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आखिर हिंदू धर्म छोड़कर बाबा साहेब ने क्‍यों अपनाया बौद्ध धर्म, ये आपके लिए भी जानना जरूरी

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबडेकर के चलते ही दलित समाज को भारत में सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिल सका वरना पहले उनके साथ अमानवीय व्यवहार ही किया जाता था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Thu, 06 Dec 2018 10:21 AM (IST)
आखिर हिंदू धर्म छोड़कर बाबा साहेब ने क्‍यों अपनाया बौद्ध धर्म, ये आपके लिए भी जानना जरूरी
डॉक्‍टर सौरभा मालवीय। सामाजिक समता और सामाजिक न्यायइ जैसे सामाजिक परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम अग्रणी है। उन्हें बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक मामलों पर उनका मन संवेदनशील एवं व्यापक था। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन जैसे कार्यो के लिए समर्पित कर दिया। वे कहा करते थे- एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है।

चार अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव आंबेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की संतान थे। वह एक ऐसी हिंदू जाति से संबंध रखते थे, जिसे अछूत समझा जाता था। इस कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, पर उनके पिता ने अपने मूल गांव अंबाडवे के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया जो बाद में आंबेडकर हो गया।

पिता की सेवानिवृत्ति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा चला गया। उनकी मां की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और बॉम्बे जाकर बस गए। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया। वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं पास की। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एलफिन्स्टन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें गायकवाड़ राजा सयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए। वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वह लंदन गए, किंतु बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस बीच उन्होंने कई कार्य किए। वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध ‘रुपये की समस्याएं’ को पूरा किया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश लौटते हुए भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। 1927 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें पीएचडी की उपाधि प्रदान की।

आंबेडकर को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा। विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव होता रहा। इस भेदभाव ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई। उन्होंने छूआछूत का समूल नाश करने की ठान ली। उन्होंने कहा कि जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए। देशभर में घूम-घूम कर उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक किया। उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूकनायक’ (लीडर ऑफ साइलेंट) शुरू किया। एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया जिसकी देशभर में चर्चा हुई। इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया।

स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना
वर्ष 1936 में भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। अगले वर्ष 1937 के केंद्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने इस दल को ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया। वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में वह खड़े तो हुए, किंतु सफलता नहीं मिली। वह रक्षा सलाहकार समिति और वायसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। वह देश के पहले कानून मंत्री बने। उन्हें संविधान गठन समिति का अध्यक्ष बनाया गया।

आंबेडकर समानता पर विशेष बल देते थे। वह कहते थे- अगर देश की अलग अलग जाति एक दूसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मशास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं। एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए।

छूआछूत का आजीवन विरोध
बाबासाहब ने जीवनर्पयत छूआछूत का विरोध किया। उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए। वह कहते- ‘आप स्वयं को अस्पृश्य न मानें अपना घर साफ रखें। घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।’

वह सामाजिक समानता को बहुत महत्व देते थे। वह कहते थे- ‘जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं होती। एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी जरूरी है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है। और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है।’ वह राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे। वह स्वयं के बारे में कहते थे- ‘मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें।’ वह कहते थे- ‘न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं यह जीवन का एक माध्यम है। निस्संदेह देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा।’

इसलिए अपनाया था बौद्ध धर्म
आंबेडकर का बचपन अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक माहौल में बीता था। इस वजह से उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। वह कहते थे-‘मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए।’ वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में पुस्तक लिखी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। वर्ष 1955 में उन्होंने भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आम सभा आयोजित की जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया। कुछ समय पश्चात छह दिसंबर, 1956 को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया। वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

कई भाषाओं के ज्ञाता बाबासाहब ने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं। बाबासाहब ने अंग्रेजी में ‘वेटिंग फॉर ए वीजा’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें उन्होंने एक घटना का जिक्र किया है जो आंखें खोलने वाली है। यह घटना काठियावाड़ के एक गांव के एक शिक्षक की थी। गांधी द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में यह घटना एक पत्र के माध्यम से 12 दिसंबर 1929 को सामने आई। इसमें लेखक ने बताया था कि कैसे उसकी पत्नी की जिसने हाल ही में बच्चे को जन्म दिया था, चिकित्सक के ठीक से उपचार नहीं करने के कारण मृत्यु हो गई। पत्र में लिखा था- ‘बच्चा होने के दो दिन बाद मेरी पत्नी बीमार बीमार हो गई। उसकी नब्ज धीमी हो गई और छाती फूलने लगी, जिससे सांस लेने में कष्ट होने लगा और पसलियों में तेज दर्द होने लगा। मैं एक चिकित्सक को बुलाने गया, लेकिन उसने कहा कि वह अछूत के घर नहीं जाएगा और न ही वह बच्चे को देखने के लिए तैयार हुआ। तब मैं वहां से नगर सेठ के दरबार गया और उनसे मदद की भीख मांगी।

नगर सेठ ने आश्वासन दिया कि मैं चिकित्सक को दो रुपये दे दूंगा। तब जाकर चिकित्सक आया। लेकिन उसने इस शर्त पर रोगी को देखा कि वह बस्ती के बाहर ही उसे देखेगा। मैं अपनी पत्नी और नवजात शिशु को लेकर बस्ती के बाहर आया। तब चिकित्सक ने अपना थर्मामीटर एक अन्य व्यक्ति को दिया और उसने मुङो दिया और मैंने अपनी पत्नी को। फिर उसी प्रक्रिया में थर्मामीटर वापस किया। यह रात आठ बजे की बात है। थर्मामीटर देखते हुए चिकित्सक ने कहा कि रोगी को निमोनिया हो गया है। उसके बाद चिकित्सक चला गया और दवाइयां भेजीं। मैं बाजार से कुछ लिनसीड खरीद कर ले आया और रोगी को लगाया। बाद में चिकित्सक ने रोगी को देखने से इन्कार कर दिया जबकि उसे इस काम के लिए दो रुपये दिए गए थे। चिकित्सक की अनदेखी से उसकी मत्यु हो गई।’

उस शिक्षक और चिकित्सक का नाम नहीं लिखा गया था। शिक्षक ने बदले की कार्यवाही के डर के कारण नाम नहीं दिया, लेकिन तथ्य एकदम सही हैं। उसके लिए किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। शिक्षित होने के बाद भी चिकित्सक ने गंभीर रोगग्रस्त महिला को स्वयं थर्मामीटर लगाने से मना कर दिया। उसके मन में बिल्कुल भी उथल-पुथल नहीं हुई कि वह जिस कार्य से बंधा हुआ है उसके कुछ नियम भी हैं।

डॉ. आंबेडकर का जन्म ऐसे समुदाय में हुआ था जिसे उस दिनों अछूत समझा जाता था। उन्होंने यह देखा कि कैसे उनके समाज में लोगों के साथ भेदभाव बरता जाता है। इन चीजों को उन्होंने निकटता से महसूस भी किया जिससे वे खिन्न रहते थे। शायद इस कारण ही अपने आखिरी दिनों में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था। सामाजिक न्याय के मसीहा रहे डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन जैसे सामाजिक कार्यो के लिए समर्पित कर दिया
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि में सहायक प्राध्यापक हैं)