काला सच! रात के अंधेरे में 'बचपन' की मेहनत बारात को बनाती है खूबसूरत
रोज सुबह शिवम स्कूल जाता है, फिर वापस आकर वह पिता के साथ खेत पर मजदूरी करता है। लेकिन शाम होते-होते उसके कदम शहर की तरफ बढ़ चलते हैं। यहां बैंड पार्टी में शिवम लाइट और बैंड का ठेला खींचता है।
मैनपुरी [ज्योत्यवेंद्र दुबे]। इसे चाहे उन बच्चों की बदनसीबी कहिए या व्यवस्था की कड़वी सच्चाई। लेकिन हकीकत आपको सोचने पर मजबूर कर देगी। जिस उम्र में हाथों में खिलौने होने चाहिए, उन्होंने बरातों को रोशन करना शुरू कर दिया। रात के अंधियारे में बचपन की ये मेहनत व्यवस्था का स्याह सच है। जिन बैंड और लाइटों से बरातें रोशन होती हैं, उन्हें कोई और नहीं बल्कि नन्हें हाथ ढोतेे हैं। पेट पालने की मजबूरी में बच्चे बाल श्रम करने लगे। अकेले मैनपुरी शहर में ही करीब तीन सौ बच्चे इस काम में लगे हैं।
शौक नहीं, मजबूरी में करते हैं ये काम
बच्चों को रोड लाइट खींचने का शौक नहीं है। ये तो मजबूरी में ऐसा करते हैं। किसी के पिता खेतों में मजदूरी करते हैं, तो किसी के रिक्शा चलाते हैं। किसी के पिता दूसरे शहर में रोटी का जुगाड़ करने गए हैं। घर पर चूल्हा जल सके, इसलिए बच्चे बाल श्रम करते हैं। शहर से सटे गांव अंबरपुर में रहने वाले शिवम की उम्र महज 12 साल है। वह गांव के ही परिषदीय स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ता है। पिता खेतों में मजदूरी करते हैं। तीन भाइयों में शिवम सबसे बड़ा है।
स्कूल के साथ खेत पर मजदूरी
रोज सुबह शिवम स्कूल जाता है, फिर वापस आकर वह पिता के साथ खेत पर मजदूरी करता है। लेकिन शाम होते-होते उसके कदम शहर की तरफ बढ़ चलते हैं। यहां बैंड पार्टी में शिवम लाइट और बैंड का ठेला खींचता है। इसके बदले उसे रोज सौ रुपये मिलते हैं। इन सौ रुपये से वह पिता के कंधे से कंधा मिलाकर घर का चूल्हा जलाने में मदद करता है। ये व्यथा अकेले शिवम की नहीं है। उसके जैसे करीब दो दर्जन बच्चे इस गांव से रोज बैंड पार्टी में शामिल होते हैं। इसी गांव में रहने वाले रवि के पिता शहर में रिक्शा चलाते हैं। सात लोगों के परिवार में पिता की मेहनत की कमाई कम पड़ रही है। वह भी गांव के स्कूल में पांचवी का छात्र है, लेकिन पेट पालने के लिए वह भी शाम को बैंड की ठेल खींचता है।
शरीर से अधिक ढोते हैं वजन
रॉड लगी टोकरी सिर पर उठाने की बच्चों की मजबूरी है। अब समय बदल गया तो सिर के बजाए रॉड की ठेल खींचनी पड़ती है। लेकिन इसका वजन भी बच्चों के वजन से दोगुुना होता है। बैंड खींचने के काम में लगा दस साल का दीपक कहता है कि साहब ये न करें तो घर में चूल्हा न जलें। कभी -कभी काम अधिक पड़ने पर इतना थक जाते हैं कि सुबह उठना मुश्किल हो जाता है, लेकिन शाम को फिर पेट की आग बुझाने के लिए दौड़ना पड़ता है।
किसी को बताने पर निकाल देते मालिक
दीपक कहता है कि हम किसी को भी ये नहीं बताते कि हम यहां काम करते हैं। जागरण ने जब बच्चों की फोटो लेनी चाही तो उन्होंने मुंह घुमा लिया और फोटो खिंचाने से साफ इन्कार कर दिया। कहा कि मीडिया में फोटो आ गई तो मालिक काम भी नहीं देगा। फिर घर का चूल्हा कैसे चलेगा। दीपक के परिजनों को भी ये अच्छा नहीं लगता कि बेटा पढ़ने की उम्र में ये काम करे, लेकिन परिवार की मजबूरी उन्हें फिर खामोश कर देती है।
क्या करें मजबूरी है
बैंड पार्टी के संचालक बच्चों से ठेला खिंचवाने को अपनी मजबूरी बताते हैं। वह कहते हैं कि उनकी मजबूरी है। बच्चे एक दिन के लिए 100 रुपये ले लेते हैं, लेकिन किसी वयस्क को ये काम दिया जाए तो वह पांच सौ रुपये से कम नहीं मांगता। इसलिए बच्चों से काम लेना सस्ता है।
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