सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मिली राहत
एक हकीकत यह भी है कि वोट की राजनीति ने आरक्षण को एक संवेदनशील मुद्दा बना दिया है। इसके खिलाफ बात करना आग से खेलने के बराबर हो गया है। हालांकि अच्छा तो यह रहता कि सभी राजनीतिक दल मिल बैठकर आरक्षण की समीक्षा करते।
By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Fri, 25 Nov 2022 01:38 PM (IST)
डा. सुशील कुमार सिंह। कांग्रेस की नेता जया ठाकुर ने सुप्रीम कोर्ट का रुख कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण बरकरार रखने वाले उसके फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है। अब देखना है कि शीर्ष अदालत इस पर क्या रुख अपनाती है। गौरतलब है कि गत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिले में 10 प्रतिशत आरक्षण देने के मोदी सरकार के निर्णय पर मुहर लगा दी थी।
आर्थिक आरक्षण के इस प्रविधान में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) एवं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) शामिल नहीं हैं। हालांकि संविधान में इनके लिए पहले से ही आरक्षण का प्रविधान किया गया है। इन दोनों में अंतर यह है कि एससी, एसटी और ओबीसी के लिए सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ापन के कारण यह सुविधा मिली हुई है। ओबीसी को 27 प्रतिशत, एसटी को 7.5 प्रतिशत और एससी को 15 प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान किया गया है।
बशर्ते कि वे अन्य वर्गों के मुताबिक उक्त मामले में पिछड़े हैं अर्थात क्रीमी लेयर में नहीं हैं। अब सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आर्थिक आरक्षण भी इसमें जुड़ गया है। 14 जनवरी, 2019 को संविधान के 103वें संशोधन के जरिये देश में इसे लागू किया गया था। हालांकि वर्ष 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार जब आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव को लेकर आगे बढ़ना चाह राह थी तब शीर्ष अदालत ने उसे खारिज किया था।
वर्ष 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष अदालत ने आरक्षण को लेकर एक लक्ष्मण रेखा खींची थी। तब उसने जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की थी। साथ ही यह बात कही थी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना संविधान में उल्लेखित समता के मूल अधिकार का उल्लंघन है। संविधान के अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण का प्रविधान समुदाय के लिए है, न कि व्यक्ति के लिए। अब सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट कर दिया है कि गरीब सवर्णों के लिए आर्थिक आरक्षण की यह व्यवस्था सही है। केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे और समता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
देखा जाए तो शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद वर्ग विशेष में जो अनिश्चितता व्याप्त थी वह भी दूर हो गई है। इसी के साथ राजनीतिक हलकों में सियासत भी नया रूप लेने लगी है। विरोध वाला सुर यह है कि आरक्षण के प्रविधान का अर्थ सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करना है, न कि आर्थिक विषमता का समाधान करना है। अपने पूर्व के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि संविधान में आरक्षण सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने के इरादे से रखा गया है। लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के रूप में नहीं किया जा सकता।
अब उसके हालिया फैसले में इसका एक दूसरा पहलू सामने आया है। वह यह कि आर्थिक मापदंडों के आधार पर आरक्षण प्रदान करना समाज को एकीकृत करने की दिशा में एक कदम भी है, ताकि हाशिये पर खड़े लोगों को फिर से मुख्यधारा में लाया जा सके। चूंकि समतामूलक दृष्टिकोण के बगैर भारत मजबूत नहीं होगा। आरक्षण इसमें सहायक प्रतीत होता है। अब तो देश में यह मान्यता हो गई है कि इससे ही प्रगति का रास्ता खुलेगा।
एक हकीकत यह भी है कि वोट की राजनीति ने आरक्षण को एक संवेदनशील मुद्दा बना दिया है। इसके खिलाफ बात करना आग से खेलने के बराबर हो गया है। हालांकि अच्छा तो यह रहता कि सभी राजनीतिक दल मिल बैठकर आरक्षण की समीक्षा करते। इसकी कमियों को दूर कर आज के हिसाब से इसे रूप देते। अब आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण देना पड़ रहा है तो इसके पीछे सरकारों की नीतियां दोषी हैं। सरकारों से उम्मीद की गई थी कि वे ऐसी नीतियां और योजनाएं बनाएंगी जिनसे विकास की गंगा बहेगी।
सभी वर्ग समान रूप से उनका लाभ उठाकर बिना आरक्षण के ही प्रगति पथ पर आगे बढ़ेंगे। बजाय इसके जो सवर्ण आर्थिक रूप से स्वयं को सबल बनाने में पहले से ही सक्षम रहे उन्हें भी अब आरक्षण देना पड़ रहा है। कुल मिलाकर आर्थिक रूप से दिया जाने वाला आरक्षण सामाजिक-आर्थिक असमानता खत्म करने के लिए है, मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि यह अनंतकाल तक रहना चाहिए। इसे आर्थिक रूप से कमजोर तबके को मदद पहुंचाने के रूप में देखा जाना चाहिए। ऐसे में इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता।[विशेषज्ञ, लोक प्रशासन]