जब दक्षिण एशिया के इस देश में अमेरिका को जंग में मिली थी करारी हार, 20 वर्षों तक चली थी लड़ाई
ताइवान को लेकर आमने सामने आए चीन और अमेरिका का इतिहास बड़ा ही रोचक है। ये पहला मौका नहीं है कि जब ये किसी तीसरे एशियाई देश को लेकर आमने-सामने आ रहे हों। इससे पहले भी ये हो चुका है।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Thu, 18 Aug 2022 10:14 AM (IST)
नई दिल्ली (आनलाइन डेस्क)। अमेरिका और चीन के बीच जो आपसी द्वेष आज अपने चरम पर पहुंचता दिखाई दे रहा है वो इन दोनों के इतिहास की ही देन है। ताइवान को लेकर मौजूदा समय में दोनों देश आमने सामने हैं। कोई नहीं जानता है कि ये इस मुद्दे पर कितनी देर युद्ध की स्थिति से खुद को दूर रख सकेंगे। ये भी कहना मुश्किल है कि यदि ताइवान के मुद्दे पर युद्ध हुआ तो उसका नतीजा क्या होगा। बहरहाल, यहां पर ये बात बेहद खास है कि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि ये दोनों देश किसी तीसरे देश को लेकर इस तरह से आमने सामने या युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। इससे पहले नवंबर 1955 में ये दोनों ही तीसरे देश के लिए आपस में भिड़ चुके हैं। ये युद्ध 20 साल तक चला था। इतिहास में इसको वियतनाम युद्ध के नाम से जाना जाता है।
वियतनाम युद्ध और अमेरिका वियतनाम युद्ध की शुरुआत 1 नवंबर 1955 में हुई थी और ये 30 अप्रैल 1975 को खत्म हुआ था। दो दशक तक चले इस युद्ध में उत्तर और दक्षिण वियतनाम के बीच भीषण जंग हुई थी। दक्षिण को अपने साथ मिलाने के नाम पर इस जंग की शुरुआत हो-ची-मिन ने की थी। इस जंग में उसका साथ चीन के अलावा तत्कालीन सोवियत संघ और उत्तर कोरिया ने सीधेतौर पर दिया था। इनके अलावा चैकस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, रोमानिया, हंगरी, बुल्गारिया, क्यूबा ओर स्वीडन ने इनका समर्थन किया था। ये जंग कम्यूनिस्ट बनाम अदर्स को लेकर थी।
अमेरिका की मंशा अमेरिका नहीं चाहता था कि कम्यूनिस्म की जड़ें दक्षिण वियतनाम में भी फैलें। उत्तर में इसकी जड़ेंकाफी गहराई तक थीं। अमेरिका ये भी नहीं चाहता था कि कम्यूनिज्म उत्तरी वियतनाम के अलावा लाओस और कंबोडिया में भी अपना विस्तार कर सके। इसको रोकने के मकसद से अमेरिका इस जंग में दक्षिण वियतनाम के समर्थक के रूप में शामिल हुआ था। यहां पर उसका साथ कम्यूनिस्ट विचारधारा के विरोधी देश दे रहे थे। इनमें दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, लाओस, कंबोडिया, खमेर रिपब्लिक, थाईलैंड और फिलीपींस शामिल थे। इन्हें ताइवान मलेशिया, सिंगापुर, पश्चिमी जर्मनी, स्पेन, इटली और ब्रिटेन ने समर्थन दिया था।
लाओस, कंबोडिया के अलावा वियतनाम बना कम्यूनिस्ट देश अमेरिका ने इस लड़ाई में सीधेतौर पर हिस्सा न लेने का फैसला जंग की शुरुआत के 18 वर्ष बाद लिया था। उस वक्त तक ये युद्ध वियतनाम की सीमा से बाहर निकलकर लाओस और कंबोडिया तक पहुंच चुका था। इस अंत अमेरिका की विफलता से हुआ था। 1975 में उत्तर और दक्षिण वियतनाम एक हो गए। इनके अलावा लाओस और कंबोडिया भी एक कम्यूनिस्ट देश बन गया था।
जंग से बाहर निकलने के लिए समझौते का सहारा अमेरिका ने यहां से बाहर निकलने से पहले ठीका वैसा ही एक समझौता किया था जैसा अफगानिस्तान में देखने को मिला था। इसको इतिहास में पेरिस पीस एकोर्ड के नाम से जाना जाता है। इस जंग के बाद शरणार्थियों की समस्या ने विकराल रूप ले लिया था। कंबोडिया में भीषण नरसंहार देखने को मिला था। 1976 में वियतनाम सोशलिस्ट रिपब्लिक आफ वियतनाम के रूप में दुनिया के सामने आया था। इस जंग में उत्तर वियतनाम की तरफ से करीब 9 लाख और दक्षिण वियतनाम की तरफ से 14 लाख से अधिक जवानों ने हिस्सा लिया था। इनमें विदेशी सैनिक भी शामिल हैं।
अमेरिका की विफलता की कहानी कहता वियतनाम युद्ध 2 दशक तक चली इस जंग में दोनों तरफ से 13 लाख से अधिक जवानों की मौत हुई थी जिनमें 3.25 लाख दक्षिण वियतनाम के और 58 हजार से अधिक अमेरिका के जवान भी शामिल थे। इसके अलावा 6.12 लाख आम नागरिक मारे गए थे। दोनों तरफ से इस जंग में करीब 20 लाख जवान घायल हुए थे। 10 लाख जवान कैदी बनाए गए थे। अमेरिका के ही इस जंग में 3 लाख जवान घायल हुए थे। वियतनाम युद्ध अमेरिका के उन विफल जंगों में से एक है जिसमें वर्षों तक शामिल रहने के बाद उसको केवल हार का ही मुंह देखना पड़ा है। इस जंग में अमेरिका ने पानी की तरफ पैसा बहाया था। इसके बाद भी उसको कुछ हासिल नहीं हो सका। अब अमेरिका फिर ताइवान को लेकर चीन के सामने है।