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Raja Ram Mohan Roy Death Anniversary: आधुनिक भारत के जनक माने जाते हैं राजाराम मोहन राय, आज है पुण्यतिथि

Raja Ram Mohan Roy Death Anniversary आधुनिक भारत के जनक कहे जाते हैं। उन्होंने महिला-पुरुषों में बराबरी के दर्जे के लिए तमाम तरह के काम किए।

By Vinay TiwariEdited By: Updated: Fri, 27 Sep 2019 09:15 AM (IST)
Raja Ram Mohan Roy Death Anniversary: आधुनिक भारत के जनक माने जाते हैं राजाराम मोहन राय, आज है पुण्यतिथि
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। Raja Ram Mohan Roy Death Anniversary राजाराम मोहन राय को आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। आज उनकी पुण्यतिथि है। इस मौके पर उनकी ओर से देश के लिए कामों को याद न किया जाए तो ये ज्यादती होगी। राजाराम मोहन राय एकेश्वरवाद के एक सशक्त समर्थक थे। उन्होंने रूढ़िवादी हिंदू अनुष्ठानों और मूर्ति पूजा को बचपन से ही त्याग दिया था। जबकि उनके पिता रामकंटो रॉय एक कट्टर हिंदू ब्राह्मण थे।

छोटी उम्र में ही राजा राम मोहन का अपने पिता से धर्म के नाम पर मतभेद होने लगा। ऐसे में कम उम्र में ही वे घर त्याग कर हिमालय और तिब्बत की यात्रा पर चले गए। जब वे वापस लौटे तो उनके माता-पिता ने उनमें बदलाव लाने के लिए उनका विवाह करा दिया। फिर भी राजा राम मोहन रॉय ने धर्म के नाम पर पाखंड को उजागर करने के लिए हिंदू धर्म की गहराईयों का अध्ययन करना जारी रखा।

जीवन परिचय

राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई 1772 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के राधानगर गांव में हुआ था। 27 सितंबर 1833 में उनकी मृत्यु हो गई थी। मात्र 15 साल की आयु तक उन्हें बंगाली, संस्कृत, अरबी तथा फारसी का ज्ञान हो गया था। किशोरावस्था में उन्होंने काफी भ्रमण किया। उन्होंने 1809-1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भी काम किया। उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की तथा विदेश (इंग्लैण्ड तथा फ़्रांस) भ्रमण भी किया। उन्होंने उपनिषद और वेद को गहराई से पढ़ा।

इसके बाद उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘तुहपत अल-मुवाहिद्दीन’ लिखा जिसमें उन्होंने धर्म की वकालत की और उसके रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों का विरोध किया। वर्तमान समय में भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा नहीं मिल पाया है और आज भी वे इसके लिए लगातार संघर्ष कर रही है। लेकिन लगभग 200 साल पहले, जब "सती प्रथा" जैसी बुराइयों ने समाज को जकड़ रखा था तब राजा राम मोहन रॉय जैसे सामाजिक सुधारकों ने समाज में बदलाव लाने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने "सती प्रथा" का विरोध किया, जिसमें एक विधवा को अपने पति की चिता के साथ जल जाने के लिए मजबूर करता था। उन्होंने महिलाओं के लिए पुरूषों के समान अधिकारों के लिए प्रचार किया। जिसमें उन्होंने पुनर्विवाह का अधिकार और संपत्ति रखने का अधिकार की भी वकालत की।

ब्रह्म समाज की स्थापना की

राजाराम मोहन राय ने 1828 में "ब्रह्म समाज" की स्थापना की, जिसे भारतीय सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों में से एक माना जाता है। उनको भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की। उनके आन्दोलनों ने जहां पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया।

दूरदर्शी और वैचारिक

राजा राममोहन राय की दूर‍दर्शिता और वैचारिकता के सैकड़ों उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। हिन्दी के प्रति उनका अगाध स्नेह था। वे रू‍ढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे लेकिन संस्कार, परंपरा और राष्ट्र गौरव उनके दिल के करीब थे। वे स्वतंत्रता चाहते थे लेकिन चाहते थे कि इस देश के नागरिक उसकी कीमत पहचानें।

कंपनी की नौकरी छोड़कर राष्ट्र सेवा में लग गए

राममोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर अपने आपको राष्ट्र सेवा में झोंक दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा वे दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। राजा राममोहन राय ने उन्हें झकझोरने का काम किया। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया। धर्म प्रचार के क्षेत्र में अलेक्जेंडर डफ्फ ने उनकी काफी सहायता की। देवेंद्र नाथ टैगोर उनके सबसे प्रमुख अनुयायी थे। आधुनिक भारत के निर्माता, सबसे बड़ी सामाजिक - धार्मिक सुधार आंदोलनों के संस्थापक, ब्रह्म समाज, राजाराम मोहन राय सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

पत्रकारिता

राजा राममोहन राय ने 'ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन', 'संवाद कौमुदी', मिरात-उल-अखबार ,(एकेश्वरवाद का उपहार) बंगदूत जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। बंगदूत एक अनोखा पत्र था। इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था।