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तीन नए कानूनों पर बोले प्रो.संजीव कुमार- भारतीयकरण और आधुनिकीकरण से अमृतकाल में शीघ्र प्रवेश करेगा न्याय विधान

प्रो.संजीव कुमार शर्मा बता रहे हैं कि इस भारतीयकरण और आधुनिकीकरण से शीघ्र ही हमारा न्याय विधान भी अपने अमृतकाल में प्रवेश करेगा। मानव सभ्यता के उषा काल से ही मनुष्यों के मध्य अंतर्संबंधों सीमाओं मर्यादाओं तथा व्यवस्थाओं के निर्माण के लिए सामूहिक सहमति आधारित प्रविधान किए जाते रहे हैं। प्रशासनिक रूप से ‘राज्य’ नामक संस्था के उदय और विकास ने मनुष्यों के मध्य आपसी व्यवहार के नियम बनाए।

By Jagran News Edited By: Shubhrangi Goyal Updated: Sun, 07 Jul 2024 01:40 PM (IST)
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प्रो.संजीव कुमार शर्मा, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिहार के पूर्व कुलपति (फोटो-सोशल मीडिया

नागरिक सुरक्षा, संवेदनशीलता और सरलीकरण का आदर्श उदाहरण हैं नई विधिक संहिताएं। भारतीयनागरिकों के अधिकारों की रक्षा में सुगमता और न्यायिक प्रक्रिया को सुचारु बनाने के लिए आए ये तीन परिवर्तन जनजीवन को बेहतर करने का प्रयास हैं। प्रो.संजीव कुमार शर्मा बता रहे हैं कि इस भारतीयकरण और आधुनिकीकरण से शीघ्र ही हमारा न्याय विधान भी अपने अमृतकाल में प्रवेश करेगा। मानव सभ्यता के उषा काल से ही मनुष्यों के मध्य अंतर्संबंधों, सीमाओं, मर्यादाओं तथा व्यवस्थाओं के निर्माण के लिए सामूहिक सहमति आधारित प्रविधान किए जाते रहे हैं। विश्वभर में मनुष्यों के समूहों ने अपनी उपासना पद्धतियों को विशिष्ट तथा पृथक बनाने के लिए रिलीजन अथवा मजहब का सृजन किया।

प्रशासनिक रूप से ‘राज्य’ नामक संस्था के उदय और विकास ने मनुष्यों के मध्य आपसी व्यवहार के नियम बनाए, जिन्हें कानून कहा गया। भारतवर्ष ने विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के रूप में मनुष्यों के मध्य सभी प्रकार के व्यवहार की मर्यादाएं सुनिश्चित करने के लिए ‘धर्म’ नामक अभिधान दिया, जो धारण करने योग्य दायित्व, सत्यनिष्ठा, सदाचरण, कर्तव्यपरायणता आदि तत्वों से संयुक्त रहा। इसीलिए महाभारत में वर्णित है कि एक समय न राजा था, न दंड था, न दांडिक था। समस्त प्रजाजन धर्मयुक्त आचरण द्वारा ही परस्पर रक्षा करते थे। कालांतर में राजत्व की सृष्टि हुई। राज्य और उसके सप्तांग प्रकाशित हुए तथा विधि का प्राकट्य हुआ।

आक्रांताओं का कुटिल अंकुश

दुर्भाग्यवश अनेकानेक तथा अनवरत विदेशी व विधर्मी आक्रांताओं ने भारतीय सांस्कृतिक ज्ञान -परंपरा को पददलित किया और आर्थिक समृद्धि को लूटा व नष्ट किया। इससे भारतीय समाज का आंतरिक नियामकतो धर्म बना रहा, परंतु बाह्य सामूहिक आचरण को निर्धारित करने के लिए तत्कालीन शासकों के कानून सामने आते गए। अंग्रेजों ने भारत पर कुटिलता तथा क्रूर हिंसा के बल पर अधिकार करने के बाद क्रमशः अपने कानून लाद दिए, जिनमें बर्बरता और दुर्भावना व्याप्त थी। राष्ट्रीय आंदोलन में इन कानूनों में आंशिक परिमार्जन भी किए गए। नौ दिसंबर,1946 को भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक के बाद भारत पुनः अपनी बनाई विधि व्यवस्था की ओर बढ़ने लगा। हमने विश्वभर के संविधानों से श्रेष्ठ तत्व ग्रहण करते हुए विश्व का विशालतम संविधान निर्मित किया। संयोग है कि भारतीय संविधान भी शीघ्र ही अपने अमृतकाल में प्रवेश करेगा।

डगमगा रहा था विश्वास

यह विडंबना ही कही जाएगी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष तक हमारी न्यायिक प्रणाली और आपराधिक न्याय एवं दंड व्यवस्था अंग्रेजों के आधिपत्य की अवधि में बनाए गए औपनिवेशिक कानूनों पर ही आधृत रही। इंडियन पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, इंडियन एवीडेंस एक्ट के आधार पर हमारी न्यायपालिका चलती रही जिनके अनेक प्रविधान औपनिवेशिक मानसिकता से भरपूर थे। हमारे न्यायालयों में ‘तारीख-पे- तारीख’ एक बदनाम मुहावरा बन गया। दीवानी मामलों में –‘दीवानी दीवाना बना देती है’- की लोकोक्तियां गढ़ी गईं। जेलों में दोषसिद्धि के बिना अभियुक्तों के वर्षों तक सड़ना आम बात हो गया। विद्यमान समय में हमारी न्यायिक संस्थाओं में लंबित वादों की संख्या पांच करोड़ पार कर गई है। आपराधिक मामलों में भी दो-तीन दशक तक निर्णय न होना सहज घटना माना जाने लगा। अनेक स्थानों पर न्यायपालिका पर भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोप भी लगने लगे। इस परिदृश्य में भारतीय जनमानस का न्यायिक प्रक्रिया और न्यायपालिका पर विश्वास डगमगाने लगा।

पीठ से उतरा बेताल

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान भारत सरकार ने अत्यंत प्रशंसनीय कार्य करते हुए अंग्रेजी कानूनों के बेताल को भारतीय न्यायिक प्रक्रिया के विक्रम की पीठ से उतारने का साहसिक प्रयास किया है। वैदिक परंपरा की संहिता से संबद्ध करते हुए एक जुलाई से तीन नई विधि संहिताओं का प्रवृत्त होना आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की युगांतरकारी घटना है। गत वर्ष दिसंबर में इन नई विधियों को राष्ट्रपति की अनुज्ञा प्राप्त हुई थी। ‘भारतीय न्याय संहिता 2023’ अब भारत गणराज्य की अधिकारिक दंड संहिता है जिसे भारतीय दंड संहिता 1860 (इंडियन पीनल कोड) के स्थान पर प्रतिस्थापित किया गया है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 (इंडियन एविडेंस एक्ट) के स्थान पर ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023’ लागू किया गया है।

साथ ही भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (कोड्स आफ क्रिमिनल प्रोसीजर) के स्थान पर ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023’ को लागू किया गया है। सशक्त, सरल एवं संवेदनशील भारतवर्ष की संपूर्ण न्यायप्रणाली तथा न्यायिक संरचनाएं इन तीन विधियों के प्रवृत्त होने से प्रभावित होंगी। प्रथमतः तो इन संहिताओं का नामकरण ही बहुत रोचक व आकर्षक है। दंड के स्थान पर न्याय, आपराधिक प्रक्रिया के स्थान पर नागरिक सुरक्षा आदि का प्रयोग अधिक संवेदनशील है। द्वितीय, इन संहिताओं में विधिक प्रविधानों की जटिलताओं का निराकरण कर उन्हें अधिक सरलीकृत किया गया है। नई विधियों में प्रविधानों और धाराओं की संख्या में भी कमी की गई है। आतंकवाद, क्रूरता, छोटे संगठित अपराध आदि की सटीक तथा संशोधित परिभाषा की गई है। मानसिक बीमारी को मन की अस्वस्थता और बौद्धिक अक्षमता से बदलना भी संवेदनशीलता का परिचायक है।

भीड़ द्वारा हत्या के लिए न्यूनतम सजा में वृद्धि की गई है। छोटे अपराधों के लिए अधिक सुधारात्मक दृष्टिकोण को अपनाते हुए सामुदायिक सेवा को पुनः परिभाषित किया गया है। संचार तकनीक तथा सूचना प्रौद्योगिकी को न्यायिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण, प्रामाणिक तथा विश्वसनीय अंग बनाने के ठोस प्रयास करते हुए दृश्य-श्रव्य माध्यमों से साक्ष्य रिकार्ड करने के समुचित प्रविधान किए गए है। इसके अतिरिक्त इलेक्ट्रानिक साक्ष्य की स्वीकार्यता एवं विधिक प्रभाव कागजी रिकार्ड के समान किया गया है। विधिक प्रक्रिया में दक्षता, पारदर्शिता और निष्पक्षता लाने के लिए अनेक व्यवस्थाएं की गई हैं जिससे भारतीय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में सुगमता हो सके और न्यायिक प्रक्रिया को सुचारू बनाया जा सके। नागरिक सुरक्षा संहिता के माध्यम से आपराधिक न्याय प्रणाली को सशक्त, आधुनिक एवं वैज्ञानिक बनाने, विधि प्रक्रियाओं में तकनीक, प्रौद्योगिकी, फारेंसिक की सहायता

से जांच की गुणवत्ता में अभिवृद्धि करने और विभिन्न प्रक्रियाओं में जांच, आरोपपत्र, दंड निर्धारण एवं निर्णय के लिए समय सीमा निर्धारित करने के लिए ठोस प्रयास किए गए है।

राजद्रोह को पुनर्परिभाषितकरते हुए देशद्रोह से प्रतिस्थापित किया गया है। भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को प्रभावित करते हुए अलगाव, पृथक्करण, सशस्त्र विद्रोह अथवा विध्वंसक क्रियाकलापों को पृथकतः दंडनीय बनाया गया है। पारदर्शी व उत्तरदायी यहां यह भी ध्यातव्य है कि भारतीय दंड संहिता 1860 के क्वीन, सरकार का सेवक, ब्रिटिश इंडिया,गवर्नमेंट आफ इंडिया, कारावास के बदले निर्वासन, ठग, आत्महत्या करने का प्रयत्न, जारकर्म आदि को निरसित कर दिया गया है।

लिंग की परिभाषा में ट्रांसजेंडर को सम्मिलित किया गया है। प्राथमिकी ईमेल के माध्यम से दर्ज कराने, वादी को जांच की प्रगति की ईमेल, एसएमएस आदि के माध्यम से नियमित रूप से अवगत कराने, शिकायत, समन और गवाही में इलेक्ट्रानिक माध्यमों के उपयोग पर अधिक बल देने से निश्चय ही विधिक प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनेगी। पुलिसकर्मियों व जांच अधिकारियों को भी इन तकनीकों के उपयोग से सहायता मिलेगी और समय की बचत होगी। न्यायालय द्वारा निर्धारित अवधि में निर्णय पारित एवं घोषित करने की समयसीमा के निश्चयन से तारीख-पे-तारीख इतिहास बन जाएगी। प्रारंभिक जांच और आरोपपत्र न्यायालय में प्रस्तुत करने की समयसीमा से भी विवादों के निपटारे में सरलता होगी। दया याचिका पर भी समयसीमा तय कर देने से विभिन्न प्रकरणों के सर्वोच्च न्यायालय से अंतिम निर्णय के बाद भी राजनीतिक कारणों से महीनों-वर्षों तक दंड न दिए जाने की दुष्प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। एफआइआर दर्ज कराने के लिए पुलिस थानों के क्षेत्राधिकार के नाम पर भटकाना अब आसान नहीं होगा और पीड़ित पक्ष को सिफारिश, दबाव अथवा धन के उपयोग की कोई आवश्यकता नहीं होगी। जांच अधिकारी द्वारा तलाशी और जब्ती के समय आडियो और वीडियो रिकार्डिंग अनिवार्य किए जाने से तथ्योंतथा साक्ष्यों के साथ छेडछाड़ में कमी आएगी। साक्षी के लिए आडियो व वीडियों से बयान रिकार्ड कराने का विकल्प दिया गया है। वस्तुतः इन नई संहिताओं के माध्यम से समस्त न्यायिक प्रक्रिया के भारतीयकरण का श्रीगणेश हुआ है।सही समय है कि पुलिस, परिवहन, सोसायटीज, आदि से संबंधित ब्रिटिश कालीन कानूनों का भी भारतीयकरण और आधुनिकीकरण त्वरित गति से कर दिया जाए।

(लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार के पूर्व कुलपति हैं)