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Sarhul 2019: सूर्य और धरती के विवाह का पर्व है ये, प्रकृति की उपासना का अनोखा त्योहार

Sarhul 2019. झारखंड में सोमवार को आदिवासी समुदाय नव वर्ष उत्सव के रूप में प्रकृति पर्व सरहुल धूमधाम से मना रहा है।

By Alok ShahiEdited By: Updated: Mon, 08 Apr 2019 10:28 AM (IST)
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Sarhul 2019: सूर्य और धरती के विवाह का पर्व है ये, प्रकृति की उपासना का अनोखा त्योहार
रांची, [जागरण स्‍पेशल]। सांझी बजत रहे झांझी, मांदर झांझी मांदर। टोले-टोला होवत रहे जदूरा झुमर। झारखंड में आज सरहुल है, प्रकृति पर्व। धरती की उर्वरता और पेड़-पौधे, नई फसल के सम्‍मान का पर्व। नाच-गान के साथ ढोल-मांदर और नगाड़े बजाकर मनाए जाने वाले इस त्‍योहर को झारखंड में रहने वालीं अधिकांश अ‍ादिवासी प्रजातियां लगभग एक जैसा ही मनाती हैं। चैत माह की तृतीया तिथि को मनाए जाने वाले इस पर्व में सदान समुदाय की विशेष सहभागिता रहती है। इस मौसम में पेड़ पौधों में नई कलियां और रंग बिरंगे फूल खिलते हैं। प्रकृति के इस अनमाेल उपहार की सरहुल में आदिवासी श्रद्धा से पूजा करते हैं। सरहुल को सूर्य और धरती के विवाह के रूप में भी देखा जाता है।

धरती और प्रकृति से बेहतर फसल व फल प्राप्ति का त्‍योहार है सरहुल
आदिवासियों की भाषा, संस्‍कृति और परंपराओं के अनुसार सरहुल फलत: धरती और प्रकृति से बेहतर फसल व फल प्राप्ति का त्‍योहार माना जाता है। आदिवासी मूलत: यह त्‍योहार मानव जीवन का प्रकृति के साथ जीवंत रिश्‍तों का पूरी ईमानदारी के साथ बरकरार रखने और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रहने के लिए सृष्टिकर्ता को याद करने के लिए ही मनाते हैं। सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार आदिवासी समुदाय के लोग साल फूल और नये पत्‍ते को भक्ति भाव से जंगल से लाकर घर के पूजा स्‍थल पर पवित्रता से रखते हैं।

सखुआ के साथ मुर्गे तपावन देकर पूजा की जाती है। इस पूजा के जरिये आदिवासी अपने पूर्वजों का स्‍मरण करते हैं। सभी देवी देवतताओं से नई पत्तियों और फूलों का गुच्‍छा, नए नए पकवान, फल फूल ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की जाती है। इसके बाद सरना स्‍थल पर इकट्ठा होकर आदिवासी सामूहिक पूजा करते हैं। सरहुल के बाद अगली फसल की बुआई प्रक्रिया भी शुरू कर दी जाती है।

सामूहिक पूजा के बाद मुर्गे-मुर्गियों की देते हैं बलि
जनजाति की कुडुख भाषा में सरहुल को खद्दी व खेखेल बेंजा धरती का विवाह भी कहते हैं। पतझड़ के बाद प्रकृति पुन: फल-फूल के लिए तैयार होती है। इसके लिए सरना स्‍थल पर अनुष्‍ठान होता है। फुटकल जैसे कई नव पल्‍लवित खाद्य फल-फूल सरहुल के पहले नहीं खाये जाते। घड़ों में पानी रखकर बारिश होने की संभावनाओं की भविष्‍यवाणी पहान द्वारा की जाती है। कहीं कहीं दो तो कहीं पांच मुर्गे-मुर्गियों की बलि दी जाती है।  

 

शोभायात्रा में उमड़ी भारी भीड़
राजधानी रांची में कई दशकों से सरहुल पर्व धूमधाम से मनाया जाता रहा है। आदिवासी समुदाय के नव वर्ष उत्सव के रूप में प्रकृति पर्व सरहुल की शोभायात्रा सोमवार को विभिन्न क्षेत्रों से निकाली जा रही है। लगभग पांच लाख आदिवासी रांची के विभिन्न क्षेत्रों से सिरमटोली स्थित मुख्य सरना स्थल का रुख कर रहे हैं। पारंपरिक वेशभूषा और नृत्य संगीत के साथ सभी लोग यात्रा में शामिल हैं। यहां मुख्य सरना स्थल की परिक्रमा कर सभी लोग अपनी टोली के साथ वापस लौटेंगे। फूलखोंसी का आयोजन मंगलवार को होगा।

पाहन करते हैं बारिश की भविष्यवाणी
हातमा स्थित सरना स्थल में मुख्य पहान जगलाल पहान द्वारा सुबह में पूजा-अर्चना की गई। अन्य स्थानों के पहान भी पूजा कर साल भर के घटनाक्रम की भविष्यवाणी करते हैं । इसके लिए रविवार की सुबह केकड़ा पकड़ने की विधि भी संपन्न हुई। शाम में जलरखाई विधि के तहत घड़े में पानी रख कर पूजा की गई। भविष्यवाणी का आधार घड़े में रखा पानी ही होगा।

कार्तिक उरांव ने शुरू की थी शोभायात्रा की परंपरा
गुमला जिले के गांव करौंदा, लीलाटोली में 29 अक्टूबर, 1924 को जन्‍मे बाबा कार्तिक उरांव आदिवासियों के विकास को लेकर सदैव चिंतित रहे। सो, 1967 में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की और उसके पहले संस्थापक अध्यक्ष बने। इसके बैनर तले रांची में सरहुल की भव्य शोभायात्रा की शुरुआत की, जो आज इतना भव्य हो गया है कि लाखों लोग मांदर के साथ झूमते हुए सड़क पर निकलते हैं। उन्होंने सांस्कृतिक चेतना जगाने के बाद अंबेडकर की तरह आदिवासियों को भी शिक्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।

सजा-धजा मुख्य सरना स्थल
सिरमटोली स्थित मुख्य सरना स्थल पूरी तरह सज कर तैयार है। सफेद और लाल रंग के कपड़ों से पंडाल बना है और चारों ओर सरना झंडे से सजाया गया है। शहर के अन्य भाग में भी सरना झंडे लगाए गए हैं।