सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के अल्पसंख्यक व्यावसायिक शिक्षण संस्थान आइकन एजुकेशन सोसाइटी की याचिका निपटाते हुए कहा कि मध्य प्रदेश निजी व्यावसायिक शिक्षण संस्था अधिनियम 2007 को पहले ही सुप्रीम कोर्ट मॉर्डन डेंटल कॉलेज एंड रिसर्च सेंटर के केस में वैध ठहरा चुका है।
By Jagran NewsEdited By: Anurag GuptaUpdated: Sun, 19 Mar 2023 10:52 PM (IST)
नई दिल्ली, माला दीक्षित। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत प्राप्त संरक्षण का हवाला देकर प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति से पूर्ण छूट का दावा नहीं कर सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के अल्पसंख्यक व्यावसायिक शिक्षण संस्थान आइकन एजुकेशन सोसाइटी की याचिका निपटाते हुए कहा कि मध्य प्रदेश निजी व्यावसायिक शिक्षण संस्था (प्रवेश का विनियमन एवं शुल्क निर्धारण) अधिनियम 2007 को पहले ही सुप्रीम कोर्ट मॉर्डन डेंटल कॉलेज एंड रिसर्च सेंटर के केस में वैध ठहरा चुका है।
उस फैसले में कहा गया है कि राज्य सरकार मुनाफाखोरी रोकने को ध्यान में रखते हुए फीस तय कर सकती है। फीस तय करते समय कानून में तय मानकों का ध्यान रखा जाएगा।
याचिकाकर्ता संस्था ने देर से कानून को दी चुनौती
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता संस्था ने देर से कानून को चुनौती दी है। सुप्रीम कोर्ट पहले दिए गए फैसले में कह चुका है कि शैक्षणिक संस्थान द्वारा प्रस्तावित फीस को प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति को रेगुलेट करने का अधिकार है।
जस्टिस दिनेश महेश्वरी और संजय कुमार की पीठ ने आइकन एजुकेशन सोसाइटी की याचिका निपटाते हुए शुक्रवार को दिए फैसले में कहा कि इससे गैर सहायता प्राप्त संस्थानों को कानून की धारा 9(1) के मानकों को ध्यान में रखते हुए वसूली जाने वाली फीस प्रस्तावित करने की दी गई छूट संरक्षित है। समिति तो कानून में रेगुलेटरी पावर के तहत सिर्फ मानकों को ध्यान में रखते हुए संस्थान को पक्ष रखने का मौका देते हुए संस्थान द्वारा तय फीस की समीक्षा करती है।
समिति प्रोफेशनल कोर्स की फीस तय करने का एकतरफा निर्णय नहीं ले सकती। इसी तरह याचिकाकर्ता संस्थान भी समिति से पूर्ण छूट का दावा नहीं कर सकता।
'याचिकाकर्ता संस्था AFRC के समक्ष रखे फीस का ब्योरा'
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता संस्था को निर्देश दिया है कि वह कानून के मुताबिक, अपने प्रोफेशनल कोर्स के लिए प्रस्तावित फीस का ब्योरा प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति (AFRC) के समक्ष रखे।
इस मामले में कानून का सवाल यह था कि क्या मध्य प्रदेश के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान के लिए मध्य प्रदेश निजी व्यावसायिक शिक्षण संस्था (प्रवेश का विनियमन एवं शुल्क निर्धारण) अधिनियम 2007 के तहत गठित प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति के समक्ष अपने प्रोफेशनल कोर्स की प्रस्तावित फीस का ब्योरा देना अनिवार्य है, ताकि समिति कानून में तय मानकों के तहत प्रस्तावित फीस की समीक्षा कर सके।याचिकाकर्ता अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान ने अल्संख्यक शिक्षण संस्थान होने के आधार पर संविधान के अनुच्छेद 30 (1) का हवाला देते हुए समिति के समक्ष ब्योरा देने से पूर्ण छूट का दावा किया था। शिक्षण संस्थान का कहना था कि रेगुलेटरी समिति को अल्पसंख्यक संस्थानों की फीस नियमित करने का अधिकार नहीं है।
संस्थान ने मध्य प्रदेश के कानून की वैधानिकता को चुनौती देते हुए प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति से पूर्ण छूट का दावा किया था।मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर पीठ ने 19 नवंबर, 2020 को संस्था की याचिका खारिज कर दी थी, जिसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने कहा कि मध्य प्रदेश के इस कानून को पहले ही सुप्रीम कोर्ट वैध ठहरा चुका है।कोर्ट ने पूर्व फैसलों को उद्धृत किया जिनमें कोर्ट कह चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत मिला अधिकार पूर्ण या अन्य प्रविधानों से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 30(1) का सार बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक संस्थानों के बीच बराबरी का व्यवहार सुनिश्चित करना है।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने खारिज की थी याचिका
यह भी कहा गया था कि लागू कानून और रूल रेगुलेशन बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक संस्थानों पर बराबरी से लागू होते हैं। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा था कि मॉडर्न डेंटल कालेज और रिसर्च सेंटर के फैसले व अन्य फैसलों में तय की गई व्यवस्था को देखते हुए उसे कमेटी के फैसले में दखल देने का कोई आधार नजर नहीं आता।सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व में दिए गए पीए ईनामदार और टीएमए पाई फाउंडेशन के फैसलों में दी गई व्यवस्था का भी इस फैसले में हवाला दिया है। जिसमें कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत सभी संस्थानों को अपना फीस स्ट्रक्चर तय करने का अधिकार है, लेकिन इसमें एक सीमा है कि मुनाफाखोरी नहीं होनी चाहिए और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कैपीटेशन फीस नहीं वसूली जा सकती।