संसद के पुराने भवन से जुड़ा है देश का गौरवशाली अतीत, ऐतिहासिक निर्णयों और कामकाज के लिए किया जाएगा याद
मंगलवार को नए संसद भवन में कामकाज शुरू होने के साथ देश की संसदीय परंपरा में एक नया अध्याय जुड़ने जा रहा है लेकिन 75 साल से भारत की संप्रभुता की अद्भुत अनुभूति दे रही मौजूदा इमारत के मील के पत्थरों को कोई भूल नहीं सकेगा।यह भवन अपने साथ 96 साल का इतिहास समेटे हुए है और इस दौरान देश की लोकतांत्रिक यात्रा के हर इम्तिहान में यह खरा उतरा।
नई दिल्ली, मनीष तिवारी। मंगलवार को नए संसद भवन में कामकाज शुरू होने के साथ देश की संसदीय परंपरा में एक नया अध्याय जुड़ने जा रहा है, लेकिन 75 साल से भारत की संप्रभुता की अद्भुत अनुभूति दे रही मौजूदा इमारत के मील के पत्थरों को कोई भूल नहीं सकेगा। वैसे यह भवन अपने साथ 96 साल का इतिहास समेटे हुए है और इस दौरान देश की लोकतांत्रिक यात्रा के हर इम्तिहान में यह खरा उतरा।
लोकतांत्रिक शक्ति की गौरव गाथा
18 जनवरी 1927 को तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने इसका उद्घाटन किया था। स्पष्ट है कि इस भवन के शुरुआती दो दशक ब्रिटिश शासन में बीते, लेकिन इसके बाद से इसमें देश की लोकतांत्रिक शक्ति की जो गौरव गाथा लिखी गई है, उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।
एक नए स्वतंत्र देश ने इसी भवन में अपने संप्रभु फैसलों, जनकल्याण के निर्णयों और विधि का शासन स्थापित करने के लिए प्रविधान तय करने के साथ ही सत्ता हस्तांतरण के आदर्श और अनुकरणीय तौर-तरीके स्थापित करने के जो मानक तय किए, वे विश्व के तमाम लोकतांत्रिक देशों के लिए भी एक उदाहरण हैं।
सैकड़ों बिल हुए पारित
15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि स्वतंत्रता का उद्घोष एक शुरुआत था, जिसने 26 जनवरी 1950 को संविधान अंगीकार करने के दिन एक नया मुकाम हासिल किया। इसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें गौरव करने के अनगिनत क्षण हैं तो भुला देने योग्य पल काफी कम। सैकड़ों बिल पारित हुए, जिनमें अनेक मील का पत्थर रहे तो तमाम ऐसे विधेयक भी रहे जो सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच विवाद का कारण बने। दर्जनों यादगार बहस भी हुईं और उन विचारों का आदान-प्रदान हुआ जिन्होंने देश की प्रगति का आधार बनाया।
भवन कई महान व्यक्तित्व बना साक्षी
यह भवन पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रभावशाली संबोधनों, लाल बहादुर शास्त्री के शांत, किंतु दृढ़ इच्छाशक्ति वाले रूप, इंदिरा गांधी के बड़े फैसलों और अटल बिहारी वाजपेयी के अद्भुत और मंत्रमुग्ध कर देने वाले व्यक्तित्व का भी साक्षी रहा। ये वे कुछ नाम हैं, जिनके शब्दों ने देश की दिशा तय की। स्वतंत्रता के एक दिन पहले राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा की बैठक रात्रि 11 बजे से शुरू हुई थी।
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विशेष सत्र की शुरुआत
उत्तर प्रदेश से आने वाली सुचेता कृपलानी ने वंदे मातरम की शुरुआती लाइनें गाई थीं। यह एक विशेष सत्र की शुरुआत थी, जो नेहरू के मशहूर ट्रिस्ट विद डेस्टिनी संबोधन के कारण याद किया जाता है। तब सभा के सभी सदस्यों ने राष्ट्रसेवा की शपथ ली थी। संसदीय सफर का एक और कभी न भूलने वाला दिन दो फरवरी, 1948 को रहा, जब तब के स्पीकर जीवी मावलंकर ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के निधन की सूचना लोकसभा को दी।
इतिहास के पुराने पन्ने
इसी सदन से तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से दिन में एक समय का भोजन न करने की अपील की थी, क्योंकि देश को 1965 के युद्ध में पाकिस्तान से लड़ना और खाद्यान्न की कमी की चुनौती का सामना करना था। 1974 में 22 जुलाई को इंदिरा गांधी ने पोखरण परीक्षण की सफलता से देश को इसी सदन के माध्यम से परिचित कराया और फिर इसके 24 साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में भारत के नाभिकीय शक्ति संपन्न देश बनने की सूचना से दुनिया को अवगत कराया।
अगर कोई एक घटना भारत के लोकतंत्र की शक्ति और उसकी परिपक्वता को बयान करने के लिए काफी है तो वह है 1998 में एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का गिर जाना। संसद के पुराने भवन में मंगलवार से कामकाज नहीं होगा, लेकिन इसकी लोकतांत्रिक शक्ति अमिट है, जो सिर्फ कुछ मीटर दूर एक नए भवन में स्थानांतरित हो जाएगी।
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