पुलिस, जांच एजेंसी या अदालत ... किसकी वजह से इंसाफ मिलने में होती है देरी?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल के जमानत मामलों में मुकदमे में देरी और जांच में कमियों को लेकर गंभीर चिंता जताई है। कहा कि लंबे समय तक आरोपियों का जेल में रहना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। जांच एजेंसी अभियोजन पक्ष फोरेंसिक रिपोर्ट की देरी और अदालतों की लंबी प्रक्रियाओं के कारण आपराधिक न्याय प्रणाली में देरी हो रही है।
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। हाल के दिनों में कुछ महत्वपूर्ण मामलों में जमानत का निर्णय करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि आरोपी लंबे समय से जेल में है, किंतु अभी भी मुकदमा शुरू नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जांच अधिकारी द्वारा अंतिम अभियोजन शिकायत या अंतिम आरोपपत्र दाखिल न किए जाने के कारण आरोपी जेल में ही रहता है, जिसके परिणामस्वरूप मुकदमा शुरू नहीं हो पाता। सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई कि इससे आरोपित के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है और इसलिए उसे जमानत दे दी गई।
आम धारणा यह है कि खराब जांच के कारण अपराधी मामलों में बरी हो जाते हैं। यह समझना आवश्यक है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में केवल जांच एजेंसी ही शामिल नहीं है, बल्कि इसमें अभियोजन पक्ष, सीएफएसएल जैसी वैज्ञानिक सहायता प्रणाली, बचाव पक्ष के वकील, अदालतें और जेल भी शामिल हैं। ये सभी एजेंसियां (जेल को छोड़कर) किसी न किसी तरह से न्याय में देरी में योगदान देती हैं।
क्यों होती है न्याय में देरी?
- जांच एजेंसी में कर्मचारियों की भारी कमी के कारण जांच अधिकारी पर काम का बोझ बढ़ जाता है, जिससे जांच में देरी होती है। थानों में तैनात पुलिस अधिकारी जांच करने के अलावा कानून-व्यवस्था प्रबंधन और इलाके में गश्त सहित कई अन्य काम भी करते हैं। जांच को कानून-व्यवस्था से अलग करने की जरूरत है।
- फोरेंसिक रिपोर्ट, साइबर फोरेंसिक और वित्तीय विश्लेषण रिपोर्ट आने में भी काफी समय लगता है, कभी-कभी दो से तीन साल तक लग जाते हैं। इन रिपोर्टों में देरी के कारण जांच को अंतिम रूप देने में देरी होती है। हमें निश्चित रूप से और अधिक प्रयोगशालाओं की जरूरत है।
- सीमा पार जांच में बहुत समय लगता है। ऐसे मामलों में, लेटर्स रोगेटरी की प्रक्रिया के जरिए दूसरे राज्य या विदेश से सबूत हासिल किए जाते हैं। हालांकि, कई बार जवाब तीन से चार साल के अंतराल के बाद मिलता है।
न्यायपालिका और बचाव पक्ष के वकीलों की भूमिका
- - विभिन्न अदालतों में 3.45 करोड़ (लगभग) आपराधिक मामले लंबित हैं। 16,694 जिला न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले 5,300 न्यायाधीशों की कमी है। न्यायाधीशों की कमी के कारण लंबी तारीखें लगती हैं और इस तरह मुकदमों में देरी होती है।
- वकीलों द्वारा बार-बार स्थगन मांगे जाने से न केवल मुकदमों में देरी होती है, बल्कि कई मामलों में यह खूंखार अपराधियों के लिए वरदान साबित होता है। इस अतिरिक्त समय का उपयोग गवाहों को धमकाने में किया जाता है, जिससे उनका समझौता हो जाता है और आरोपी बरी हो जाता है।
- समन प्रक्रिया सेवा प्रणाली धीमी है और अधिकांश बार गवाहों को अंतिम समय पर समन प्राप्त होता है, उस समय तक वे उस शहर में नहीं होते हैं, जहां उन्हें गवाही देनी होती है।
- अदालतें कभी-कभी चल रही जांच के दौरान हस्तक्षेप करती हैं और स्थगन आदेश जारी करती हैं, जो अस्थाई रूप से जांच कार्यवाही को रोक देती हैं। आरोपी पक्षों द्वारा अक्सर मांगे जाने वाले ये हस्तक्षेप वर्षों तक खिंच सकते हैं क्योंकि हाईकोर्ट को संबंधित कानूनी मुद्दों को हल करने में समय लगता है।
नतीजतन, जांच एजेंसियों को अदालतों द्वारा स्थगन हटाने तक इंतजार करना पड़ता है। उदाहरण के लिए बीकानेर जमीन मामले की जांच ईडी कर रही है। इस मामले में महेश नागर नामक व्यक्ति ने 2019-20 में दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया। उसकी याचिका को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था, लेकिन उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील की और परिणामस्वरूप मामले की जांच रुक गई।
इसी तरह 2जी मामले में सीबीआई और ईडी ने 2017-18 में सत्र न्यायालय के आदेशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी जो अभी तक लंबित है। आपराधिक न्याय प्रणाली को कुशलतापूर्वक और सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम करना चाहिए ताकि निर्दोष को मुश्किलों का सामना न करना पड़े और अपराधी या निहित स्वार्थ वाले लोग अपने लाभ के लिए प्रणाली का दुरुपयोग न कर सकें।
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(सोर्स: सेवानिवृत्त आईपीएस व ईडी के पूर्व निदेशक करनाल सिंह से बातचीत)