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Shaheed Diwas: भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से डरते थे अंग्रेज, तीनों हंसते-हंसते चढ़ गए थे फांसी; 23 मार्च को हुई थी इतिहास की सबसे बड़ी घटना

अंग्रजों से लड़ाई लड़ते हुए भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु का बलिदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। आज इन तीनों सेनानियों के बलिदान के 92 साल पूरे हो चुके हैं। अदालती आदेश के मुताबिक इन तीनों को 24 मार्च 1931 को सुबह आठ बजे फांसी लगाई जानी थी लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी।

By Jagran News Edited By: Jeet Kumar Updated: Sat, 23 Mar 2024 11:06 AM (IST)
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जेल में खींचा गया भगत सिंह का आखिरी फोटो....
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। अंग्रजों से लड़ाई लड़ते हुए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। आज इन तीनों सेनानियों के बलिदान के 92 साल पूरे हो चुके हैं। अदालती आदेश के मुताबिक इन तीनों को 24 मार्च 1931 को सुबह आठ बजे फांसी लगाई जानी थी, लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी। आज के दिन ही 23 मार्च 1931 को हुई इतिहास की इस बड़ी घटना को ''शहीद दिवस'' के रूप में मनाया जाता है।

भगत सिंह अक्सर जेल से पत्र लिखा करते थे और उनका जेल से लिखा गया आखिरी खत अपने साथियों के नाम लिखा था। जो उर्दू में लिखा गया था। पत्र का हिंदी अनुवाद चमन लाल की किताब 'द भगत सिंह रीडर' से लिया गया है। जिसमें उन्होंने लिखा कि

साथियो, स्वभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैद होकर या पाबंद होकर न रहूं। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी दलों के आदशों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था। मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह होने की उम्मीद करेंगी। इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा। आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।

लाला लाजपतराय के देहांत के बाद तेजी से बदले हालात

वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1927 में “साइमन कमीशन” मुम्बई पहुंचा। पूरे देश में साइमन कमीशन का विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतनी अधिक भीड़ और उनका विरोध देख सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया। इस लाठी चार्ज में लाला लाजपतराय बुरी तरह घायल हो गए, जिसकी वजह से 17 नवम्बर 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया।

चूंकि लाला लाजपतराय भगत सिंह के आदर्श पुरुषों में से एक थे, इसलिए उन्होंने उनकी मृत्यु का बदला लेने की ठान ली। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद और जयगोपाल को यह काम दिया।

सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर, जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वह ख़राब हो गयी हो। जयगोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।

साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को दी क्रांतिकारी की पहचान

17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे एएसपी सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने तीन-चार गोली दागकर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भागने लगे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया और कहा- आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा। नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को पूरे देश में एक क्रांतिकारी की पहचान दिला दी।

इस घटना के बाद अंग्रेजी सरकार बुरी तरह बौखला गई। हालात ऐसे हो गए कि सिख होने के बाद भी भगत सिंह को केश और दाढ़ी काटनी पड़ी। सन् 1929 में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ़-चढ़कर भाग भी लिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।

उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक ‘सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी। यह बहुत ही दमनकारी क़ानून था और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।

... जब भगत सिंह ने बम फेंका बम

लेकिन चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों को यह हरगिज मंजूर नहीं था। उन्होंने निर्णय लिया कि वह इसके विरोध में संसद में एक धमाका करेंगे जिससे बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार को उनकी आवाज सुनाई दे। इस काम के लिए भगतसिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त को कार्य सौंपा गया। आठ अप्रैल 1929 के दिन जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंक दिया।

भगतसिंह ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद का नाश हो और इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।

भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सजा मिली

राजगुरु को पूना से और सुखदेव को लाहौर से गिरफ्तार किया गया। भगत सिंह और उनके साथियों पर ‘लाहौर षड्यंत्र’ का मुकदमा भी जेल में रहते ही चला। अदालत ने क्रांतिकारियों को अपराधी सिद्ध किया तथा 7 अक्टूबर 1930 को निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली। हालांकि, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने फांसी दिए जाने के फैसले को बदलने के लिए दया याचिका दायर की। उस दया याचिका को 14 फरवरी 1931 को न्याय परिषद ने खारिज कर दिया।

जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु करीब दो साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं।

23 मार्च 1931 को दे दी फांसी

इसके बाद 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं और उसे पूरा पढ़ने का उन्हें समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - ठीक है अब चलो। और मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे गाते हुए तीनों क्रांतिकारी फांसी को चूमने निकल पड़े।

23 मार्च 1931 की मध्यरात्रि को अंग्रेजी हुकूमत ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया था। ऐसा कहा जाता है कि उस शाम जेल में पंद्रह मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे।

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