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Tripura का परिणाम तय करेगा कांग्रेस के गठबंधन का भविष्य, BJP के खिलाफ मोर्चे को 2024 तक बनाए रखने की चुनौती

कांग्रेस और वामदलों ने बंगाल के परिणाम की अनदेखी कर त्रिपुरा में भाजपा के विरुद्ध मोर्चा बनाया है। लोकसभा चुनाव तक गठबंधन को बचाए रखने की चुनौती होगी। इस कसौटी पर बिहार-महाराष्ट्र जैसे राज्य भी होंगे जहां सत्ता के लिए विचारधारा से समझौता कर इस तरह के गठबंधन हुए हैं।

By Jagran NewsEdited By: Amit SinghPublished: Tue, 14 Feb 2023 08:38 PM (IST)Updated: Tue, 14 Feb 2023 08:38 PM (IST)
BJP के खिलाफ मोर्चे को 2024 तक बनाए रखने की चुनौती

अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। त्रिपुरा में चुनाव प्रचार का शोर मंगलवार की शाम थम गया। दो दिन बाद मतदान होना है। मात्र 60 सदस्यों वाली विधानसभा के लिए होने जा रहे इस चुनाव का परिणाम विपक्षी एकता के रोडमैप का आधार तय कर सकता है। ऐसे में इस छोटे से राज्य की राजनीति का राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रभाव पड़ना तय है। कांग्रेस और वामदलों ने जिस तरह बंगाल के परिणाम की अनदेखी कर त्रिपुरा में भाजपा के विरुद्ध मोर्चा बनाया है, उसे लोकसभा चुनाव तक बनाए-बचाए और टिकाए रखने की चुनौती होगी। इस कसौटी पर बिहार-महाराष्ट्र जैसे राज्य भी होंगे, जहां सत्ता के लिए विचारधारा से समझौता कर इस तरह के गठबंधन हुए हैं।

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वामदलों और कांग्रेस के बीच गठबंधन

पहले त्रिपुरा में गठबंधन की स्थिति पर गौर करना जरूरी है। चुनाव की घोषणा से पहले तक परस्पर विरोधी रहे वामदलों और कांग्रेस इस बार गठबंधन के साथ चुनाव में हैं। कांग्रेस 13 और माकपा 43 सीटों पर प्रत्याशी लड़ा रही है। भाकपा, आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक को एक-एक सीट मिली है। एक सीट पर निर्दलीय को समर्थन दिया गया है। भाजपा ने अपने पुराने सहयोगी आईपीएफटी के साथ गठबंधन पहले की तरह बरकरार रखा है। अंतर यह है कि पिछली बार भाजपा ने सहयोगी दल को नौ सीटें दी थीं। इसबार पांच पर समेट दिया है। एक सीट पर दोस्ताना संघर्ष भी है।

चुनाव की घोषणा होने के बाद हुए एक

चुनाव की घोषणा से पहले तक त्रिपुरा में वामदलों और कांग्रेस में महासंग्राम की स्थिति थी। कार्यकर्ता और नेता आपस में भिड़ रहे थे। जैसे ही चुनाव की घोषणा हुई दोनों एक हो गए। ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या शीर्ष स्तर पर गठबंधन के बाद कार्यकर्ता भी एक-दूसरे के साथ आ चुके हैं। अगर ऐसा हुआ तो लोकसभा चुनाव में भी दोनों दलों के एक मंच पर आने की बात को बल मिल सकता है। अगर नहीं हुआ तो बंगाल के बाद त्रिपुरा का संकेत भी साफ निकलेगा। ऐसा ही सबक यूपी में भी अखिलेश यादव को मिल चुका है। वर्षों तक बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी एक-दूसरे के प्रबल विरोधी रहे, परंतु 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन कर लिया। परिणाम ने अखिलेश की आंखें खोल दी। उन्होंने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ बसपा से भी पिंड छुड़ा लिया।

कांग्रेस का हुआ था सूपड़ा साफ

बंगाल में कांग्रेस और माकपा कभी राजनीतिक शत्रु थीं। ममता बनर्जी ने जब तृणमूल कांग्रेस बनाई तो कांग्रेस हाशिये की ओर बढ़ने लगी। बाद में वामदल की सरकार बनी और तृणमूल कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल बन गई। इसी बीच भाजपा के विरोध के नाम पर कांग्रेस धीरे-धीरे वामदलों के करीब आती गई। 2004 के बाद केरल के अलावा हर जगह कांग्रेस गाहे-बगाहे वामदलों से गठबंधन करती रही। असर दोनों पर पड़ा। दोनों का दायरा सिमटता चला गया। पिछले विधानसभा चुनाव में गठबंधन के बावजूद वामदलों और कांग्रेस का खाता तक नहीं खुल सका।

भाजपा कमजोर पड़ी तो विपक्ष को मिल सकता है फार्मूला

त्रिपुरा में कांग्रेस-वामदलों की संयुक्त शक्ति के आगे अगर भाजपा कमजोर पड़ जाती है तो लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष को एक फार्मूला मिल जाएगा। महाराष्ट्र में शिवसेना (ठाकरे गुट) को कांग्रेस और राकांपा का सहारा मिल सकता है। इसी तरह बिहार में जदयू और राजद की दोस्ती रंग ला सकती है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने भाजपा के साथ राजनीति करते हुए अपनी जमीन तैयार की है। इसी तरह बिहार में भाजपा के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ते आ रहे जदयू भी त्रिपुरा से सबक लेने की स्थिति में होगा। हालांकि 2015 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की जीत ने इस तर्क को झुठला दिया है कि कार्यकर्ताओं के स्तर पर तालमेल मुश्किल है।

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