अफसोस! दुनिया के टॉप 250 विश्वविद्यालयों की लिस्ट नहीं भारत का कोई विश्वविद्यालय
दुनिया के शीर्ष ढाई सौ श्रेष्ठ संस्थानों की सूची में में कई ऐसे राष्ट्र जगह बनाने में सफल रहे हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं जबकि हमारे देश में उच्च शिक्षा के नाम पर हर वर्ष अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Tue, 04 Dec 2018 01:47 PM (IST)
सुधीर कुमार। हाल ही में ‘वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2019’ रिपोर्ट जारी की गई है। दुनियाभर के 1,250 विश्वविद्यालयों में शिक्षण, शोध, ज्ञान हस्तांतरण और अंतरराष्ट्रीय संभावना जैसे कुल 13 संकेतकों के अध्ययन के बाद इसे तैयार किया गया है जिसमें भारत के 49 विश्वविद्यालय अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे हैं। पिछले साल एक हजार विश्वविद्यालयों की सूची में 42 भारतीय संस्थान शामिल थे। हालांकि विश्व की शीर्ष 250 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में इस बार भी भारत के किसी विश्वविद्यालय को जगह नहीं मिली है। इस अंतरराष्ट्रीय सूची में लगातार तीसरे वर्ष ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी शीर्ष पर रही, जबकि ब्रिटेन की ही कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी क्रमश: दूसरे और तीसरे पायदान पर रही। भारत की बात की जाए तो भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरु देश का सर्वश्रेष्ठ संस्थान बन कर उभरा है। इसके अलावा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान इंदौर, बॉम्बे और रुड़की शीर्ष 500 बेहतरीन संस्थानों में शामिल हैं जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया की गिनती दुनिया के श्रेष्ठ शीर्ष हजार विश्वविद्यालयों में की गई है।
चिंता की बात
दुनिया के शीर्ष ढाई सौ श्रेष्ठ संस्थानों की सूची में भारत के किसी विश्वविद्यालय का स्थान न बना पाना चिंता का विषय है। इस सूची में कई ऐसे राष्ट्र शीर्ष जगह बनाने में सफल रहे हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं जबकि हमारे देश में उच्च शिक्षा के नाम पर हर वर्ष अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं। फिर भी भारतीय शिक्षा पद्धति अंतरराष्ट्रीय मानक से पीछे है। सवाल यह है कि भारी-भरकम बजट, स्मार्ट क्लास-रूम की व्यवस्था व बेहतरीन आधारिक संरचना के बावजूद वर्तमान में विश्वविद्यालय अपनी अंतरराष्ट्रीय चमक बिखेरने में असफल साबित क्यों हुए हैं? यह वास्तव में व्यापक विमर्श का विषय है कि प्राचीन काल में विक्रमशिला, नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को वापस लाए बिना क्या भारत को पुन: ‘विश्व गुरु’ बनाने का लक्ष्य पाना आसान होगा? विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण
‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ की यह विश्व प्रतिष्ठित रैंकिंग देश के नीति-निर्माताओं और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों को उच्च शिक्षा की मौजूदा दशा और दिशा पर मंथन का अवसर प्रदान करती है। मौजूदा समय में देश के कई विश्वविद्यालय राजनीतिकरण के शिकार हैं। इनमें चंद अराजक तत्वों द्वारा समय-समय पर परिसर का माहौल खराब करने की कोशिश की जाती रही है जिससे छात्रों की पढ़ाई-लिखाई बाधित होती है। जेएनयू, बीएचयू, एएमयू जैसी शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों से समय-समय पर दुखद प्रसंगों का आना जारी है। इससे न केवल विश्वविद्यालय की छवि बिगाड़ती है, बल्कि छात्रों का भविष्य भी खराब होता है। उदाहरण के तौर पर मणिपुर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में बीते कई महीने पठन-पाठन ठप रहा। वहां के कुलपति पर वित्तीय अनियमितता व प्रशासनिक लापरवाही का आरोप लगाते हुए छात्रों और शिक्षकों के एक गुट ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। बनारस हंिदूू यूनिवर्सिटी में दो विचारधाराओं और छात्रवासों के बीच तनाव होना इन दिनों आम बात हो गई है।
दुनिया के शीर्ष ढाई सौ श्रेष्ठ संस्थानों की सूची में भारत के किसी विश्वविद्यालय का स्थान न बना पाना चिंता का विषय है। इस सूची में कई ऐसे राष्ट्र शीर्ष जगह बनाने में सफल रहे हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं जबकि हमारे देश में उच्च शिक्षा के नाम पर हर वर्ष अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं। फिर भी भारतीय शिक्षा पद्धति अंतरराष्ट्रीय मानक से पीछे है। सवाल यह है कि भारी-भरकम बजट, स्मार्ट क्लास-रूम की व्यवस्था व बेहतरीन आधारिक संरचना के बावजूद वर्तमान में विश्वविद्यालय अपनी अंतरराष्ट्रीय चमक बिखेरने में असफल साबित क्यों हुए हैं? यह वास्तव में व्यापक विमर्श का विषय है कि प्राचीन काल में विक्रमशिला, नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को वापस लाए बिना क्या भारत को पुन: ‘विश्व गुरु’ बनाने का लक्ष्य पाना आसान होगा? विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण
‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ की यह विश्व प्रतिष्ठित रैंकिंग देश के नीति-निर्माताओं और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों को उच्च शिक्षा की मौजूदा दशा और दिशा पर मंथन का अवसर प्रदान करती है। मौजूदा समय में देश के कई विश्वविद्यालय राजनीतिकरण के शिकार हैं। इनमें चंद अराजक तत्वों द्वारा समय-समय पर परिसर का माहौल खराब करने की कोशिश की जाती रही है जिससे छात्रों की पढ़ाई-लिखाई बाधित होती है। जेएनयू, बीएचयू, एएमयू जैसी शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों से समय-समय पर दुखद प्रसंगों का आना जारी है। इससे न केवल विश्वविद्यालय की छवि बिगाड़ती है, बल्कि छात्रों का भविष्य भी खराब होता है। उदाहरण के तौर पर मणिपुर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में बीते कई महीने पठन-पाठन ठप रहा। वहां के कुलपति पर वित्तीय अनियमितता व प्रशासनिक लापरवाही का आरोप लगाते हुए छात्रों और शिक्षकों के एक गुट ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। बनारस हंिदूू यूनिवर्सिटी में दो विचारधाराओं और छात्रवासों के बीच तनाव होना इन दिनों आम बात हो गई है।
चर्चा का केंद्र
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिन विश्वविद्यालयों को अपनी गुणवत्ता और बेहतर शोध के बल पर चर्चा का केंद्र बने रहना चाहिए था, वे राजनीति, आपसी द्वंद्व और गैर-शैक्षणिक गतिविधियों की वजह से चर्चित हो रहे हैं! बहरहाल कॉलेज व विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा प्राप्त करने की दृष्टि से विद्यार्थियों के जीवन का अहम पड़ाव होता है। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता ही किसी राष्ट्र के भविष्य का स्वरूप तय करता है। देश की प्रगति के लिए एक बेहतर रोडमैप तैयार करने में उच्च शिक्षा की महती भूमिका रही है। हालांकि उच्च शिक्षा के प्रति सरकारी उदासीनता का ही दुष्परिणाम है कि आज उच्च शिक्षा प्राप्त लाखों युवा बेरोजगार हो रहे हैं। एक तरफ हाई कटकॉफ, महंगी फीस और सुलभता के अभाव में उच्च शिक्षा की प्राप्ति कठिन होती जा रही है तो दूसरी तरफ उच्च शिक्षा ग्रहण के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं हो पाता है। एक समय था जब समाज में एमए, बीएड, एमफिल और पीएचडी जैसी डिग्रियों तथा उन्हें अर्जित करने वाले लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन आज ऐसी डिग्रियां केवल तसल्ली का भाव जगाने भर रह गई हैं। ऐसी डिग्रियां खुलेआम बेची भी जा रही हैं और यकीन मानिए उसके अच्छे ग्राहक भी हैं। आज डिग्री अर्जित करना सरल हो गया है, लेकिन रोजगार की मांग के अनुसार कुशलता और योग्यता को जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। वहीं उम्र व समय खपाकर जिन डिग्रियों को युवा हासिल करता है वह अंत में जब महत्वहीन प्रतीत होता है तो अवसाद की गिरफ्त में जाना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर
बेशक शोध, अनुसंधान और अन्वेषण में हम राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर कर रहे हैं, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह नाकाफी है। विश्वविद्यालयों में शिक्षा के स्तर और शोध की गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। हमारे विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। अधिकांश विश्वविद्यालयों में रिसर्च के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है। यह भी यथार्थ है कि मौजूदा समय में पीएचडी ज्ञान का पैमाना न होकर महज एक डिग्री बनकर रह गई है। पीएचडी धारकों का चपरासी पद के लिए आवेदन करना आज सामान्य बात बन गई है। हालांकि बेरोजगार रहने से अच्छा है कि रोजगार का कोई माध्यम चुना जाए, लेकिन हमारा सामाजिक ढांचा इतना जटिल है कि बेरोजगारी पर उलाहना देने वाला समाज इस बात को हजम ही नहीं कर पाता है।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिन विश्वविद्यालयों को अपनी गुणवत्ता और बेहतर शोध के बल पर चर्चा का केंद्र बने रहना चाहिए था, वे राजनीति, आपसी द्वंद्व और गैर-शैक्षणिक गतिविधियों की वजह से चर्चित हो रहे हैं! बहरहाल कॉलेज व विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा प्राप्त करने की दृष्टि से विद्यार्थियों के जीवन का अहम पड़ाव होता है। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता ही किसी राष्ट्र के भविष्य का स्वरूप तय करता है। देश की प्रगति के लिए एक बेहतर रोडमैप तैयार करने में उच्च शिक्षा की महती भूमिका रही है। हालांकि उच्च शिक्षा के प्रति सरकारी उदासीनता का ही दुष्परिणाम है कि आज उच्च शिक्षा प्राप्त लाखों युवा बेरोजगार हो रहे हैं। एक तरफ हाई कटकॉफ, महंगी फीस और सुलभता के अभाव में उच्च शिक्षा की प्राप्ति कठिन होती जा रही है तो दूसरी तरफ उच्च शिक्षा ग्रहण के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं हो पाता है। एक समय था जब समाज में एमए, बीएड, एमफिल और पीएचडी जैसी डिग्रियों तथा उन्हें अर्जित करने वाले लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन आज ऐसी डिग्रियां केवल तसल्ली का भाव जगाने भर रह गई हैं। ऐसी डिग्रियां खुलेआम बेची भी जा रही हैं और यकीन मानिए उसके अच्छे ग्राहक भी हैं। आज डिग्री अर्जित करना सरल हो गया है, लेकिन रोजगार की मांग के अनुसार कुशलता और योग्यता को जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। वहीं उम्र व समय खपाकर जिन डिग्रियों को युवा हासिल करता है वह अंत में जब महत्वहीन प्रतीत होता है तो अवसाद की गिरफ्त में जाना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर
बेशक शोध, अनुसंधान और अन्वेषण में हम राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर कर रहे हैं, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह नाकाफी है। विश्वविद्यालयों में शिक्षा के स्तर और शोध की गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। हमारे विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। अधिकांश विश्वविद्यालयों में रिसर्च के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है। यह भी यथार्थ है कि मौजूदा समय में पीएचडी ज्ञान का पैमाना न होकर महज एक डिग्री बनकर रह गई है। पीएचडी धारकों का चपरासी पद के लिए आवेदन करना आज सामान्य बात बन गई है। हालांकि बेरोजगार रहने से अच्छा है कि रोजगार का कोई माध्यम चुना जाए, लेकिन हमारा सामाजिक ढांचा इतना जटिल है कि बेरोजगारी पर उलाहना देने वाला समाज इस बात को हजम ही नहीं कर पाता है।
उच्च शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग
बहरहाल उच्च शिक्षा और रोजगार उन्मुखता के बीच बढ़ती खाई की वजह से हमारी शिक्षा व्यवस्था केवल ‘ग्रेजुएट’ पैदा कर रही है। उसमें इतनी ताकत नहीं कि वह सबके लिए रोजगार सुनिश्चित कर सके। उच्च शिक्षा के गौरव को लौटाने तथा इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर प्रदान करने के लिए जरूरी है कि शिक्षण व्यवस्था से जुड़े तमाम लोग अपना कार्य ईमानदारी से करें। दुनिया भर के उच्च शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग अनेक संगठन जारी करते हैं। ‘वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2019’ में भारत के शीर्ष शैक्षिक संस्थानों के बारे में भी जानकारी दी गई है। भारतीय संस्थानों की रैंकिंग बेहतर न होने के अनेक कारण हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जबकि हमारे देश में उच्च शिक्षा पर खर्चा बहुत किया जाता है। ऐसे में यह विचारणीय है कि हमारा देश इस मामले में पिछड़ क्यों रहा है जबकि प्राचीन काल में हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं। (लेखक बनारस हिंदू विद्यालय मेें अध्येता हैं)
बहरहाल उच्च शिक्षा और रोजगार उन्मुखता के बीच बढ़ती खाई की वजह से हमारी शिक्षा व्यवस्था केवल ‘ग्रेजुएट’ पैदा कर रही है। उसमें इतनी ताकत नहीं कि वह सबके लिए रोजगार सुनिश्चित कर सके। उच्च शिक्षा के गौरव को लौटाने तथा इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर प्रदान करने के लिए जरूरी है कि शिक्षण व्यवस्था से जुड़े तमाम लोग अपना कार्य ईमानदारी से करें। दुनिया भर के उच्च शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग अनेक संगठन जारी करते हैं। ‘वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2019’ में भारत के शीर्ष शैक्षिक संस्थानों के बारे में भी जानकारी दी गई है। भारतीय संस्थानों की रैंकिंग बेहतर न होने के अनेक कारण हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जबकि हमारे देश में उच्च शिक्षा पर खर्चा बहुत किया जाता है। ऐसे में यह विचारणीय है कि हमारा देश इस मामले में पिछड़ क्यों रहा है जबकि प्राचीन काल में हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं। (लेखक बनारस हिंदू विद्यालय मेें अध्येता हैं)