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C. V. Raman Death Anniversary: विज्ञान से था लगाव इसलिए निर्विरोध उपराष्ट्रपति भी नहीं बने

C. V. Raman Death Anniversary डॉ.सीवी रमन का विज्ञान के प्रति काफी लगाव था इस वजह से उन्होंने उपराष्ट्रपति पद तक लेने से मना कर दिया था।

By Vinay TiwariEdited By: Updated: Thu, 21 Nov 2019 08:40 AM (IST)
C. V. Raman Death Anniversary: विज्ञान से था लगाव इसलिए निर्विरोध उपराष्ट्रपति भी नहीं बने
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। C. V. Raman Death Anniversary: प्राचीन भारत के ऋषि मुनियों ने देश को आयुर्वेद और शून्य जैसी चीजें दी जिसका पूरी दुनिया में इस्तेमाल हो रहा है। विज्ञान की दृष्टि से भी प्राचीनतम भारत ने कई उपलब्धियां हासिल की है। जैसे शून्य और दशमलव प्रणाली की खोज, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने की खोज तथा आयुर्वेद के फॉर्मुले आदि की खोज।

लेकिन दुर्भाग्यवश इन सब खोजों के बावजूद भी भारत में पूर्णरूप से विज्ञान के प्रयोगात्मक कोण में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी, ऐसे में महान भारतीय वैज्ञानिक सी वी रमन ने पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए भारत को वैज्ञानिक दृष्टि से मजबूत बनाने में अपना सफल योगदान दिया। इन्हीं वैज्ञानिकों में एक नाम सीवी रमन (चंद्रशेखर वेंकट) का भी आता है। आज 21 नवंबर को उनकी पुण्यतिथि है।

विज्ञान के प्रति था लगाव

देशवासी उनको वैज्ञानिक शोध और युवाओं में विज्ञान के प्रति लगाव पैदा करने के लिए याद करते हैं। वर्ष 1906 में एम. ए. की परिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें वित्त विभाग के जनरल एकाउंटेंट के पद पर नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी में इतना ऊंचा पद पाने वाले रमन पहले भारतीय थे। हालांकि उन्हें यह नौकरी ज्यादा समय तक रास न आई। इनके पिता चन्द्रशेखर अय्यर एस. पी. जी. कॉलेज में भौतिकी के प्राध्यापक थे और माता पार्वती अम्मल एक सुसंस्कृत परिवार की महिला थीं। देश के ज्यादातर लोग उन्हें भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप में जानते है। लेकिन शोध करने और नोबल पुरस्कार जीतने से पहले डा. रमन सरकारी नौकरी करके अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रहे थे। 

तीव्र बुद्धि के थे रमन, 11 साल में पास किया मैट्रिक

सीवी रमन बचपन से ही तीव्र बुद्धि के थे, उन्होंने 11 साल की उम्र में मैट्रिक पास कर ली थी, इतना ही नहीं सीवी रमन ने तत्कालीन एफए परीक्षा स्कालरशिप के साथ 13 साल की उम्र में पूरी की थी, जोकि आज की इंटरमीडिएट के बराबर होती है। रमन ने रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे इनके हृदय पर भारतीय गौरव की अमिट छाप थी। इनके पिता उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने के पक्ष में थे किंतु एक ब्रिटिश डॉक्टर ने उनके स्वास्थ्य को देखते हुए विदेश न भेजने का परामर्श दिया। फलत: इनको स्वदेश में ही अध्ययन करना पड़ा।

आवाज पसंद आई तो शादी की इच्छा जताई

उन्होंने 1902 में मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया, इसी कॉलेज में उनके पिता प्रोफेसर थे। बताया जाता है कि डॉ.रमन को एक लड़की की आवाज इतनी अधिक पसंद आई कि वो अगले दिन उस लड़की के माता-पिता से मिलने पहुंच गए और परिजनों से उनकी बेटी से विवाह की इच्छा जताई। उस लड़की का नाम लोकसुंदरी था। लोकसुंदरी के माता-पिता उसका विवाह रमन के साथ करने के लिए तैयार हो गए। 

सरकारी नौकरी छोड़ भौतिक विज्ञान के अध्यापक बने

सन 1917 में सीवी रमन ने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। त्यागपत्र देने के बाद वो कोलकाता के एक नए साइंस कॉलेज में भौतिक विज्ञान के अध्यापक बन गए। दरअसल यहां उनके पास भौतिकी से जुड़े रहने का मौका था। भौतिकी के प्रति उनके इसी जुड़ाव ने उन्हें भौतिकी के क्षेत्र में सम्मान दिलाया। डा. रमन ने अपने शोध कार्य को आगे बढ़ाया और उन्हें सफलता भी मिली। सन 1922 में CV Raman ने ‘प्रकाश का आणविक विकिरण’'Molecular radiation of light'नामक मोनोग्राफ का प्रकाशन कराया।

नोबेल पुरस्कार के लिए किया गया चयन

सन 1930 में सीवी रमन को ‘नोबेल पुरस्कार’ के लिए चुना गया। रुसी वैज्ञानिक चर्ल्सन, यूजीन लाक, रदरफोर्ड, नील्स बोअर, चार्ल्स कैबी और विल्सन जैसे वैज्ञानिकों ने नोबेल पुरस्कार के लिए रमन के नाम को प्रस्तावित किया था।

नहीं बने थे उपराष्ट्रपति

भारत सरकार की ओर से सन 1952 में उनके पास भारत का उपराष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव आया। इस पद के लिए सभी राजनितिक दलों ने उनके नाम का समर्थन किया था। ऐसे में उनका निर्विरोध उपराष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय था। लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और विज्ञान की दिशा में अपना कार्य जारी रखा।

युवाओं में रहेगी मौजूदगी

डा. सीवी रमन की मृत्यु 21 नवंबर 1970 को हो गई थी। वो युवाओं में विज्ञान के प्रति ललक जगा गए, डा. रमन आज हर युवा में महसूस किए जा सकते हैं। आज उनकी मौजूदगी नहीं है, लेकिन अपने शोध कार्य ‘रमन प्रभाव’की वजह से युवाओं के दिलों में मौजूद हैं।

भारत रत्न की उपाधि

1954 में भारत सरकार की ओर से उन्हें भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके बाद साल 1957 में लेनिन शांति पुरस्कार प्रदान किया गया था।