लोकतांत्रिक प्रणाली में सवाल करना गलत नहीं, लेकिन स्वार्थपूर्ति के लिए सवाल उठाना गलत
राजनीतिक सत्ता परिवर्तन और अधिकारियों के बदले जाने से इन संस्थाओं के काम करने के तरीके नहीं बदलते।
[डॉ. महेश भारद्वाज]। पिछले कुछ समय से देश की विभिन्न संवैधानिक और वैधानिक संस्थाओं को लेकर तमाम तरह के विचार व्यक्त किए जा रहे हैं। एक वर्ग का मानना है कि आजादी के 70 बरस बाद भी इनका संस्थानीकरण नहीं हो पाया है, जबकि दूसरा वर्ग इन संस्थाओं के कामकाज से काफी हद तक संतुष्ट है। इस विचार भिन्नता की जड़ में लोगों के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं। इन संस्थाओं द्वारा की जा रही कार्रवाइयों से खुश लोगों को इनके कामकाज में कोई खोट नजर नहीं आ रहा, जबकि इनकी कार्रवाइयों से परेशानी में आ रहे लोगों की नाराजगी को समझा जा सकता है। ऐसे में कभी सीबीआइ, कभी प्रवर्तन निदेशालय तो कभी डीआरआइ द्वारा देशभर में की जा रही कार्रवाइयों के चलते बहुत से लोगों की सांसें थमना लाजिमी है। जिन लोगों ने कानून कायदों को ताक पर रखकर ताबड़तोड़ तरीके से अपने को या अपने कारोबार को आगे बढ़ाया है उनका आशंकित और सशंकित भी होना स्वाभाविक है। ऐसे लोग बखूबी समझते हैं कि उन्होंने कहां, क्या और किस प्रकार की गड़बड़ी की है।
देश में कानूनों की कभी कोई
हम सब जानते हैं कि देश में कानूनों की कभी कोई कमी नहीं रही, अलबत्ता इनके क्रियान्वयन की कमी को बेझिझक स्वीकार किया जा सकता है। इस लचर क्रियान्वयन का चतुर लोगों ने भरपूर फायदा तो उठाया है, लेकिन इन लोगों को इस बात का खयाल तक नहीं रहा होगा कि उनके खेल के पर्दाफाश होने में देर हो सकती है, अंधेर नहीं। उम्मीद है मौजूदा दौर में चल रही कार्रवाइयों ने उन्हें अब यह अहसास भी करा दिया होगा। देश में कार्यरत कुछ संस्थाओं की व्यवस्था तो संविधान निर्माताओं ने उस समय की सोच और समझ के हिसाब से संविधान में कर दी थी और बाकी संस्थाओं की स्थापना जरूरत पड़ने पर तत्कालीन सरकारों द्वारा समय-समय पर की गई।
सवालात उठते रहे
जिन संस्थाओं को तात्कालिकता के कारण अध्यादेश के जरिए भी अस्तित्व में लाया गया उन्हें बाद में संसद या राज्य विधायिकाओं द्वारा वैधानिकता का जामा पहना दिया गया। इसमें अंतर्निहित बात यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी संस्था न तो बिना जरूरत के बनाई गई है और न ही वे बिना जनता के नुमाइंदों की मर्जी के अस्तित्व में आई हैं, बल्कि जन कल्याण के वृहदगामी उद्देश्यों के लिए समय-समय पर गठित की गई हैं। फिर लंबे समय तक वजूद में रहकर इन संस्थाओं ने भी अपनी उपयोगिता और उपादेयता को साबित कर दिया है। बावजूद इसके इन संस्थाओं के अस्तित्व और कार्यप्रणाली को लेकर तमाम तरह के सवालात उठते रहे हैं।
लोकतांत्रिक प्रणाली में खराब बात नहीं
सवालों का उठना लोकतांत्रिक प्रणाली में कोई खराब बात नहीं है, लेकिन परेशानी उस समय जरूर होने लगती है जब इन संस्थाओं द्वारा कानून प्रदत्त अधिकारों के तहत और कानून के दायरे में रहकर काम किए जाने के बावजूद इनकी कार्रवाई को निहित स्वार्थो से प्रेरित ठहरा दिया जाता है। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कार्यरत विभिन्न आयोगों के प्रति सत्ताधारी दल और विपक्ष में बैठे लोगों के बदलते नजरिए को भी इस पृष्ठभूमि में रखकर देखने की जरूरत है। मुद्दा यह है कि किसी संस्था के एकदम कानूनी और तर्कसंगत कदम को भी पक्ष और विपक्ष कब तक अलग-अलग नजरिए से देखते रहेंगे? ऐसा कैसे हो सकता है कि जब कोई दल सत्ता में होता है तो उसे ये संस्थाएं एकदम सही लगती हैं और प्रतिपक्ष में आते ही उसे इनकी कार्रवाइयां राजनीति से प्रेरित लगने लगती हैं।
अधिकारों की रक्षा
इस प्रकार के दोहरे मानदंडों का मतलब तो यही हुआ कि जब कोई संस्था रोक-टोक करे या किसी के क्रियाकलापों पर सवाल उठाए तो संबंधित पक्ष अपने-अपने हिसाब से निष्कर्ष निकालने लग जाते हैं। जहां सरकारी विभाग उसे अपने अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप मान बैठते हैं वहीं प्रभावित व्यक्ति या राजनीतिक दल इनकी कार्रवाइयों को राजनीतिक चश्मे से देखने में पीछे नहीं रहते। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी दल हर समय सत्ता में नहीं रहता है और कोई भी नौकरशाह एवं सरकारी कर्मचारी पूरी उम्र सेवा में नहीं रहता है। और जब वे सत्ता और सेवा में नहीं होंगे तो इन वैधानिक संस्थाओं को भी हम उनके और हमारे अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ा पाएंगे। जरूरत है इनकी कार्रवाइयों को नजरिया बदल कर देखने की।
व्यापक दृष्टिकोण से सोचना होगा
आखिरकार किसी को तो संपूर्ण समाज, देश और व्यवस्था हित में व्यापक दृष्टिकोण से सोचना होगा। इसलिए आज आवश्यकता इन संस्थाओं से परहेज करने की नहीं, बल्कि इन्हें मजबूत बनाने की है। इनको कमजोर या खत्म करने का बेतुका विचार वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के साथ अन्याय से कम नहीं होगा। आलोचकों को इनके कामकाज को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी और उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने पर ध्यान देना चाहिए और अपना राजनीतिक या एकपक्षीय चश्मा आमजन को पहनाने से बचना चाहिए ताकि जनता का भरोसा इनके प्रति बना रहे। हमारा जोर इन संस्थाओं के संस्थागत स्वरूप को परिपक्वता प्रदान करने पर अधिक रहना चाहिए जो इनकी विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए अहम चुनौती है।
राजनीतिक सत्ता परिवर्तन
इसके परिणामस्वरूप लोगों को विश्वास हो सकेगा कि राजनीतिक सत्ता परिवर्तन और अधिकारियों के बदले जाने से इन संस्थाओं के काम करने के तरीके नहीं बदलते। गलत रास्ते पर चलने वालों को भी समझ आएगा कि इस देश में कोइ भी गैर कानूनी काम एक न एक दिन पकड़ में आ ही जाएगा। इससे सही रास्ते पर चलने वाले लोगों को संबल मिलेगा और गलत काम करने वाले भविष्य की सोचकर डरने लगेंगे। हां, इन संस्थाओं के दुरुपयोग की बात जरूर उठती रही है, जिसके लिए सरकार से ज्यादा इस संस्थाओं में बैठे लोग जिम्मेदार हैं। इन संस्थाओं में बैठे लोगों को भी नहीं भूलना चाहिए कि वे इन संस्थाओं में सदा-सदा के लिए नहीं बैठे रहेंगे और यदि वे आज किसी के द्वारा इस्तेमाल होंगे तो इस परिपाटी के चलते आने वाले समय में ऐसा इस्तेमाल उनके खिलाफ भी हो सकता है। इसलिए हम सबको साझा प्रयास करके इन संस्थाओं को इस्तेमाल होने वाली ‘वस्तु’ बनने से रोकने पर ध्यान देना चाहिए।
[आइपीएस अधिकारी]