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Collegium System: 'कॉलेजियम की तुलना में सरकार अधिक अपारदर्शी', सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने कुछ बदलावों को बताया आवश्यक

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज (सेवानिवृत्त) मदन बी. लोकुर ने कॉलेजियम प्रणाली में कुछ बदलावों को आवश्यक बताया है। उन्होंने कहा कि देश की अदालतें जमानत देने या अस्वीकार करने के आधारभूत सिद्धांत को भूल गई हैं। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम की तुलना में सरकार अधिक अपारदर्शी है। उन्होंने कहा कि इसे दूर करना होगा। इसपर केंद्र और सुप्रीम कोर्ट के बीच मतभेद की स्थिति पैदा हो जाती है।

By Jagran NewsEdited By: Devshanker ChovdharyUpdated: Tue, 07 Nov 2023 07:42 PM (IST)
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सुप्रीम कोर्ट पूर्व जज मदन बी. लोकुर ने कॉलेजियम प्रणाली में कुछ बदलावों पर जोर दिया है। (फाइल फोटो)
पीटीआई, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज (सेवानिवृत्त) मदन बी. लोकुर ने कहा है कि सरकार कॉलेजियम की तुलना में अधिक अपारदर्शी है और उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की इस अपारदर्शिता को दूर करना होगा।

कलेजियम का हिस्सा रह चुके जस्टिस (सेवानिवृत्त) लोकुर ने ईमेल के जरिये दिए साक्षात्कार में संवैधानिक अदालतों में जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था का समर्थन किया, साथ ही यह भी माना कि इसमें कुछ बदलाव आवश्यक हैं जिसके लिए विचार-विमर्श की जरूरत है।

कॉलेजियम सिस्टम पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच मतभेद

कॉलेजियम प्रणाली से जजों की नियुक्ति अक्सर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच टकराव का मुद्दा बन जाती है। पूर्व न्यायाधीश उड़ीसा हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. मुरलीधर जैसे हाई कोर्ट के योग्य जजों को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत नहीं किए जाने के सवाल का जवाब दे रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट ने 22 वर्ष पुरानी कॉलेजियम प्रणाली को खत्म करने के लिए लाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम, 2014 को 16 अक्टूबर, 2015 को खारिज कर दिया था। जस्टिस (सेवानिवृत्त) लोकुर उस पांच सदस्यीय संविधान पीठ का हिस्सा थे।

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एनजेएसी एक्ट और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 के तहत उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका को बड़ी भूमिका प्रदान की गई थी। जस्टिस लोकुर को चार जून, 2012 को सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किया गया था और वह 30 दिसंबर, 2018 को सेवानिवृत्त हुए थे।

मनीष सिसोदिया को जमानत से इनकार किए जाने पर क्या बोले जस्टिस लोकुर?

आप नेता मनीष सिसोदिया को जमानत से इनकार किए जाने से संबंधित सवाल के जवाब में जस्टिस लोकुर ने कहा, 'आम तौर पर कहें तो ऐसा लगता है कि अदालतें जमानत देने या अस्वीकार करने के आधारभूत सिद्धांतों को भूल गई हैं। आजकल किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो आप मान सकते हैं कि वह कम से कम कुछ महीनों तक जेल में रहेगा।

उन्होंने कहा कि पुलिस पहले व्यक्ति को गिरफ्तार करती है, फिर गंभीरता से जांच शुरू करती है। एक अधूरा आरोपपत्र दाखिल किया जाता है, फिर पूरक आरोपपत्र दाखिल किया जाता है और दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए जाते। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और परेशान करने वाली बात यह है कि अदालतें इस पर गौर करने को तैयार नहीं हैं।

जांच एजेंसियों के कथित दुरुपयोग के मुद्दे जस्टिस लोकुर का जवाब

केंद्र और राज्यों की सरकारों द्वारा जांच एजेंसियों के कथित दुरुपयोग के मुद्दे से न्यायपालिका को कैसे निपटना चाहिए, इसके जवाब में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को जीवन की वास्तविकताओं के प्रति जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि कानून की किताबें पूरी कहानी बयां नहीं करतीं।

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पूर्व जज ने कहा कि जमानत के मामलों में विवेकाधीन शक्ति के प्रयोग के लिए शीर्ष अदालत ने कई निर्णयों में आधारभूत सिद्धांत तय किए हैं। समस्या यह है कि कुछ अदालतें जानते हुए भी इन आधारभूत सिद्धांतों को लागू नहीं करतीं। सवाल यह है कि क्यों?

हाल के वर्षों में सरकारी एजेंसियों द्वारा राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की बढ़ती संख्या के बारे में सवाल पर जस्टिस लोकुर ने कहा, कुछ राजनेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले नए नहीं हैं। कुछ राजनेताओं के विरुद्ध अन्य आपराधिक मामले भी हैं। सभी मामलों में राजनीतिक प्रतिशोध का आरोप लगाना कठिन है, कुछ मामलों में कुछ सच्चाई हो सकती है। इन सबका परेशान करने वाला पहलू यह है कि जांच शुरू होने के बाद अगर संदिग्ध निष्ठा बदल लेता है तो जांच बंद कर दी जाती है। इससे राजनीतिक प्रतिशोध का गंभीर संदेह पैदा होता है।