भारतीय इतिहास में संपूर्ण पुनर्जागरण के अग्रदूत के रूप में सदैव याद किए जाएंगे राजा राममोहन राय
सती प्रथा उन्मूलन हो अथवा आधळ्निक शिक्षा का प्रचार-प्रसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन हो या मतांतरण के विरुद्ध सामाजिक एकीकरण राजा राममोहन राय भारतीय इतिहास में संपूर्ण पुनर्जागरण के अग्रदूत के रूप में सदैव याद किए जाएंगे।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sun, 22 May 2022 09:08 AM (IST)
मनोज कुमार राय। भारतीय इतिहास के विकास पथ में जिस तरह अनेकश: अंधकार युग की बेला का आगमन होता रहा है, ठीक वैसे ही भारतीय मनीषा इन चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी आत्मिक-बौद्धिक धरोहर को पुन: परिभाषित और पुनव्र्यवस्थित कर नवोन्मेष के साथ मुकाबला भी करती रही है। 18वीं सदी से पूर्व वैष्णव आंदोलन और भक्ति आंदोलन एक प्रकार का मानववादी आंदोलन ही था। राजनीतिक दासता की मजबूरी थी कि यह केवल पंख फड़फड़ाकर ही रह गया। जिस तरह की धरती, आकाश और परिवेश उसे चाहिए था, वह उसे उस समय नहीं मिल सका था, लेकिन 19वीं सदी आते-आते परिस्थितियां बदल चुकी थीं। भारतीय आकाश पर अनेक पंछी मुक्तउड़ान भरने के लिए तैयार थे। बंगाल के क्षितिज पर बौद्धिक शक्तियों के आगमन और टकराहट की संभावना अब स्पष्ट दिख रही थी।
स्वजनों के विरोध से दबा भिक्षु मनराजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को एक संपन्न किंतु परंपरावादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जो धार्मिक कर्तव्यों का सख्ती से पालन करने का आग्रही था। उस समय की प्रचलित परंपराओं के चलते कम उम्र में ही उनकी शादी भी कर दी गई। 14 साल की ही उम्र में राममोहन ने भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की। मां के जोरदार विरोध के कारण इस विचार को उन्होंने छोड़ दिया, लेकिन एक गृहस्थ में संन्यास की लौ तो लग ही चुकी थी। राममोहन के पिता चाहते थे कि उनका बेटा उच्च शिक्षा प्राप्त करे। इसके लिए उन्होंने हरसंभव व्यवस्था भी की। परिणाम यह हुआ कि राममोहन संस्कृत-अरबी-फारसी के अतिरिक्त हिब्रू-लैटिन-ग्रीक, अंग्रेजी तथा फ्रेंच के अच्छे जानकार हो गए थे। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन से बहुत पूर्व तिब्बत की यात्रा करके लामाओं से बौद्ध धर्म की जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। जीवन के दो दशक पूरा होते-होते वे उपनिषद के साथ-साथ पाश्चात्य दार्शनिकों की रचनाओं से भी परिचित हो गए, जिससे उनकी आध्यात्मिक और तार्किक विवेक की निर्मिति हुई। शिक्षा पूरी करने के बाद राममोहन ने ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के रूप में प्रवेश किया। उनकी असाधारण प्रतिभा को देखकर दीवान के रूप में पदोन्नति दी गई।
घर से शुरू हुआ आंदोलन18वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल का समाज कई तरह के बुरे रीति-रिवाजों और विनियमों के बोझ तले दब गया था। अनुष्ठानों और सख्त नैतिक संहिताओं के मकड़जाल में समाज बुरी तरह फंस चुका था। प्राचीन परंपराओं की मनमानी व्याख्या की जा रही थी। धर्म के नाम पर विधि-निषेध की मानसिकता को प्रतिष्ठित करने वालों का बोलबाला था। फलस्वरूप बाल विवाह, बहुविवाह और सती जैसी प्रथाएं समाज में अपना स्थान बना चुकी थीं। इन रीति-रिवाजों में सबसे क्रूर सती प्रथा थी। इस प्रथा से राममोहन राय का सामना अपने घर में ही हुआ। तमाम कोशिशें करने के बावजूद भी वे अपने भाभी को नहीं बचा सके। इस घटना ने उनके मन में समाज में व्याप्त कुप्रथाओं के प्रति वितृष्णा को पैदा कर दिया। उनका तार्किक मन इसका हल तलाश करने के लिए बेचैन हो उठा। 1814-15 में उन्होंने सुधारवादी आदर्शों से प्रेरित होकर ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की एवं सती प्रथा, वर्ण व्यवस्था, मूर्तिपूजा आदि को हटाकर ब्रह्मवादी दृष्टि की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए उपनिषदों की बांग्ला व्याख्या प्रस्तुत की। यहां तक कि जहां कहीं भी सती होने की खबर मिलती थी, वे वहां उस महिला की जान बचाने के लिए दौड़े चले जाते थे।
जलाया शिक्षा का दीपकयह काम आसान नहीं था। अपने अध्ययन-चिंतन से राममोहन समाज के भीतर गहरी पैठ बना चुकी कुरीतियों की जड़ता से वाकिफ थे। वे समझ चुके थे कि इस पर चौतरफा हमला जरूरी है। उनकी दृष्टि में इससे मुकाबले के लिए सर्वप्रथम आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार जरूरी था। इस प्रकार उन्होंने अपना ध्यान शैक्षिक सुधार की ओर केंद्रित किया। वैज्ञानिक और तर्कसंगत शिक्षा की कमी को दूर करने के लिए उन्होंने देश में गणित, भौतिकी, रसायन विज्ञान और वनस्पति शास्त्र जैसे विषयों को पढ़ाने वाली अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत करने को लेकर वकालत की। 1817 में डेविड हरे के साथ हिंदू कालेज की स्थापना करके भारत में शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया, जो बाद में भारत में कुछ बेहतरीन मस्तिष्क पैदा करने वाले देश के सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों में से एक बन गया। कुछ समय बाद उन्होंने वर्ष 1822 में एंग्लो-वैदिक स्कूल की भी स्थापना की।
सत्य के मुखर प्रवक्ताराममोहन राय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक थे। वर्नाक्यूलर प्रेस के अधिकारों के लिए उनके द्वारा छेड़ी गई लड़ाई प्रेस की स्वतंत्रता के लिए मील का पत्थर है। उन्होंने फारसी में ‘मिरात-उल-अखबार’ नामक समाचार पत्र और ‘संवाद कौमुदी’ नामक बंगाली साप्ताहिक भी निकाला। उन दिनों समाचारों और लेखों को प्रकाशित करने से पहले सरकार द्वारा अनुमोदित किया जाना जरूरी था। राममोहन ने इस नियंत्रण का विरोध करते हुए तर्क दिया कि समाचार पत्रों को स्वतंत्र होना चाहिए और सच्चाई को केवल इसलिए दबाया नहीं जाना चाहिए क्योंकि सरकार को यह पसंद नहीं था।
ब्रह्मसमाज का मोतीराममोहन राय अपने परिवेश को लेकर अत्यंत सजग थे। जब उन्होने देखा कि डिरोजियों के यंग बंगाल आंदोलन की उच्छृंखलता और ईसाई मिशनरियों का कुप्रचार शीघ्रता से समाज में अपनी पैठ बना रहा है तो उन्होंने एक महती सभा की आवश्यकता समझी और ‘आत्मीय समाज’ भंग करके वर्ष 1828 में वृहद दायरे में ‘ब्रह्मसमाज’ की स्थापना की। इसमें अन्य लोगों के साथ इन्हें राजा द्वारकानाथ टैगोर तथा महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर का सहयोग प्राप्त था जो क्रमश: कवींद्र रवींद्र के पितामह और पिता थे। राजा राममोहन राय द्वारा चलाए गए ब्रह्मसमाज की देन अभूतपूर्व है। राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारंभिक रूप, प्रजातंत्र एवं संविधान के आदर्शों की आधारशिला की पृष्ठभूमि इसी ब्रह्मसमाज ने तैयार की थी। इसने अपनी तत्कालीन मर्यादा में समाज व्यवस्था, राजनीति, साहित्य, धर्म अर्थात जीवन के प्रत्येक अंग पर पुनर्विचार किया। आधुनिक भारत की रचना इसी वर्ग ने की है। सनातन जागरण का कार्य संपन्न कर हिंदू समाज में विलीन हो जाना ब्रह्मसमाज की सबसे बड़ी सफलता और सिद्धि है। विश्व इतिहास में ऐसे संपूर्ण पुनर्जागरण का उदाहरण कम मिलता है। हम इस ‘संपूर्ण पुनर्जागरण’ के उत्तराधिकारी हैं। आज यह आवश्यक है कि हम राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित मूल्यों को ठीक से समझें और हृदयंगम करें।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्राध्यापक हैं)