप में ख्याति रखता आया है। कहने को तो हमारा अपना चंद्रमा ज्यादा करीब है, वहां पानी मिलने की सूचनाएं भी हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि चंद्रमा पर अगर इंसान रहना चाहे तो उसे हवा और पानी धरती से ही ढोकर ले जाना पड़ेगा। यही नहीं, सूरजा से वहां आने वाला विकिरण (रेडिएशन) इतना ज्यादा है कि वहां की जमीन के अंदर सुरंगों, गुफाओं या विशेष तरीके से बनाई गई कोठरियों में ही इंसान चार-छह दिन से ज्यादा टिक सकता है। इसके मुकाबले मंगल अपेक्षाकृत ज्यादा जीवनयोग्य ग्रह महसूस होता है। अपने प्रयोगों में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा के रोवर पर्सिवरेंस ने मंगल ग्रह की पतली हवा से आक्सीजन अलग कर दिखाया है। इसके अलावा मंगल पर कई जगह पानी मौजूद होने की उम्मीद है। हालांकि वह पीने लायक बन सके-इसे लेकर काफी मेहनत और प्रयोगों की जरूरत पड़ेगी। इन सब बातों को जांचने के लिए जरूरी है कि कोई यान मंगल की परिक्रमा करके ठोस आंकड़े जमा करे और कुछ यान इसकी जमीन पर उतर कर वातावरण का नजदीकी जायजा लें।

मंगलयान ने जो खोजा

जब मंगलयान को अंतरिक्ष में भेजा रहा था तो उसमें करीब 15 किलोग्राम वजनी ऐसे उपकरण और सेंसर लगाए गए थे, जिनका काम वहां की सतह पर मौजूद खनिजों का पता लगाना, मंगल के वातावरण में मीथेन गैस की मात्रा का आकलन करना और तस्वीरों के जरिये मंगल की विभिन्न जगहों की बनावट का सटीक ब्योरा प्रस्तुत करना था। इन सारी कसौटियों पर मंगलयान खरा उतरा। उसने अपने आठ साल के जीवन में कभी बहुत दूर से तो कभी बेहद नजदीक तक पहुंचकर तस्वीरें लीं। मंगलयान अपने वलयाकार परिक्रमा पथ के बल पर जो तस्वीरें ले सका, उनके आधार पर इसरो के विज्ञानियों ने मंगल का मैप तैयार किया। मंगलयान पर लगे मार्स कलर कैमरे से जो करीब 1,100 चित्र खींचे गए, उनकी सहायता से इसरो मंगल के अलग-अलग स्थानों का ब्योरा दर्ज करते हुए एक वृहद मार्स एटलस तैयार कर पाया। सबसे उल्लेखनीय तो मंगल के चंद्रमा डिमोस की तस्वीर लिया जाना है, जो मंगलयान से पहले किसी अन्य यान ने नहीं खींची थी।

मंगलयान के खाते में कई और उपलब्धियां भी दर्ज हुईं। जैसे-मंगल पर आए धूल के तूफान का अध्ययन करना और ग्रह की सतह से 270 किलोमीटर ऊपर आक्सीजन एवं कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा के आकलन के अलावा मंगल के बाह्यमंडल में हाट आर्गन की खोज करना। दावा है कि मंगलयान ने जिस सटीकता से मंगल ग्रह का अध्ययन किया, उसके बल पर कई देशों ने सैटेलाइट इमेजरी से लेकर कई अन्य तरह की अंतरिक्ष सेवाओं के लिए इसरो के साथ कारोबारी अनुबंध किए हैं। हालांकि ये अनुबंध कैसे हैं और इनसे इसरो की कारोबारी शाखा-एंट्रिक्स कारपोरेशन को कितना आर्थिक लाभ हुआ है-इसके स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं हैं।

भारत मार्स आर्बिटर मिशन-दो

नि:संदेह मंगलयान ने अंतरिक्ष विज्ञान में जो मुकाम भारत और इसरो को दिलाया है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है। इस तथ्य से हर कोई परिचित है कि मार्स मिशन-एक की सफलता ने भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के मामले में काफी आगे ला खड़ा किया है, पर अब स्थिति यह है कि जब तक मंगलयान-दो का सफल प्रक्षेपण नहीं हो जाता, भारत को कई मामलों में दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़ सकता है। जैसे मंगल ग्रह से संबंधित आंकड़ों के लिए अमेरिका, यूरोप या उस चीन की मदद लेनी होगी, जिसका यान तियानवेन-एक पिछले साल मई, 2021 में मंगल ग्रह पर पहुंचा था। उस मिशन में चीनी यान ने लाल ग्रह पर चुरोंग नामक एक रोवर भी उतारा था।

अमेरिका के बाद मंगल पर रोवर उतारने वाला चीन दुनिया का दूसरा देश है। ऐसा नहीं है कि भारत अपने पड़ोसी चीन जैसा करिश्मा नहीं कर सकता। हालांिक इसके लिए जरूर है कि इसरो मंगलयान-दो के मिशन पर तेजी दिखाए। ऐसी खबरें आती रही हैं कि भारत मार्स आर्बिटर मिशन-दो यानी मंगलयान-दो पर काम कर रहा है। वर्ष 2016 में इस बारे में एक लिखित जवाब केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने दिया था। इस आधार पर वर्ष 2019 में दावा किया गया था कि इसरो मंगलयान-दो में मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाले आर्बिटर के साथ एक लैंडर भी भेज सकता है, जो सतह पर उतरकर अहम जानकारियां जुटाएगा।

बाद में इसरो के तत्कालीन प्रमुख के. सिवन ने कहा था कि मंगलयान-दो में फिलहाल एक आर्बिटर भेजने की योजना है। हालांकि बीच में कोविड-19 महामारी के घातक प्रसार के कारण कई अहम परियोजनाओं पर असर पड़ा। इसके बाद कहा जा रहा है कि मंगलयान-दो की परियोजना इसरो की प्राथमिकता में नहीं है। इसके बजाय इंसानों को अंतरिक्ष में ले जाने वाले मिशन-गगनयान, चंद्रमा पर आर्बिटर एवं लैंडर उतारने की योजना चंद्रयान-तीन और सूरज के वैज्ञानिक अन्वेषण की परियोजना आदित्य एल-एक को इसरो ज्यादा अहमियत दे रहा है।

मंगल ग्रह पर पानी मौजूद होने की बात अतीत में कई बार कही जा चुकी है। सबसे पहले तो 1877 में जब इटली के विज्ञानी गैलीलियो गैलिली ने खुद की बनाई दूरबीन से मंगल की सतह को से देखा तो वहां नहरों जैसी संरचनाएं देखकर वे चौंक गए थे। इसके बाद यह दावा भी किया गया कि करोड़ों वर्ष पहले मंगल पर जीवन रहा होगा। एक दावा है कि मंगल पर करीब साढ़े चार अरब साल पहले आज की तुलना में साढ़े छह गुना अधिक पानी था, पर मंगल पर पृथ्वी जैसा चुंबकीय क्षेत्र नहीं था, इसलिए वहां का ज्यादातर पानी भाप बनकर उड़ गया और उसे मंगल का वायुमंडल रोक नहीं पाया। वैसे मंगल को इसके ध्रुवों पर जमी बर्फ और क्रेटर्स (गड्ढों) में कैद रहस्यों के कारण हमेशा जीवन की संभावना वाला ग्रह माना जाता रहा है। मंगल के ध्रुवों पर जमी शुष्क बर्फ, पानी के बहाव के प्रमाण, गर्मी और लावा का प्रवाह जैसे संकेतों को हमेशा जीवन की निशानी समझा गया, पर सवाल तो यह है कि क्या इन सुबूतों के आधार पर वहां कोई जीवन वास्तव में संभव है? इस गुत्थी को सुलझाने की जितनी कोशिश होती है, रहस्य उतना ही गहराता दिखता है। हालांकि दिसंबर 2003 से मंगल के चक्कर लगा रहे यूरोपियन स्पेस एजेंसी के स्पेसक्राफ्ट-मार्स एक्सप्रेस में लगे उपकरण से मिले चित्रों और जानकारियों के विश्लेषण के आधार पर मंगल पर मौजूद मीथेन और फार्मेल्डिहाइड को जीवन के संदर्भ में अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

मंगल पर मीथेन गैस मिलने का यह मतलब है कि कम से कम 150 टन गैस हर साल वहां के वातावरण में पहुंचती है। इसी तरह फार्मेल्डिहाइड मिलने का अर्थ है कि वहां मीथेन के उत्सर्जन की दर 25 लाख टन प्रति वर्ष होगी। मंगल के दूसरे जीवनदायी तत्व वैसे माइक्रोब्स (अतिसूक्ष्म जीवाणु) बताए जाते हैं, जैसे हमारी पृथ्वी पर भी मिलते हैं। ये जीवाणु भी मीथेन पैदा करते हैं। कुछ ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि मंगल की ओजोन परत को जलवाष्पों ने तबाह कर डाला, जिससे हो सकता है कि जीवन नष्ट हुआ। मंगल ग्रह पर जीवन की कल्पना करते समय इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि वहां ठोस धरती जरूर है, लेकिन वह बेहद सूखी है और पूरे ग्रह पर धूल भरी तेज आंधियां चलती रहती हैं। मंगल के वायुमंडल में 95. 32 प्रतिशत कार्बन डाईआक्साइड, 2.7 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.6 प्रतिशत आर्गन और मात्र 0.13 प्रतिशत आक्सीजन का अंश मौजूद है। ऐसी हवा में हमारी पृथ्वी के कार्बन की शरीर-रचना वाले प्राणी जीवित नहीं रह सकते। इसलिए वहां मानव जाति के समान किसी सभ्यता की कल्पना करना महज कपोल-कल्पना ही साबित होगी। फिर भी विज्ञानियों और अंतरिक्ष यात्राओं में दिलचस्पी लेने वाले लोगों को धरती से बाहर मंगल एक पड़ाव लगता है। हालांकि अभी पृथ्वी से छूटा कोई यान मंगल के करीब पांच महीने बाद भी पहुंच पा रहा है।

[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]