सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा का कहना है कि यह न्यायिक विचार का विषय है कि कहां से प्रलोभन शुरू होता है और कहां तक जरूरत रहती है। जाहिर है इसे कोर्ट को तय करना चाहिए। मुफ्त घोषणाओं के विषय पर उन्होंने कहा कि यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
By Jagran NewsEdited By: Anurag GuptaUpdated: Sat, 16 Sep 2023 09:45 PM (IST)
माला दीक्षित, नई दिल्ली। मुफ्त रेवड़ियों से राज्यों की आर्थिक हालत खस्ता होती जा रही है, लेकिन फिर भी राजनैतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए लगातार मुफ्त उपहारों की घोषणा करते रहते हैं। राजनैतिक दलों द्वारा मुफ्त घोषणाओं का मामला सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में भी लंबित है। हालांकि, एक साल से मामला सुनवाई पर नहीं लगा है। आगामी चुनावों के पहले राजनैतिक दलों ने सत्ता में आने पर मुफ्त उपहारों की घोषणा शुरू कर दी है।
यह भी पढ़ें: Exclusive: 'मानवाधिकारों को लेकर बहुत सजग हैं नागरिक', जस्टिस अरुण मिश्रा बोले- पहले रोज आती थीं 400 शिकायतेंसुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा का कहना है कि यह न्यायिक विचार का विषय है कि कहां से प्रलोभन शुरू होता है और कहां तक जरूरत रहती है। जाहिर है इसे कोर्ट को तय करना चाहिए।
जस्टिस अरुण मिश्रा ने दैनिक जागरण से खास बातचीत में मुफ्त घोषणाओं पर सवाल के जवाब में कहा,
यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इस पर गंभीर विचार विमर्श की आवश्यकता है कि किस चीज को हम आवश्यकता के तौर पर लाएंगे और किस चीज को मानेंगे कि प्रलोभन है। क्या इसे संविधान में नीति निर्धारण में संविधान के अनुसार माना जाएगा, क्योंकि संविधान में जो नीति निर्धारण के भाग में दिशा निर्देश हैं उनके संबंध में अपनी घोषणा में डालना अनुचित नहीं होगा, परंतु कब ये प्रलोभन बनेगा इसके संबंध में विशद विचार विमर्श के बाद ही कोई नीति निर्धारण किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि मुफ्त उपहार में किस चीज को प्रलोभन में मानेंगे और किस चीज को सामाजिक आवश्यकता या मूलभूत आवश्यकता मानेंगे इस पर विवेचन होना चाहिए। संविधान में जो दिशानिर्देश हैं उनके बारे में तो अनुचित नहीं कहा जा सकता। परंतु कोर्ट को इस पर विचार करना पड़ेगा कि कहां उस सीमा का उल्लंघन हुआ और कहां पर वो इसे प्रलोभन के तौर पर मानते हैं। ये न्यायिक विचार विमर्श का विषय है।
'कहां से शुरू हुआ प्रलोभन?'
जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि कोर्ट विचार करे कि कहां से प्रलोभन शुरू हुआ और कहां से संवैधानिक दिशा निर्देश से हट कर कार्य किया गया। प्रलोभन तो किसी प्रकार का चुनाव में नहीं दिया जा सकता। प्रत्येक आइटम पर विचार होना चाहिए। राजनीतिक दल घोषणा में कहते हैं कि हम गरीब का उत्थान कैसे करेंगे। गरीबी को समाप्त कैसे करेंगे। वो योजनाएं लागू होती हैं। ये देखना होगा कि कहां पर हम लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट किसी मामले में फैसला देगा तो बहुत हद तक समस्या हल हो जाती है और सभी उस फैसले का कानून की तरह पालन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 2013 में सुब्रमण्यम बाला जी मामले में दिए फैसले में इसे भ्रष्ट आचरण नहीं माना था।
सुप्रीम कोर्ट में अभी वकील अश्वनी उपाध्याय की याचिका लंबित हैं जिसमें मुफ्त रेवड़ियों की संस्कृति पर रोक लगाने की मांग की गई है। इस याचिका में 2013 के फैसले को भी चुनौती दी गई है। इसी मांग को देखते हुए कोर्ट ने पिछले साल अगस्त में यह मामला विचार के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया था ताकि पीठ 2013 के फैसले पर भी पुनर्विचार कर सके।
सुप्रीम कोर्ट में हुई थी लंबी सुनवाई
उन्होंने कहा कि कुछ और याचिकाएं भी इस संबंध में लंबित हैं, जबकि दूसरी ओर कुछ राजनैतिक दलों ने इस पर रोक लगाने का विरोध किया है और कहा है कि कोर्ट को इस पर विचार नहीं करना चाहिए। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने इस पर लंबी सुनवाई की थी जिसमें कोर्ट ने माना था कि यह गंभीर और जटिल विषय है जिस पर विस्तृत विचार विमर्श की जरूरत है।
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कोर्ट ने सुनवाई के दौरान केंद्र से कहा था कि सरकार इस पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर चर्चा क्यों नहीं करती। जिसके जवाब में केंद्र की पैरोकारी कर रहे सालिसिटर जनरल ने कहा था कि कई विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट में मौजूद हैं, जो इस पर रोक लगाने का विरोध कर रहे हैं ऐसे में हो सकता है कि सर्वदलीय बैठक में कोई नतीजा न निकले।उन्होंने कहा कि उस समय कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस विषय पर संसद में चर्चा होनी चाहिए। कोर्ट ने मामले पर गहन विचार विमर्श के लिए एक कमेटी बनाने के भी संकेत दिये थे। हालांकि, तब कोर्ट ने कोई सीधा आदेश नहीं दिया था और मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ को विचार के लिए भेज दिया था। उसके बाद से केस सुनवाई पर नहीं लगा।