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मोटा अनाज खाओ, प्रभु के गुण गाओ, हर थाली तक संतुलित तरीके से पहुंचाना होगा पोषण; एक्सपर्ट व्यू

हरित क्रांति के दौर में गेहूं और धान को विशेष नीतिगत समर्थन मिला। स्थिति यह हुई कि मोटे अनाज का रकबा 75 प्रतिशत कम हो गया। अब सरकार को इसमें संतुलन लाना होगा। नीतियों की मदद से इनके प्रति किसानों में रुचि पैदा करनी होगी।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 28 Nov 2022 01:19 PM (IST)
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हर थाली तक संतुलित और पोषक आहार पहुंचाने का लक्ष्य भी पूरा होगा।
डा. देवेंद्र कुमार यादव। पारंपरिक तौर पर पौष्टिकता, पानी व खाद की कम आवश्यकता और जटिल परिस्थितियों में भी आसानी से उपजने की खूबी के कारण मोटे अनाजों की खेती की जाती है। एक समय भारत में लगभग हर घर में खाने की थाली में कोई न कोई मोटा अनाज अवश्य मिल जाता था। हमारे कुल अनाज उत्पादन में 40 प्रतिशत तक की इनकी हिस्सेदारी रहती थी। धीरे-धीरे स्थिति बदली और थाली से ये अनाज दूर हो गए। हम मोटे अनाजों के सबसे बड़े उत्पादक और दूसरे सबसे बड़े निर्यातक तो हैं, लेकिन कुल अनाज में इनकी हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम रह गई है।

2018 में केंद्र सरकार ने इन अनाजों को फिर से हर थाली तक पहुंचाने के लिए अभियान शुरू किया। भारत के प्रयासों से 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष भी घोषित किया गया है। यह सराहनीय है। इससे इन अनाजों के उत्पादन और इनकी खपत को लेकर जागरूकता लाने में मदद मिलेगी। किसानों को इस बारे में जागरूक करना होगा कि ये अनाज कम पानी में उपजने में सक्षम हैं। छोटी जोत वाले किसानों के लिए ये फसलें किसी वरदान से कम नहीं हैं, क्योंकि जटिल मौसमी परिस्थितियों में भी इनकी खेती आसानी से हो जाती है। इनकी खेती करने से सिंचाई और खाद पर होने वाला खर्च भी कम हो जाता है। बड़ी खूबी यह भी है कि 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर भी ये फसलें उपज जाती हैं। सूखे के मौसम में जब सभी फसलें खराब हो जाती हैं, उस समय भी खेत में मोटे अनाज की फसलें खड़ी रह जाती हैं।

दरअसल, हरित क्रांति के दौर में सरकारी नीतियों के कारण भारत में मोटे अनाज की खेती के प्रति अरुचि बनती गई। नतीजा यह है कि इनका रकबा 75 प्रतिशत तक कम हो गया है। तकनीक एवं अन्य सुविधाओं के दम पर 1965 की तुलना में प्रति हेक्टेयर इनकी उत्पादकता ढाई गुना तक हो गई है, लेकिन रकबा इतनी तेजी से घटा कि थाली से ये अनाज पूरी तरह गायब होते चले गए। इनकी जगह गेहूं, धान और अन्य नकदी फसलों ने ले ली। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद जैसे कदमों से अन्य अनाजों को बढ़ावा भी खूब दिया।

निर्यात से लेकर घरेलू खपत तक, हर स्तर पर अन्य अनाजों को प्राथमिकता दी जाने लगी।

अब धीरे-धीरे गैर-संक्रामक बीमारियों के बढ़ते खतरे को देखते हुए आहार में संतुलन की ओर लोगों का ध्यान गया है। दरअसल मोटे अनाज से शरीर को पर्याप्त पोषण मिल जाता था। गेहूं और धान से वह पोषण नहीं मिल पाता है। इसलिए यह अत्यावश्यक है कि खानपान में अनाजों का संतुलन बनाया जाए। थाली में सभी अनाजों की संतुलित मात्रा पहुंचाने के लिए यह भी जरूरी है कि खेती में भी संतुलन आए। सरकार ने जिस तरह से अन्य नकदी फसलों को बढ़ावा देने के कदम उठाए, उसी तरह के कदम मोटे अनाजों के संदर्भ में भी उठाए जाने चाहिए। जब किसानों को यह भरोसा होगा कि उनकी उपज का सही दाम उन्हें मिल सकता है, तो निसंदेह वे इनकी खेती के लिए भी प्रोत्साहित होंगे। सरकारी खरीद में इनकी हिस्सेदारी बढ़ानी होगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इनकी खरीद सुनिश्चित करनी होगी। विज्ञानियों को भी इस दिशा में शोध करते हुए नई एवं बेहतर किस्मों को विकसित करने की दिशा में प्रयास करना होगा। सभी का सम्मिलित प्रयास ही इच्छित परिणाम तक पहुंचाएगा।

[सहायक महानिदेशक (सीड), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद]