'जाति व्यवस्था को फिर जन्म दे रहा आरक्षण लागू करने का तरीका', रिजर्वेशन पर बोले जस्टिस मित्तल- होनी चाहिए समीक्षा
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ( Chief Justice D.Y. Chandrachur ) की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस बात पर फैसला सुनाया है कि आरक्षण (Reservation) के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य है या नहीं। यहां जस्टिस पंकज मित्तल ने मौजूदा आरक्षण नीति के तमाम पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला
जितेंद्र शर्मा, नई दिल्ली। आरक्षण के लिए कोटे में कोटे का महत्वपूर्ण निर्णय सुनाने वाली संविधान पीठ में शामिल रहे जस्टिस पंकज मित्तल ने मौजूदा आरक्षण नीति के तमाम पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने आशंका जाहिर की कि वंचितों-पिछड़ों के उत्थान के लिए अन्य किसी तरीके की बात करने वाले को 'दलित विरोधी' कहा जाएगा। इसके बावजूद स्पष्ट रूप से कहा कि अभी आरक्षण लागू करने का जो तरीका है, वह जाति व्यवस्था को फिर से जन्म दे रहा है।
सामाजिक-आर्थिक आधार पर दलितों, पिछड़ों, वंचितों की पहचान पर जोर देते हुए जस्टिस मित्तल ने आरक्षण नीति के पुनर्वलोकन की आवश्यकता बताई। संविधान पीठ के निर्णय पर सहमति के साथ जस्टिस पंकज मित्तल ने अपने निर्णय में भी आरक्षण नीति के सामाजिक प्रभाव को उल्लेखित किया। उन्होंने आरक्षण के संबंध में अब तक संविधान में हुए संशोधन और सरकारों द्वारा गठित 21 आयोगों-समितियों की अनुशंसाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि यदि हम शुरुआत में आरक्षण को लेकर मजबूत और स्पष्ट नीति बना लेते तो टुकड़ों में इतने परिवर्तन की आवश्यकता न होती।
आरक्षण की नीति का नही हो पा रहा सही अनुपालन
यह अनुभव किया गया है कि आरक्षण की नीति के सही अनुपालन न होने को आधार बनाकर सरकारी सेवा में नियुक्ति और उच्च स्तर पर प्रवेश को कई बार चुनौती दी गई। ज्यादातर बार नियुक्ति और प्रवेश प्रक्रिया वर्षों तक अटकी रही। न्यायाधीश ने अपने निर्णय में 1990 में मंडल आयोग के विरुद्ध हिंसा, 2006 में आइआइटी और एम्स के छात्रों के आरक्षण विरोधी आंदोलन और महाराष्ट्र में कुछ समय पहले मराठा आरक्षण के खिलाफ हुई हिंसा का उल्लेख किया। प्राथमिक और हाईस्कूल तक ड्राप आउट छात्रों के अनुमानित आंकड़ों के साथ कहा कि कुछ उन्हीं जातियों के बच्चों को उच्च शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिल पा रहा है, जो शहरों में रह रहे हैं या संपन्न हैं।पुरातन भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी
न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि उनके कहने का यह आशय नहीं कि सरकार को दलितों के उत्थान के कार्यक्रम बंद कर देने चाहिए या आरक्षण की नीति को समाप्त कर देना चाहिए, बल्कि मुद्दा यह है कि समानता और विकास के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाए। सरकार उत्थान के लिए सामाजिक-आर्थिक आधार पर लोगों की क्लास पहचानने की बजाए जाति को आधार बनाती है। यही कारण है कि हम आज आरक्षण के लिए जातियों के उपवर्गीकरण की परिस्थिति से जूझ रहे हैं। जस्टिस मित्तल ने गीता और स्कंद पुराण के प्रसंगों का उल्लेख करते हुए कहा कि पुरातन भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी। पेशा, क्षमता, गुण और स्वभाव के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में वर्ण व्यवस्था बनाई गई थी।
'हम जाति व्यवस्था के जाल में उलझ गए'
बाद में उसी वर्ण व्यवस्था को बिगाड़कर जन्म के आधार पर जाति में बांट दिया गया। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद सामाजिक न्याय और समानता के उद्देश्य से ही संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई, लेकिन समाज कल्याण और दलितों-पिछड़ों के उत्थान के नाम पर हम फिर जाति व्यवस्था के जाल में उलझ गए। आरक्षण दलितों और पिछड़ों को सुविधा का देने का माध्यम मात्र है।'आरक्षण नीति का हो पुनर्वलोकन'
अपने निर्णय में न्यायाधीश ने कहा कि आरक्षण नीति का पुनर्वलोकन करते हुए ओबीसी, एससी-एसटी के उत्थान के लिए अन्य तरीकों को अपनाने की जरूरत है। उन्होंने जोर दिया कि आरक्षण का लाभ जाति की बजाए सामाजिक-आर्थिक और जीवन स्तर के आधार पर दिया जाए। इस पर उनका विशेष जोर था कि यदि कोई एक पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेकर जीवन स्तर बेहतर कर चुकी है तो उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।
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