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भारत में जनसंख्या में निरंतर बढ़ोतरी के लिए बहुसांस्कृतिक पक्ष एक महत्वपूर्ण पहलू

भारत में पिछले लंबे समय से जनसंख्या नीति से संबंधित बहस जारी है। हाल ही में विश्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर जारी संयुक्त राष्ट्र की जनसंख्या संबंधी रिपोर्ट के बाद एक बार फिर से यह मसला चर्चा में है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sat, 16 Jul 2022 10:30 AM (IST)
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भारत में जनसंख्या में निरंतर बढ़ोतरी के लिए बहुसांस्कृतिक पक्ष एक महत्वपूर्ण पहलू है। फाइल
शिखा गौतम। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जनसंख्या रिपोर्ट जारी करने के बाद से भारत में जहां एक पक्ष जनसंख्या वृद्धि की गंभीरता को समझते हुए इसे रोकने के लिए कड़े कानून बनाने की नीतियों का समर्थन कर रहा है, वहीं दूसरा पक्ष इस रिपोर्ट के दूसरे पहलू को उभारने का प्रयास कर रहा है जिसमें भारत की जननांकीय दर में लगातार गिरावट आना बताया गया है।

इसी संदर्भ में गत वर्ष उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा क्षेत्रीय स्तर पर जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए राज्य की जनसंख्या नीति का प्रारूप प्रस्तुत किया गया, ताकि महिलाओं में प्रजनन दर को वर्तमान 2.7 से कम करते हुए वर्ष 2026 तक 2.1 और 2030 तक 1.9 पर लाया जा सके। इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार कार्यरत है जिसके अंतर्गत जनसंख्या नियोजन के साथ ही जनसंख्या में लैंगिक और सांस्कृतिक/ धार्मिक असमानता को कम करने पर भी बल दिया जा रहा है। इसी तर्ज पर भारत के अन्य राज्यों में भी जनसंख्या को लेकर नीतिगत व्यवस्थाएं प्रस्तवित की गईं। संबंधित बहस के विभिन्न आधारों को देखें तो पता चलता है कि जहां एक ओर कुछ नेता एक सुनियोजित व्यवस्था के तहत आबादी के विस्तार को सीमित करने के लिए कार्यरत हैं, वहीं असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ अन्य नेता तुष्टीकरण की नीति के चलते भारत में जनसंख्या विस्फोट और उसके सामाजिक-आर्थिक परिणामों की अनदेखी करने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं।

विकासशील देशों में भारत ऐसा पहला राष्ट्र था जिसने जनसंख्या नीति को राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बनाया। उल्लेखनीय है कि पहली जनसंख्या नीति इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दौरान 1976 में लाई गई थी। चूंकि यह नीति जबरन आबादी नियंत्रण पर आधारित थी, लिहाजा इस नीति का जनता ने विरोध भी किया। इस संदर्भ में वर्ष 2000 में दूसरी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति लाई गई जिसके अंतर्गत सतत आर्थिक एवं सामाजिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भारत की कुल प्रजनन दर को कम करने की दिशा में राष्ट्रीय नीति का निर्माण किया गया। इसने मूल रूप से महिलाओं में प्रजनन को लेकर जागरूकता कायम करने समेत सभी तक शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध कराने पर बल दिया। हालांकि नियोजन के इन प्रयासों के बावजूद प्रजनन दर को स्थिर करने के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका।

आबादी नियंत्रण से संबंधित जारी राजनीतिक बहस से इतर इसके सामाजिक, क्षेत्रीय और धार्मिक पहलुओं को देखें तो पता चलता है कि क्षेत्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और राजस्थान सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य हैं। इनमें से कुछ ही राज्यों में लैंगिक असमानता का स्तर भी काफी ज्यादा है, जिनके कारणों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि गरीबी, अशिक्षा, परिवार नियोजन के बारे में जानकारी का अभाव और घटती मृत्यु दर इसके कुछ प्रमुख कारकों में हैं। साथ ही भारत में महिलाओं की प्रजनन क्षमता दर को देखें तो पता चलता है कि वर्ष 1951 से 2011 के बीच भारत में हंिदूुओं की जनसंख्या में उत्तरोत्तर कमी आई है जो 1951 में 84.1 प्रतिशत से 2011 में 79.8 प्रतिशत तक पहुंच गई है। वहीं दूसरी ओर भारतीय मुस्लिमों की जनसंख्या में 1951 के बाद से लगातार वृद्धि देखी जा सकती है, जो फिलहाल देश की जनसंख्या का 14.2 प्रतिशत है।

जनसंख्या में धार्मिक असमानता राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत व्यवस्थाओं को भी प्रभावित करती है और इसमें होने वाली असमानता के परिणाम के तौर पर म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों के उदाहरण को देखा जा सकता है। इस संदर्भ में हाल ही में झारखंड के गढ़वा जिले में इस्लामिक चरमपंथियों के द्वारा विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को उनकी दैनिक प्रार्थना करने से रोका गया एवं शरिया और इस्लामिक कानून को थोपने की कोशिश की गई। राज्य सरकार के हस्तक्षेप के बाद यहां फिर से पुरानी व्यवस्था बहाल की गई और स्कूल में पहले की तरह हाथ जोड़कर प्रार्थना करने की प्रक्रिया आरंभ हुई।

जनसंख्या के धार्मिक आधार पर असमानता को लेकर न केवल भारत, बल्कि यूरोप और विश्व के अन्य देशों में भी चिंता कायम है। इस संदर्भ में ब्रिटेन के ‘स्काई न्यूज’ द्वारा किए गए एक सर्वे में तब्लिगी जमात द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों के बारे में बताया गया जहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों को बाहर के लोगों से मिलने की मनाही के साथ ही विशेष इस्लामिक ड्रेस कोड और व्यवहार का पालन करना अनिवार्य है। इन विद्यालयों में ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्धारित शिक्षा के मापदंडों का भी पालन नहीं किया जाता और शिक्षा का प्रमुख आधार इस्लाम है। गौरतलब है कि ये विद्यालय ब्रिटिश सरकार से भी अनुदान प्राप्त करते हैं। पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने पद पर रहते हुए आतंकवाद विरोधी भाषण में इस तरह के विद्यालयों की आलोचना की थी और आतंकवाद निरोधी अधिनियम के तहत कट्टर विचारों वाले विद्यालयों एवं संस्थानों को प्रतिबंधित करने की बात भी कही थी।

भारत में जनसंख्या का दबाव इस समय अपने गंभीर स्तर पर पहुंच चुका है जो आगे चलकर बेरोजगारी, गरीबी और खाद्य संकट जैसी समस्याओं के लिए उत्तरदायी होगा। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जनसंख्या के आंकड़ों को लेकर जारी की गई रिपोर्ट और भारत में संभावित जनसंख्या वृद्धि को कई स्तरों पर समझने और उस पर कार्य करने की आवश्यकता है। सामाजिक तौर पर जहां जागरूकता की जरूरत है, वहीं नीतिगत व्यवस्थाएं भी जरूरी हैं। इसके साथ ही बहुसांस्कृतिक देश होने के नाते विभिन्न संस्कृतियों/ धर्मो में जनसंख्या के वृद्धि के कारकों को समझना और उन्हें संस्थागत तरीकों से नियंत्रित करने का प्रयास किया जाना भी आवश्यक है।

[दत्ताेपंत ठेंगडी फाउंडेशन से संबद्ध]