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नए संकट से कैसे बचेगा चंबल

1960 में विनोबा भावे के शांति अभियान के चलते चंबल में मौजूद कई डकैतों ने आत्मसमर्पण किया था और बाकी बचे पुलिस मुठभेड़ में मार दिए गए।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Tue, 09 May 2017 12:31 PM (IST)
नए संकट से कैसे बचेगा चंबल

नई दिल्‍ली (शाह आलम)। चंबल घाटी के कई ऐसे बीहड़ी गांव हैं जहां संविधान से ज्यादा डाकुओं का कानून चलता था। कई बड़े डकैतों ने 1960 में विनोबा भावे के शांति अभियान के चलते आत्मसमर्पण किया था और बाकी बचे पुलिस मुठभेड़ में मार दिए गए। जयप्रकाश नारायण और डॉ. सुब्बाराव की कोशिशों से चंबल तब फिर अचानक सुर्खियों में आया, जब 1972 में तकरीबन 511 डकैतों ने आत्मसमर्पण किया। इससे लगा कि चंबल से दस्यु समस्या का सफाया हो जाएगा। मगर इसके बाद भी यहां दुर्दात डकैतों की एक से एक नई फसल लहलहाती रही, जो चंबल के रहवासियों के लिए नासूर बन गई।

दरअसल, बागी माधो सिंह के आग्रह पर चंबल 14-16 अप्रैल 1972 को शताब्दी के सबसे बड़े आत्मसमर्पण समारोह का गवाह बना। इससे 12 साल पहले कश्मीर घाटी में बाबा विनोबा भावे को एक संदेश मिला था कि चंबल आकर घाटी को बदनामी से आजाद करें। यह पत्र नैनी जेल, इलाहाबाद से उन्हें बागी मानसिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह ने लिखा था। तहसीलदार सिंह ने लिखा था कि फांसी पर चढ़ने से पहले एक बार आपका दर्शन करना चाहता हूं। चंबल की इस जटिल समस्या से आपको अवगत कराना चाहता हूं। तहसीलदार ने आगे यह भी लिखा कि यदि किसी वजह से आप न आ सकें तो कोई प्रतिनिधि जरूर भेजें। तहसीलदार की यह मार्मिक चिट्ठी विनोबा भावे को चंबल खींच लाई। आखिरकार 10-26 मई 1960 के बीच 20 बागियों ने बाबा विनोबा भावे के सामने बिना शर्त हथियार डाल दिए थे।

इस इतिहास से सीख लेते हुए 25 जून 1971 को माधो सिंह अपना नाम राम सिंह बता कर पनवार, वर्धा में बाबा विनोबा से मिले, लेकिन सन्यास ले चुके बाबा ने जेपी का नाम सुझाया। माधो सिंह ने जेपी से दिल्ली में कई बार मिलने की कोशिश की लेकिन वह इसमें असफल रहे। आखिरकार वह पटना पहुंचे और दो बार भेश बदल कर जेपी से मिले। जेपी की कोशिशों से 14 अप्रैल 1972 को पगारा कोठी और 16 अप्रैल 1972 को जौरा में सामूहिक आत्मसमर्पण हुआ। सन् 72 के उस ऐतिहासिक आत्मसमर्पण पर लोकनायक ने सरकार से यह दरख्वास्त की थी कि अब उसका दायित्व होगा कि वह बीहड़ का हर पहलू से विकास करे। बीहड़ को बदलने का यह उम्मीद से भरे विनोबा और जेपी के सपनों के बाद पचनद वैली में बहुत पानी बह गया है।

इसके बावजूद भी बीहड़ के हालात में कुछ खास बदलाव नहीं हुए। आज यहां के रहवासी न्यूनतम सुविधाओं की राह निहार रहे हैं। जिन सरकारी योजनाओं को गांव की तकदीर बदलने के लिए शुरू किया गया था, उससे भले ही गांव की गली नहीं बदली मगर ग्राम प्रधान के घर की तस्वीर जरूर बदल गई है। बीहड़ में कमजोर जातियां आज भी वैसा ही संघर्ष कर रही हैं, जो अब तक डाकुओं को जन्म देने वाली सिद्ध होती रही हैं। बीहड़ के हालात लगतार बदतर होते जाने से यहां से हर रोज पलायन बढ़ा है। प्रकृति की मार, डाकुओं की ललकार और सरकार की दुत्कार, बीहड़ की नियति रही है। चंबल के बीहड़ों से गुजरते हुए बालू खनन का विध्वंशक दृश्य देखकर ठिठक जाना स्वाभाविक था।

दरअसल, जालौन जिले के विशुद्ध पांच नदियों के संगम वाला यह इलाका बेइंतहा बालू खनन से कराह उठा है। यह अंधाधुंध बालू खनन बिलायती बबूल से ढके ऊंचे-नीचे मिट्टी के पहाड़ों को हटा कर जमीन से निकाला जा रहा है। रामपुरा ब्लॉक के भुल्ले का पुरा, सुल्तानपुरा गांवों को पार करते हुए सिंध नदी मिलती है। नदी पार करने का एक मात्र जरिया डगमग करती नाव का सहारा है, वह भी दिन के उजाले में। नदी पार करके हुकुमपुरा गांव पहुंचा। आजादी के इतने साल बाद भी यहां विकास की कोई किरण दूर दूर तक नजर नहीं आती। इसी रास्ते से आगे बढ़ने पर चंबल घाटी के कुख्यात पूर्व दस्यु सरगना सलीम गुर्जर का गांव बेलौड़ मिलता है। सिंध-पहुज और कुंआरी नदियों के संगम तट पर बसा बीहड़ी गांव बेलौड़ से कई परिवारों के पलायन से खंडहर और उजाड़ सा दिखता है।

ऊपर से हरे-भरे बबूल के जंगल ने अब बेलौड़ को अपने आगोश में समा लिया है। बेलौड़ गांव से आगे बढ़ने पर भी घना बिलायती बबूल का जंगल ही मिलता है। नदी के किनारे पतली सी पगडंडी बनी हुई है। यहां के निवासियों और पालतू जानवरों के आने-जाने का वही एक मात्र रास्ता है। बबूल और ऊंचे-नीचे मिट्टी के भरखों के बीच ट्रक दिखते हैं जिस पर बालू लद रहा है। उसी के पास कई जीसेबी मशीनों से बालू की अंधाधुंध अवैध खनन जारी है। करीब से गुजरता हूं तो यह सारी तस्वीर साफ दिखती है। जेब में छोटा सा मोबाइल पड़ा है अवैध बालू खनन की तस्वीर खींचू या न खींचू। कही बीहड़ी जंगलों में विवाद न हो जाए। डकैतों के खात्मे के बाद भी यहां कोई मीडियाकर्मी बाहर से आता नहीं है।

जेहन में तमाम तरह के ख्यालों के बीच से गुजरते हुए थोड़ा दूर निकल आया। दूर से इस पर्यावरण के खिलाफ अवैध खनन की तस्वीर भी नहीं ली जा सकती। क्योंकि जेब में पड़ा सस्ता मोबाइल दूर से तस्वीर उतारने में असमर्थ है। वापस लौट पड़ता हूं, जो भी होगा देखा जाएगा। पास आता हूं तो अवैध खनन का वही नजारा जारी है। धुल का गुबार रह रहकर कभी आसमान की तरफ तो कभी हवा के साथ बढ़ा चला जा रहा है। पास ही तीन नदियों के संगम से आती तेज बहाव की आवाजें जैसे प्रकृति के साथ की जाने वाली इस इंसानी तबाही पर अपने तेज गुस्से का इजहार कर रही हों।

इन सबसे बेखबर खनन माफिया खूबसूरत घाटी को खोखला करते अपनी धुन में मस्त हैं। नजदीक आकर मोबाइल से तस्वीर उतारता हूं। देर शाम हो रही है अगर नहीं पहुंचा तो नदी पार भी नहीं कर पाऊंगा। फिर रात तो कही बीहड़ में बितानी पड़ेगी। जमीन का सीना फाड़कर इस तरह का बालू खनन जिंदगी में पहली बार देखा था। गांव वाले बताते हैं कि इन बीहड़ों में अंधाधुंध अवैध बालू खनन दिन-रात जारी है। इस बारे में और दरयाफ्त करने पर पता चला कि ट्रकों पर लदा यह अवैध बालू, यहां से 16 किलोमीटर आगे पुल पार कर मुख्य सड़क से खुफिया रास्ते इटावा और अन्य समीपवर्ती शहरों की तरफ चला जाता है।

असल में, डाकुओं के खौफ का बहाना बनाकर बीहड़ दशकों तक विकास से अछूते तो रखे ही गए। साथ ही विभिन्न तरीकों से डाकुओं का भय दिखाकर उसकी आड़ में घाटी के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट भी जारी रही है। अंत में यह सवाल है कि घाटी में बागी उन्मूलन के उपरांत भी जारी प्राकृतिक संसाधनों के लुटेरों पर अब कोई गाज गिरेगी या नहीं?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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