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कैसे युद्ध के शोर में गुम हो गया हिंदी-चीनी, भाई-भाई का नारा, पढ़ें- ये रिपोर्ट

तिब्‍बत विद्रोह और दलाई लामा की भारत में शरण की घटना ने देशों के बीच विवाद और तनाव शुरू हुआ। इसकी परिणति एक युद्ध के रूप में हुई।

By Ramesh MishraEdited By: Updated: Wed, 21 Nov 2018 12:19 PM (IST)
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कैसे युद्ध के शोर में गुम हो गया हिंदी-चीनी, भाई-भाई का नारा, पढ़ें- ये रिपोर्ट
नई दिल्‍ली [ जागरण स्‍पेशल ] । 1949 में भारत-चीन की दोस्‍ती से शुरू हुआ सिलसिला 1954 तक गाढ़ी दोस्‍ती में तब्‍दील हो गया। लेकिन चीनी मानचित्र में भारतीय भू-भाग दिखाए जाने के साथ तिब्‍बत विद्रोह और दलाई लामा की भारत में शरण की घटना ने देशों के बीच विवाद और तनाव शुरू हुआ। इसकी परिणति एक युद्ध के रूप में हुई। तब से दोनों देशों के बीच सीमा विवाद और द्पिक्षीय मुद्दों के बीच शांतिपूर्ण गतिरोध जारी है। आइए जानते हैं, दोनों देशों के बीच शुरू हुई दोस्‍ती से तनाव और युद्ध तक के सफर की एक झ‍लकियां।

शिखर पर दोस्‍ती: हिंदी-चीनी, भाई-भाई

1949 में भारत गणराज्‍य की आजादी और पीपुल्‍स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के गठन के साथ, भारत सरकार ने चीन के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने का ऐलान किया था। 1954 में चीन और भारत ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्‍व के पांच सिद्धांतों का प्रदिपादन किया। इसके तहत भारत ने तिब्‍बत में चीनी शासन को स्‍वीकार किया। इस समय भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हिंदी-चीनी, भाई-भाई का नारा दिया। उस वक्‍त भारत-चीन की गाढ़ी दोस्‍ती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, जापान में आयोजित एक शांति संधि सम्‍मेलन में चीन को आमंत्रित नहीं किए जाने से नाराज भारत ने इसमें हिस्‍सा नहीं लिया। दरअसल, इस शांति वार्ता में कई मुद्दों पर चीनी राय विलग थी। इसलिए चीन को इस सम्‍मेलन में नहीं बुलाया गया था।

1954 के चीनी मानचित्र में भारत का बड़ा भू-भाग

जुलाई, 1954 में जब भारत और चीन में हिंदू-चीनी, भाई-भाई के नारे लगाए जा रहे थे, उस वक्‍त भारतीय क्षेत्र के 120,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग को चीनी मानचित्रों में दिखाया जा रहा था। इस बाबत नेहरू ने मानचित्र में संशोधन के लिए चीन को एक मेमो भी दिया। इस गंभीर मामले को चीनी सरकार ने यह कहकर टाल दिया कि नक्‍शे में त्रुटियां है। फ‍िलहाल चीन ने बहुत चतुराई से नक्‍शे में त्रुटि कहकर मामले को टाल गया। लेकिन बाद में भारतीय-चीन सीमा विवाद दोनों देशों के बीच कटू संबंधों की एक बड़ी वजह बनी।

1959 में हुए तिब्बती विद्रोह की आंच भारत

चीन में 1959 में हुए तिब्बती विद्रोह की आंच भारत-चीन संबंधों पर पड़ी। इस विद्रोह के बाद भारत ने दलाई लामा को अपने देश में शरण दी, यह घटना चीन को अखर गई। इसके साथ ही दोनों देशों के बीच दूरियां बढ़ती गई। इस बीच माओ से-तुंग ने कहा कि तिब्बत में ल्हासा विद्रोह भारतीयों के कारण हुआ था। इस कटुता की परिणति एक युद्ध के रूप में हुई। इसके बाद भारत-चीन सीमा पर हिंसक घटनाओं को एक दौर शुरू हुआ। 1962  की गर्मियों में भारत-चीन सीमा पर सैन्‍य संघर्ष की घटनाएं बढ़ीं।

20 अक्टूबर 1962 को युद्ध में तब्‍दील हुआ तनाव

भारतीय आशाओं के विपरीत चीनी सेना ने 20 अक्टूबर, 1962 को लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू कर दिए। चीनी सेना दोनों मोर्चे में पश्चिमी क्षेत्र में चुशूल में रेजांग-ला एवं पूर्व में तवांग पर अवैध कब्ज़ा कर लिया। भारत युद्ध के लिए बिल्‍कुल तैयार नहीं था न ही उसकी कोई तैयारी थी। यही वजह थी कि चीन के 80,000 हजार सैनिकों के सामने महज दस से बीस हजार सैनिक मोर्चा संभाल रहे थे। इस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा। करीब एक माह तक चले युद्ध के बाद चीन ने 21 नवंबर, 1962 को युद्ध विराम की घोषणा की। इसके साथ ही चीन ने विवादित दो क्षेत्रों में से एक से अपनी वापसी की घोषणा भी की। हलांकि, अक्साई चिन से भारतीय पोस्ट और गश्ती दल हटा दिए गए थे, जो संघर्ष के अंत के बाद प्रत्यक्ष रूप से चीनी नियंत्रण में चला गया।

आजाद भारत के लिए यह पहला थोपा हुअा युद्ध था। दुर्गम क्षेत्र में लड़ा जाने वाला यह युद्ध भारतीय सेना के लिए बड़ी चुनौती थी। इस युद्ध में ज्यादातर लड़ाई 4250 मीटर यानी 14,000 फीट से अधिक ऊंचाई पर लड़ी गई। इस प्रकार की परिस्थिति ने दोनों पक्षों के लिए रसद और अन्य लोजिस्टिक समस्याएँ प्रस्तुत की। खास बात यह है कि इस युद्ध में चीनी और भारतीय दोनों पक्षों द्वारा नौसेना या वायु सेना का उपयोग नहीं किया गया था।

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