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...जब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था पुनरुद्धार के दौर से गुजर रही थी

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्ष 1944 में अमेरिका के न्यू हैंपशायर में हुए ब्रिटेन वुड्स समझौते में 44 मित्र राष्ट्रों के 730 प्रतिनिधियों द्वारा वैश्विक मुद्रा के रूप में अमेरिकी डालर को मान्यता दी गई जो स्वर्ण के साथ परिवर्तनीय था।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 07 Nov 2022 07:45 PM (IST)
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बाजार पर प्रभुत्व कायम करने की होड़
नई दिल्‍ली, जेएनएन। यदि डालर को लेकर सही निष्कर्षों तक जाना है तो कहानी को थोड़ा पीछे तक जाकर देखने की जरूरत होगी यानी 1944 से लेकर 1971 तक के कालखंड को देखना होगा जब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था पुनरुद्धार के दौर से गुजर रही थी। इस दौर में यह धारणा बल पकड़ने लगी थी कि द्वितीय महायुद्ध के पश्चात जिन मौद्रिक, वित्तीय, व्यापारिक, संस्थानिक तथा अन्य प्रणालियों और ढांचों का विकास हुआ उनसे केवल विकसित देशों को लाभ पहुंचा या कहें कि अमेरिकी खेमे का लाभ पहुंचा। इस व्यवस्था से एक तरफ खीझ उपज रही थी, वहीं दूसरी तरफ यह भी कि विकसित होने के लिए कुछ करना पड़ेगा।

पिछली सदी के अंतिम दशक में कुछ देशों, विशेषकर चीन जैसे देश को मंत्र मिल गया और यह मंत्र था शक्तिशाली बनने का। लेकिन वह शक्तिशाली तभी बन सकता था, जब बाजार पर प्रभुत्व कायम करे। चीन यह भी देख चुका था कि सैन्य महाशक्ति होते हुए भी सोवियत संघ ताश के पत्तों के मानिंद बिखर गया था, इसलिए उसे पहले बाजार के क्षेत्र में सर्वशक्तिमान बनने की चाहत पैदा करनी पड़ेगी और उस दिशा में आगे बढ़ना होगा। इस दिशा में विचार करते समय ही वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अगर शक्तिशाली बनना है तो दुनिया को एक ऐसे बाजार में तब्दील कर दो जिसमें सप्लाई चेन का नियंत्रण उसके कब्जे में हो। इससे पहले ही डालर अपना दबदबा कायम कर चुका था।

दरअसल द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्ष 1944 में अमेरिका के न्यू हैंपशायर में हुए ब्रिटेन वुड्स समझौते में 44 मित्र राष्ट्रों के 730 प्रतिनिधियों द्वारा वैश्विक मुद्रा के रूप में अमेरिकी डालर को मान्यता दी गई जो स्वर्ण के साथ परिवर्तनीय था। इससे अमेरिका को डालर छापने का अधिकार और क्षमता दोनों ही मिल गए, जबकि शेष देशों ने अपनी मुद्राओं को डालर से ही जोड़ना उचित समझा। इस व्यवस्था ने अमेरिकी डालर को ग्लोबल करेंसी के रूप प्रतिष्ठा और सर्वोच्चता प्रदान कर दी। अब डालर चुनौती विहीन विजेता था और शेष मुद्राएं उसकी चेरी। इसका परिणाम यह हुआ कि अगस्त 1971 में अमेरिका ने ब्रेटन वुड्स प्रणाली को ठेंगा दिखाते हुए स्वतंत्र रास्ता अपना लिया। लेकिन लगभग इन तीन दशकों में डालर वैश्विक मुद्रा व्यवस्था का चुनौती विहीन नेता बन चुका था जो अब तक बना हुआ है।

कभी अमेरिका के मित्र रहे सद्दाम हुसैन ने डालर को चुनौती देने के लिए यूरो से यारी करने की कोशिश की थी, लिहाजा उसे रासायनिक हथियारों के बहाने खत्म कर दिया गया। हां, 21वीं सदी के आरंभ से चीन ने इसे चुनौती देने की कोशिश की है जिसमें वह सफल तो नहीं हुआ, लेकिन दबाव बनने में कारगर रहा है। वैसे चीन अपनी मुद्रा के प्रतियोगी अवमूल्यन के माध्यम से डालर को चुनौती देने की कोशिश करता रहा है।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]