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प्रशासन की पारंपरिक व्यवस्था से अड़चन, भारत में वैज्ञानिक व्यवस्था में कई स्तरों पर सुधार की आवश्यकता

भारत में वैज्ञानिक व्यवस्था में कई स्तरों पर सुधार की आवश्यकता है। स्कूलों में आज किस तरह का विज्ञान पढ़ाया जा रहा है और भविष्य को देखते हुए किस तरह के विज्ञान पढ़ाए जाने की जरूरत है इस बारे में निर्णय करने का समय आ चुका है।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Tue, 01 Nov 2022 01:07 PM (IST)
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देश में विज्ञान की महत्ता को पुनर्स्थापित किया जाए। प्रतीकात्मक
नई दिल्‍ली, जेएनएन। वैसे तो हमारे देश में विज्ञान संबंधी दृष्टिकोण को विकसित करने के उद्देश्य से पिछले कुछ वर्षों में कई कवायद की गई हैं, परंतु अभी भी विज्ञान जगत से जुड़े लोगों की शिकायत है कि नौकरशाही इस मामले में एक बड़ी अड़चन बनी हुई है। आरोप है कि नौकरशाही की ओर से की जाने वाली दखलंदाजी नई खोजों और रचनात्मकता में बाधा डालती रही है। अक्सर ऐसे हस्तक्षेप किसी नए क्षेत्र में किए जा रहे शोधकार्यों में अड़चनें पैदा करते हैं और शोधकर्ताओं को प्रशासनिक भूलभुलैया में उलझा देते हैं, जिससे विज्ञानी अपना प्राथमिक कार्य यानी शोध छोड़कर सरकारी कायदे-कानून का ही पालन करते रह जाते हैं।

साफ है कि जब विज्ञान को लेकर हमारे देश में कई पुरानी परिपाटियां और सोच नहीं बदलेगी, तब तक विज्ञान के अभाव नहीं दूर होंगे। देश की तस्वीर बदलनी है तो पहले विज्ञान की तकदीर बदलने वाला नजरिया अपनाना होगा। भारत को एक वैज्ञानिक शक्ति बनाने में नए उपायों की कुछ भूमिका अवश्य हो सकती है, परंतु असल चुनौती देश का नजरिया बदलने की है, जिसके लिए कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे और केवल सरकार को कोसने से कोई फायदा नहीं होने वाला। यह बदलाव इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि आगामी कुछ वर्षों में दुनिया में विज्ञान के क्षेत्र में कई बड़े परिवर्तनों की अपेक्षा की जा रही है। सौर ऊर्जा, रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसी अत्याधुनिक तकनीकों, नैनो टेक्नोलाजी, कम ईंधन की खपत वाली और इलेक्ट्रिक कारों व अन्य वाहनों के आविष्कार तथा अंतरिक्ष में नई संभावनाओं की खोज जैसे कई बड़े कार्य होने हैं। परंतु क्या वास्तव में भारत इन क्षेत्रों में चमत्कार कर सकता है।

देश की शिक्षा प्रणाली और वैज्ञानिक व्यवस्था में मौजूद गड़बड़ियों को देखें, तो यह असल में एक बहुत बड़ा सपना है। इन समस्याओं के रहते इस सपने को पूरा करना कठिन है। वह इसलिए क्योंकि हमारे देश की वैज्ञानिक व्यवस्था राजनीतिक दखलंदाजी और लालफीताशाही से जकड़ी हुई है। इस तरह की दखलंदाजी के कारण ही अनुसंधानों और नई खोजों से जुड़े कई महत्वपूर्ण काम बीच रास्ते में दम तोड़ देते हैं। अमेरिका-ब्रिटेन जैसे विकसित राष्ट्रों ने यह बात काफी पहले समझ ली थी कि उनका विकास अब इस पर निर्भर करेगा कि वैज्ञानिक नवाचार के मामले में वे दुनिया के दूसरे देशों से कितना आगे हैं। यहां तक कि हमारे पड़ोसी चीन ने विज्ञान के नए अनुसंधानों और विकास के महत्व को पहचानते हुए इस क्षेत्र में काफी पहले ही भारी निवेश करना आरंभ कर दिया था।

भारत की तुलना चीन से ही करें तो यह पड़ोसी देश हमें और भी पीछे छोड़ने की तैयारी कर चुका है। इसका कारण यह है कि चीन की योजना अनुसंधान और विकास पर खर्च को 2025 तक बढ़ाते हुए अपनी जीडीपी के चार प्रतिशत तक पहुंचाने की है। तुलना में हम कई और मामलों में पीछे हैं। मसलन जनसंख्या की तुलना में हमारे देश में चीन से लगभग छह गुना कम विज्ञानी हैं। पर समस्या का समाधान यह नहीं है कि हमारे देश में विज्ञानियों की संख्या बढ़ा दी जाए। इसका हल तभी निकलेगा, जब समस्या की जड़ की तरफ ध्यान दिया जाए। असल में, भारत में वैज्ञानिक व्यवस्था में कई स्तरों पर सुधार की आवश्यकता है। स्कूलों में आज किस तरह का विज्ञान पढ़ाया जा रहा है और भविष्य को देखते हुए किस तरह के विज्ञान पढ़ाए जाने की जरूरत है, इस बारे में निर्णय करने का समय आ चुका है।