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शांत पड़े नक्सलबाड़ी में फिर आदोलन को धार देने की कोशिश

नक्सली आंदोलन में बदलाव की बात भाकपा सेंट्रल कमेटी के नेता व चारु मजुमदार के पुत्र अभिजीत मजुमदार स्वीकार करते हैं।

By Rajesh KumarEdited By: Updated: Mon, 22 May 2017 04:52 PM (IST)
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शांत पड़े नक्सलबाड़ी में फिर आदोलन को धार देने की कोशिश

सिलीगुड़ी, [स्पेशल डेस्क]। दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी का छोटा सा गांव झडूजोत और बेंगाई जोत। यहां 24 और 25 मई 1967 में व्यवस्था के खिलाफ अधिकारों की जंग में हिंसा का रास्ता चुना जिसका नाम दिया गया 'नक्सलबाड़ी आंदोलन'। जो आज पूरे देश में 'नक्सल आंदोलन' के रुप में जाना जाता है। नक्सल आंदोलन की जन्मस्थली नक्सलबाड़ी आज शांति के मार्ग पर अग्रसर है। ठीक इसके विपरीत इन 50 वर्षो में देश में नक्सली आंदोलन  अभी भी सबसे खतरनाक बना हुआ है।

माओवादी संगठनों ने पिछले वर्ष आईईडी और दूसरे घातक हथियारों के उपयोग से सबसे ज्यादा सुरक्षा कर्मियों और नागरिकों की जान ली। इसमें मृतकों की संख्या में तीन फीसद वृद्धि हुई है। सबसे खतरनाक रुप में महिला नक्सलियों को तैयार किया जा रहा है। वह एके 47 से लैस होकर आक्रामकता की सभी हदें पार कर रही है।

शांत है नक्सलबाड़ी

शांत हो चले नक्सलबाड़ी में स्वर्ण जयंती वर्षगांठ की तैयारी के दौरान ही गत माह 24 अप्रैल को सुकमा में 26 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। इसके ठीक एक माह पूर्व 11 मार्च को नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 12 जवानों को शहीद कर दिया था। नक्सल आंदोलन की बात करें तो फिलहाल सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों
में झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश शामिल हैॆ। छत्तीसगढ़ में पिछले दो माह में सबसे ज्यादा 37 जवानों को नक्सली ने मौत के घाट उतारा है। जिलों की बात करें तो देश के 35 जिलों में इन दिनों नक्सलवाद सबसे ज्यादा सक्रिय है।

आंदोलन को धार देने की कोशिश

50 वर्ष पूर्व नक्सलबाड़ी से कानू सान्याल, चारू मजुमदार, जंगल संथाल, सोरेन बोस, खोखन मजुमदार, केशव सरकार, शांति मुंडा द्वारा नक्सल आंदोलन प्रारंभ किया था। सशस्त्र आंदोलन की चिंगारी आज ज्वाला बनकर देश की सरकार और प्रशासन को चुनौती दे रहा है। 50 वीं वर्षगांठ में एक बार फिर से इसी नक्सलबाड़ी की जमीन
पर आंदोलन को धार देने की कोशिश होगी। इसके लिए 24 व 25 मई को देश के कोने-कोने से नक्सली नेता यहां पहुंचेंगे। भाकपा माले लिबरेशन का तो तीन दिवसीय सेंट्रल कमेटी का सिलीगुड़ी में सम्मेलन होना तय है। हो न हो ममता बनर्जी की सरकार को नक्सल विरोधी मान रहे नक्सली संगठन किशनजी जैसे नेता के शहादत को लेकर एक बड़ी रणनीति तैयार करें। यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि जंगलमहल से भी बड़ी संख्या में यहां प्रतिनिधि शामिल होंगे।

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आंदोलन में बदलाव आया

लक्ष्य से नक्सलबाड़ी आंदोलन के भटकने की बात अभिजीत मजुमदार नहीं स्वीकारते। उनका कहना है नहीं ऐसा नहीं है। यह इसी आंदोलन का विचार है जो पूरे देश में आज फैलता जा रहा है। बदलाव आया है। कल तक नेपाल में माओवादी सशस्त्र आंदोलन में शामिल था। आज नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता में है। मजुमदार का कहना है कि बंगाल में भांगर आंदोलन इसका एक हिस्सा है। संगठन कमजोर नहीं हुआ है। इन दिनों संगठन भोजपुर, झारखंड, बंगाल, बर्दमान, नदिया, जंगलमहल आदि में जनतंत्र और जनवादी आंदोलन के रुप में विकसित हो रहा है। जहां तक नक्सलबाड़ी का सवाल है तो जो इतिहास रचता है जरुरी नहीं कि वह बार-बार उसी इतिहास को रचता रहे। देश में जहां भी नक्सली आंदोलन का नाम आएगा तो नक्सलबाड़ी आंदोलन का नाम उसमें शामिल रहेगा ही।

बदलाव स्वीकारते हैं नक्सली

नक्सली आंदोलन में बदलाव की बात भाकपा सेंट्रल कमेटी के नेता व चारु मजुमदार के पुत्र अभिजीत मजुमदार स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि जिस जमीन आंदोलन के लिए नक्सलबाड़ी आंदोलन प्रारंभ हुआ था क्या देश में आज जमीन की समस्या का समाधान कर दिया गया? उनका कहना है यह आंदोलन इसलिए और ङ्क्षहसक होता जा रहा है क्योंकि सामंतवाद के रुप में सरकार सैनिकों का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों के लिए
कर रही है। सुकमा में भी माइनिंग लूट के लिए सेना को भेजकर वहां के आदिवासियों का शोषण किया जा रहा है। युवाओं को आज रोजी रोजगार नहीं मिल रहा है।

दमन की राजनीति में युवा हथियार उठाने पर मजबूर हो रहे है। छठवीं अनुसूची में देखे तो कहा गया है कि आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के अधिकारों का प्रावधान है। आज उन्हें वह अधिकार नहीं मिल रहा है। आज तो आदिवासियों को खत्म कर उनकी जल, जमीन और जंगल पर कब्जा की कोशिश हो रही है। उद्योग के नाम पर साम्राज्यवाद फैल रहा है। यहीं कारण है कि वामपंथी विचारधारा जेएनयू और जादवपुर जैसे विश्वविद्यालयों में फैल रही है। 

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