Water Conservation: वर्षा की हर बूंद को समेट लेने में ही हमारा सुरक्षित भविष्य करता है निर्भर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्षा जल संरक्षण के लिए ‘कैच द रेन’ का मंत्र आज इस देश व दुनिया की पहली आवश्यकता है। वर्षा की हर बूंद को समेट लेने में ही हमारा सुरक्षित भविष्य निर्भर करता है क्योंकि फिलहाल पानी का दूसरा कोई विकल्प हमारे पास नहीं है...
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 12 Apr 2021 08:24 PM (IST)
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय जल मिशन के अंतर्गत वर्षा जल संरक्षण का आह्वान ही पानी बचाने का एकमात्र रास्ता है, क्योंकि एक तरफ जहां पानी की हाय-तौबा मची हो और दूसरी तरफ करोड़ों लीटर पानी, जो प्रकृति हर वर्ष इस देश को देती है, हम यूं ही अपने सामने जाने देते हैं, तब ऐसे जल बचाने वाले नारे हमें वर्षा जल संरक्षण के लिए प्रेरित कर सकते हैं। फिर जहां पानी हर देश व हर घर का संकट बन रहा हो तो पानी की सारी आस व मेहनत आसमान पर ही टिकानी होगी। 22 मार्च, अंतरराष्ट्रीय जल दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी के वर्षा जल संरक्षण के लिए ‘कैच द रेन’ का नारा आज इस देश व दुनिया की पहली आवश्यकता है। वर्षा की हर बूंद को समेट लेने में ही हमारा भविष्य निर्भर करता है और वह इसलिए कि पानी का दूसरा और कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। अब भगवान इंद्र की कृपा का सही मतलब समझने का भी समय आ चुका है, जिसको हमने कभी गंभीरता से नहीं लिया। खासतौर से तब, जब प्रकृति द्वारा दिए जा रहे पानी को जुटाने के रास्ते भी हमने अपनी नासमझी से खो दिए हों।
प्रकृति का प्रसादअब इन आंकड़ों को देखिए, जो ये बताते हैं कि हम पर भगवान इंद्र की कितनी कृपा रही और हमने उसे कितना दरकिनार कर दिया। अपने देश में हर वर्ष करीब 4,000 क्यूबिक किलोमीटर पानी मतलब वर्ष 2018 में औसतन 1,020 मिलीमीटर, वर्ष 2017 में 1,127 मिलीमीटर पानी का प्रसाद मिला। इसकी तुलना में अमेरिका में मात्र 3,221 इंच वर्षा होती है, पर दुर्भाग्य है कि हम इसका मात्र 67 फीसद ही जोड़ पाते हैं बाकी सारा समुद्र की भेंट चढ़ जाता है। मतलब पानी की कृपा हम पर कम नहीं होती, यह बात और है कि हम इसको परख नहीं पाते। इससे भी ऊपर प्राकृतिक पानी के प्रबंधन को भी देख लें। हर रूप में प्रकृति ने हर तरह का पानी हमारे बीच में विभिन्न तरीकों से उपलब्ध कराया है।
समझें प्रकृति का विज्ञानदुनिया में वर्षा का पानी ही सभी तरह के पानी का स्रोत है। जहां भी पानी है वो कहीं न कहीं वर्षा जल से ही जुड़ा है। चाहे मैदानी तालाब, कुंए हों या फिर पहाड़ी धारे या हिमखंड, सबकी जड़ें मानसून से सिंचती हैं। वर्षा जल ही जलागमों के जलभिदों को सींचकर नदियां बनाता है। चाहे पहाड़ हों या मैदान, सभी तरह के जलागृह इसी कारण मरते-सिमटते दिखाई देते हैं, क्योंकि उनकी वर्षा जल संग्रहण क्षमताएं निम्न हो गईं या फिर समाप्त हो गईं। कारण साफ है जलग्रहों के संग्रहण क्षेत्र या तो अन्य उपयोगों में आ गए या फिर वन विहीन हो गए। वन व वर्षा का अटूट रिश्ता होता है जिसके टूटने से जल संग्रहण क्षेत्र भूमिगत जलभिदों को सींच नहीं पाते और गर्मियों में सूखा व मानसून में बाढ़ जैसी परिस्थितियां पैदा कर देते हैं। प्रकृति यही बताती है कि इसके विज्ञान व प्रबंधन को समझकर जल संग्रहण के परंपरागत तौर-तरीके ही जलग्रहों में पानी की वापसी सुनिश्चित कर सकते हैं। ये चिंता इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि अब वर्ष 1950 की तुलना में 24 लाख तालाबों में से पांच लाख ही बचे हैं। इतना ही नहीं, एक-एक करके सभी वर्षाजनित नदियां अपना पानी या तो पूरी तरह से खो चुकी हैं या फिर खोने की कगार पर खड़ी हैं। इन नदियों से पानी का एक और महत्व जुड़ा है। ये अपनी यात्रा में जलभिदों को सींचकर भूमिगत पानी बढ़ा देती हैं। इनमें पानी की कमी ने कुंओं को भी संकट में डाला है।
जैसी वर्षा वैसी व्यवस्थाएक तरफ पानी की बढ़ती मांग और दूसरी तरफ वर्षा के पानी को न जोड़ पाना हमें भारी पड़ा है। इन सबके अलावा जलवायु परिवर्तन जैसे संकट के कारण वर्षा भी रूठ चुकी है। इसका मिजाज बिगड़ चुका है। इसकी तीव्रता और वितरण पर भी असर पड़ चुका है। मसलन किसी एक स्थान पर अतिवृष्टि व अन्य जगह पर सूखे जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं साथ में मानसून में बाढ़ व अन्य समय सूखे जैसे हालात पैदा हो गए हैं। ऐसे में बुद्धिमता इसी में होगी कि जहां-जहां जिस भी रूप में वर्षा पड़ रही है, उसे समेट लिया जाए और अगर ये सब कुछ प्रकृति व परंपरा को जोड़कर किया जाए तो इसमें स्थायीपन भी होगा और जल स्थिरता भी रहेगी। अपने देश में वैसे भी पानी पड़ने में कई तरह की विभिन्नताएं भी हैं। जैसलमेर में 100 मिलीमीटर पानी पड़ता है तो कोलकाता में 2,700 मिलीमीटर, इसी तरह दिल्ली के हिस्से में 600 मिलीमीटर है तो मुंबई में 1,800 मिलीमीटर। इस तरह की विभिन्नताएं हमें प्रकृति के तौर-तरीके भी सिखाती हैं कि इन स्थानों में कैसे पानी समेटा जाए।
छोटे जलागम ने दी बड़ी सफलता इस वर्षा जल संग्रहण प्रयोग ने गदेरों व छोटी नदियों को पुनर्जीवित करने का भी काम किया है। प्रयोग को एक कदम आगे बढ़ाते हुए वन विहीन व जलग्रहण क्षमता शून्य हो गए छोटी नदियों के जलागमों को एक अन्य कोण से देखा गया, जो काम जलागम में वनों को जल संरक्षण के लिए करना था, उनके विकल्प के रूप में वर्षा जल द्वारा जलछिद्रों से जलागम को पाट दिया। हजारों की संख्या में बनाए गए छोटे-छोटे जलछिद्रों ने पेड़ों की जड़ों से पर्याप्त जल इकट्ठा कर जलागम के भूमिगत जलभिदों को तर कर दिया। एक हेक्टेयर में 300 से ज्यादा जलछिद्रों ने लाखों लीटर वर्षाजल को एक ही बारिश में भूमिगत कर दिया। कई हेक्टेयर में बने इन जलछिद्रों ने मरती नदियों में प्राण डाल दिए। इतना ही नहीं, जलछिद्रों ने पूरे जलागम को नम कर दिया तो स्थानीय पेड़ों के बीज भी पनपने लगे और प्राकृतिक वनों की वापसी भी सुनिश्चित हो गई। इन जलग्रहित वन क्षेत्रों में दोबारा आग लगने की दुर्घटनाएं भी नहीं हो पाईं। पिछले दशक के इस प्रयोग ने सरकार व सामाजिक संगठनों को वर्षा जल संग्रहण की ओर दिशा दे दी है। यह प्रयोग पहाड़ से लेकर मैदानी नदियों के लिए उदाहरण बन गया और देश के कई कोनों में इसकी पुनरावृत्ति हुई।
कोशिशों से मिटेगी प्याससाफ सी बात है कि पहाड़ हों या मैदान, वर्षा जल ही जलग्रहों को सींच सकते हैं। इनमें पहाड़ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहां से निकला पानी हिमखंड व नदियों के जरिए देश को जल उपलब्ध करवाता है। यहां भी ये वर्षा जल ही है, जिस पर सभी तरह के पानी के स्रोत टिके हैं। चाल, ताल व खाल के अलावा भी यहां सबसे महत्वपूर्ण धारे हैं, जो हर घर-गांव से जुड़े हैं। ये भी समझा जा सकता है कि पहाड़ के गांव की बसावटों के पीछे हमेशा धारे ही रहे हैं। वैसे भी गांव वहीं बसते हैं, जहां पानी होता है। पिछले चार दशकों में पहाड़ों में जहां एक तरफ भारी निर्माण कार्यों के कारण धाराआें की दिशा बदली, वहीं दूसरी तरफ वनों के पतन ने गाड-गदेरों को भी सुखा दिया। कमोबेश ये वृक्ष ही हैं, जो वर्षा जल को अपनी जड़ों से भूमिगत जलभिदों को सींचकर नदी-नालों को पानी देते रहे हैं। इनमें वर्षा जल से पानी लाने के एक सफल प्रयोग ने अब नई आस पैदा कर दी है। जल स्रोतों के संग्रहण क्षेत्र की पहचान करने के लिए पर्यावरण संस्थानिक अध्ययन के प्रयोगों ने इनको चिन्हित कर दिया और फिर वनों के अभाव में इन क्षेत्रों में छोटे-छोटे बांध बनाकर वर्षा जल को बहने से रोक दिया। आज इस प्रयोग से 200 से ज्यादा धाराओं की वापसी हो चुकी है। ये अन्य जलधाराओं को पुनर्जीवित करने का उदाहरण है।
(लेखक पद्म भूषण से सम्मानित प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)