पूर्वोत्तर के लिए नई चुनौती, म्यांमार-भारत सीमा की भौगोलिक स्थिति बेहद जटिल
म्यांमार में राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य शासन के कारण वहां से शरणार्थी भारत का रुख कर रहे और यह पूवरेत्तर की सुरक्षा के लिए चुनौती पैदा कर रहा है। भारत म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना तो चाहता है लेकिन वहां की सैन्य सरकार से संबंध खराब नहीं किए जा सकते।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sat, 21 May 2022 03:03 PM (IST)
डा. ब्रह्मदीप अलूने। पड़ोसी देश म्यांमार में जब से सेना ने सत्ता संभाली है, तब से भारत का पूवरेत्तर राज्य मिजोरम म्यांमार से भाग कर आने वाले शरणार्थियों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना बन गया है। म्यांमार-भारत सीमा की भौगोलिक स्थिति बेहद जटिल है। कई जनजातीय समूह भारत और म्यांमार दोनों देशों में रहते हैं और उन्हें एक-दूसरे के कबीलों में जाने से रोकना कठिन होता है। सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से भारत का म्यांमार से बेहतर संबंध जरूरी है और यही कारण है कि म्यांमार के सैन्य शासन की आलोचना करने से भारत बचता रहा है।
इन सबके बीच म्यांमार की स्थिति बद से बदतर हो रही है और सेना के प्रति लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। दरअसल मानव अधिकार या न्याय के बुनियादी सिद्धांतों से म्यांमार के सैन्य शासन का कोई सरोकार नहीं है। म्यांमार की सेना के अधिकारी अभिजात्यवादी होकर संसाधनों की लूट में लिप्त हैं तथा देश की अर्थव्यवस्था उन्हीं पर निर्भर है। देश के प्राकृतिक और खनिज संसाधनों पर सेना का नियंत्रण है। चीन की नजर म्यांमार के गैस और कोयले की संपदा पर है और इनका संचालन सैन्य अधिकारियों के साथ मिलकर किया जाता है। अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण का मतलब है कि इस देश में सेना का विरोध करना आसान नहीं।
म्यांमार की अतिराष्ट्रवादी सेना खुद को अभिजात्य वर्ग की तरह पेश करती है। वह ख़ुद को श्रेष्ठ समझती है, लेकिन दुनिया उनके बारे में क्या सोचती है, म्यांमार की सेना को इसकी परवाह नहीं है। यहां 130 से अधिक जातीय समूह हैं। इनमें बमार्स बौद्ध बहुसंख्यक हैं। देश के अभिजात्यों में बमार्स का ही दबदबा है। जातीय अल्पसंख्यकों में रोहिंग्या मुसलमान लंबे समय से सेना की बर्बरता का शिकार रहे हैं। अब सैकड़ों प्रदर्शनकारी जिनमें बमार्स बौद्ध भी शामिल हैं, उन्हें अपनी ही सेना मार रही है। पहले बमार्स रोहिंग्या विरोधी और सेना समर्थक समङो जाते थे, लेकिन विरोध करने वालों को सेना अब गद्दार के तौर पर देख रही है। इस प्रकार सेना का संघर्ष अब अपने जैसे अभिजात्यवादी जातीय समूहों से भी हो रहा है।
उल्लेखनीय है कि भारत के आजाद होने के कुछ माह बाद ही बर्मा (वर्तमान म्यांमार) भी आजाद हो गया था और उस समय वह दक्षिण-पूर्व एशिया के धनी देशों में से शुमार था। यह विश्व का एक बड़ा चावल निर्यातक देश होने के साथ ही लकड़ी, टिन, चांदी, सीसा, तेल आदि के उत्पादन के लिए पहचाना जाता था। बाद में लोकतंत्र को कमजोर करके सैन्य प्रशासन की स्थापना से यह देश कंगाल हो गया और अब यहां के लोग गरीबी में जीने को मजबूर हो गए। घने जंगलों से घिरे म्यांमार में जनजातियों की जटिल संकल्पना के कारण प्रशासन यहां बड़ी चुनौती रही है। कई जातीय समूह अपनी मान्यताओं को लेकर सख्त रहे हैं। बौद्ध बाहुल्य इस देश में मुस्लिम व हिंदू भी हैं।
अभी तक का चलन यह रहा है कि बर्मी समाज के जातीय समूह सेना के साथ होते थे। रोहिंग्या के व्यापक जनसंहार में भी वे सेना का समर्थन करते दिखे थे। परंतु अब ऐसा नहीं है। लगभग 16 जातीय समूहों ने मिलकर पीडीएफ यानी ‘पीपल्स डिफेंस फोर्स’ के जरिए सेना के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया है। शहरों के आम नागरिक पीपल्स डिफेंस फोर्स में शामिल हो रहे हैं। आरंभ में पीडीएफ के लोगों के पास कोई हथियार नहीं थे, लेकिन अब वे सेना से हथियार लूट रहे हैं और विस्फोटक भी बना रहे हैं। शायद यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र यह अपील कर चुका है कि म्यांमार की सेना को हथियार नहीं बेचे जाएं, क्योंकि वह आम नागरिकों को निशाना बना रहा है। वहीं रूस और चीन म्यांमार की सेना को भारी हथियारों की खेप भेज रहे हंै। म्यांमार की सेना ने पिछले दिनों विद्रोह पर अंकुश के लिए कई हवाई हमले किए हैं।
ऐसे में चीन के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट रहा है और चीन का बड़े पैमाने पर विरोध भी हो रहा है। म्यांमार के विद्रोहियों ने देश के उत्तर-पश्चिम में स्थित चीन समर्थित खदानों पर हमले की चेतावनी जारी की है। इन विद्रोहियों का कहना है कि ऐसी परियोजनाओं का मुनाफा सैन्य शासन की जेब में जाता है और अगर ये परियोजनाएं रोकी नहीं गईं तो खदानों पर हमला किया जाएगा।उल्लेखनीय है कि म्यांमार आसियान का एकमात्र ऐसा सदस्य देश है जिससे भारत की समुद्री और भू-भागीय दोनों सीमाएं मिलती हैं। भारत की ‘पूरब की ओर देखो’ नीति अपनाने से म्यांमार का महत्व ज्यादा बढ़ गया है। चीन म्यांमार में एक सैन्य सरकार चाहता है जिससे वह अपने आर्थिक और सामरिक हितों को बिना किसी दबाव के पूरा कर सके। भारत के लिए म्यांमार की अस्थिरता चुनौतीपूर्ण है। दोनों देशों के बीच 1,640 किमी की सीमा है और इसकी जद में पूवरेत्तर का बड़ा क्षेत्र आता है। इस सीमा पर ऐसे कई कबाइली समूह हैं जो कि अलगाववादी हैं और वे पूवरेत्तर में सुरक्षा संकट बढ़ाते रहते है। इनमें से कुछ गुटों को चीन का समर्थन भी हासिल है। भारत म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना तो चाहता है, लेकिन वहां की सैन्य सरकार से संबंध खराब नहीं किए जा सकते।स्वतंत्र टिप्पणीकार