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'क्रीमीलेयर की पहचान जरूरी', सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के नियमों पर पूछा सवाल- IAS और गांव का गरीब बच्चा एक बराबर कैसे?

Supreme Court सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एससी और एसटी श्रेणियों के रिजर्वेशन कोटे में सब कैटेगरी बनाए जाने का रास्ता साफ कर दिया। साथ ही कोर्ट ने आरक्षण के नियमों से जुड़े कई बुनियादी सवाल खड़े किए। कोर्ट ने आरक्षित जातियों में क्रीमीलेयर की पहचान और समर्थ लोगों को इसके दायरे से बाहर करने पर कानून बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया।

By Jagran News Edited By: Sachin Pandey Updated: Thu, 01 Aug 2024 11:50 PM (IST)
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कोर्ट ने अपने फैसले में एससी, एसटी के आरक्षण में उपवर्गीकरण का रास्ता साफ कर दिया। (File Image)
मनीष तिवारी, नई दिल्ली। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के उपवर्गीकरण का रास्ता साफ करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में जस्टिस बीआर गवई ने आरक्षण की व्यवस्था के क्रियावन्वन को लेकर बुनियादी प्रश्न खड़े किए हैं। विशेष रूप से इसका लाभ सही, उपयुक्त, पात्र और वास्तविक जरूरतमंद व्यक्ति को मिलने के संदर्भ में।

जस्टिस गवई ने स्पष्ट रूप से कहा है कि राज्य यानी शासन प्रणाली को एक नीति लानी चाहिए, जो अनुसूचित जाति-जनजाति वर्गों में क्रीमी लेयर की पहचान कर सके और इसके आधार पर आरक्षण का लाभ उठाकर समर्थ हो चुके लोगों को इसके दायरे से बाहर किया जा सके। जस्टिस गवई अनुसूचित जाति समाज से आते हैं और अगले साल प्रधान न्यायाधीश बनने वाले हैं। वह केजी बालाकृष्णन के बाद इस समुदाय से प्रधान न्यायाधीश बनने वाले दूसरे जज होंगे।

बीआर अंबेडकर के विचारों को किया याद

जस्टिस गवई ने अपने अलग फैसले में संविधान निर्माता बीआर अंबेडकर के विचारों का स्मरण किया है। अंबेडकर ने कहा था कि राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिकेगा, जब तक सामाजिक लोकतंत्र सुनिश्चित नहीं किया जाता। सामाजिक लोकतंत्र क्या है। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है- एक ऐसी जीवनशैली जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा की भावना हो। ये तीनों अलग-अलग नहीं, बल्कि एक त्रिकोण का भाग हैं।

क्या पूरे हो रहे आरक्षण के संवैधानिक उद्देश्य: कोर्ट

जस्टिस गवई के अनुसार सवाल यह उठना चाहिए कि क्या अनुसूचित जाति वर्ग में गैरबराबरी पर खड़े लोगों के साथ समान व्यवहार आरक्षण के संवैधानिक उद्देश्य को पूरा करता है या इसमें बाधक बनता है। उन्होंने अपनी बात के समर्थन में यह सवाल खड़ा किया कि क्या एक आईएएस-आईपीएस या सिविल सेवा के अन्य अधिकारी के बच्चे की तुलना अनुसूचित जाति के ही उस वंचित व्यक्ति के बेटे के साथ की जा सकती है, जिसने ग्राम पंचायत या जिला परिषद के स्कूल में पढ़ाई की है।

उन्होंने कहा कि पहली श्रेणी के व्यक्ति के बच्चे को मिली शिक्षा और अन्य सुविधाएं गांव में अभाव में रह रहे व्य्यक्ति के मुकाबले कहीं अधिक होंगी। एक अधिकारी के बच्चे के पास तो कोचिंग जैसी सुविधा भी है, उसके घर का माहौल शैक्षणिक उत्थान के लिए कहीं अधिक अनुकूल होगा। इसके विपरीत दूसरी श्रेणी के बच्चे के अभिभावक के पास नाममात्र की शिक्षा और कोचिंग सुविधा होगी।

क्रीमीलेयर पर उठाए सवाल

जस्टिस गवई ने यह टिप्पणी भी की कि पिछड़े समुदायों के क्रीमी लेयर में शामिल लोग आरक्षण का लाभ उठाकर बहुमत में जरूरतमंदों को इस अधिकार से वंचित कर देते हैं। उन्होंने लिखा, 'जब कोई व्यक्ति किसी अलग कमरे में पहुंच जाता है तो वह हर तरह से दूसरे लोगों को उसमें आने से रोकता है। सामाजिक न्याय से ही उन्हें यह लाभ मिलता है, लेकिन जब शासन यही लाभ ऐसे दूसरे लोगों को देना चाहता है, जो अब तक वंचित रहे हैं तो उसे मना नहीं किया जा सकता।'

अन्य जजों ने भी किया समर्थन

जस्टिस गवई ने कहा है कि अनुसूचित जाति और जनजाति का एक विशेष वर्ग ही आरक्षण का लाभ उठा रहा है। इस जमीनी सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि एससी-एसटी समुदायों में ऐसी जातियां हैं, जो अभी भी उत्पीड़न का सामना कर रही हैं। एससी-एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान के संदर्भ में जस्टिस गवई की राय का तीन अन्य जजों- जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस एससी शर्मा और जस्टिस विक्रम नाथ ने भी समर्थन किया है।

जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा है कि किसी श्रेणी में आरक्षण का लाभ केवल एक पीढ़ी में मिलना चाहिए। अगर दूसरी पीढ़ी आ गई है तो आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। जस्टिस एससी शर्मा ने कहा है कि क्रीमी लेयर की पहचान को संवैधानिक रूप से अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।