वेलुपिल्लई प्रभाकरण, एक श्रीलंकाई तमिल गुरिल्ला और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) का संस्थापक था। इस संस्था का गठन साल 1976 में किया गया था। लिट्टे ने श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में एक स्वतंत्र तमिल राज्य बनाने की मांग की थी। लिट्टे ने लगभग तीन दशकों तक वहां लोगों के मन में दहशत बनाए रखी थी। इसके बाद, श्रीलंका सरकार और सेना ने 2009 में लिट्टे के सारे विद्रोहियों को मार दिया और चीफ प्रभाकरण को मौत के घाट उतार दिया था।
क्यों शुरू हुई तमिल और सिंहलियों के बीच लड़ाई?
श्रीलंका में आजादी के बाद से ही सिंहली और तमिल समुदाय के बीच द्वंद था। माना जाता है कि वहां पर तमिलों की अनदेखी कर के सिंहलियों को ज्यादा महत्ता दी गई थी। सिंहली को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया। इससे नौकरियों और बाकी चीजों में तमिलों की अनदेखी होने लगी। इससे उनमें असुरक्षा और विद्रोह की भावना पैदा हुई। कई तमिल संगठनों ने इसका विरोध किया, जिनमें से सबसे खतरनाक LTTE ही था।
स्वतंत्र राज्य की मांग करता था प्रभाकरण
वेलुपिल्लई प्रभाकरण हमेशा से एक स्वतंत्र तमिल राज्य बनाने की मांग करता था। समय के साथ स्थितियां और गंभीर होती चली गईं। श्रीलंका में कई बार सिंहली और तमिलों में विद्रोह हुआ और देश में गृह-युद्ध जैसी स्थितियां बन गई थी। 23 जुलाई, 1983 को LTTE के गुरिल्ला लड़ाकों ने 13 श्रीलंकाई सैनिकों को मार गिराया। जिसके बाद पूरे देश में हिंसा भड़क गई। इस हिंसा में लगभग 3 हजार तमिल मारे गए थे।
1986 से बिगड़ने लगे हालात
1986 तक श्रीलंका सरकार और LTTE के उपद्रवियों के बीच हालात बिगड़ते ही जा रहे थे। वहीं, श्रीलंका सरकार ने भी लिट्टे के लोगों को काबू में करने के लिए हर कोशिश की। जनवरी 1987 में राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने ने LTTE और तमिलों के गढ़ जाफना में मिलिट्री शासन लागू कर दिया और वहां पर 10 हजार सैनिकों को तैनात कर दिया गया था।
भारत को मजबूरी में भेजनी पड़ी सेना
1987 के बाद से ही श्रीलंका सरकार ने लिट्टे का दमन करने के लिए अपने प्रयासों को और मजबूत कर दिया। उन्होंने हवाई हमले शुरू किए। 1987 में श्रीलंकाई सेना ने जाफना शहर को घेर लिया। तब भारत सरकार ने श्रीलंका से तमिलों के खिलाफ हिंसा रोकने की अपील के साथ-साथ उसे चेतावनी भी दी, लेकिन सिंहली मूल के जयवर्धने पर इसका कोई असर नहीं हुआ। इसी बीच श्रीलंका ने भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करना शुरू कर दिया था। 1987 में श्रीलंका की नजदीकियां चीन और पाकिस्तान के साथ बढ़ने लगी थी। इससे भारत को नुकसान हो सकता था। चीन-पाकिस्तान से नजदीकी के चलते भारत ने मजबूरी में वहां पर अपनी सेना भेजी थी।
प्रभाकरण ने मानी राजीव गांधी की बात
जुलाई 1987 में श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच शांति कराने की बात शुरू हो गई। भारत सरकार मध्यस्थ की भूमिका में थी। लेकिन प्रभाकरण कोई समझौता नहीं करना चाहता था। वह अलग राज्य बनाने की मांग पर ही अड़ा रहा था। उसे दिल्ली बुलाया गया। उसने राजीव गांधी से मुलाकात की। उसने राजीव गांधी की बात मानी और साथ ही में शर्त रखी कि देश में शांति स्थापित होने के बाद उसे श्रीलंका सरकार में अहम भूमिका दी जाए। इसके बाद 29 जुलाई 1987 को कोलंबो में तीनों पक्षों ने शांति समझौते पर साइन किए। इस समझौते का असर हुआ, श्रीलंका में सरकार और लिट्टे की बीच लड़ाई रूक गई।
शांति के लिए गए, लेकिन जंग में फंस गए
श्रीलंकाई सेना की वापसी के बाद और जाफना में चुनाव होने तक शांति बहाल रखने का काम भारत को दिया गया था। इसके लिए इंडियन पीसकीपिंग फोर्स यानी IPKF का गठन करके वहां भेजा गया था। भारतीय सेना के लगभग 80 हजार सैनिकों को श्रीलंका भेजा गया। माना जा रहा था कि लिट्टे समर्थक भारतीयों से नहीं लड़ेंगे, इसलिए भारत की फोर्स केवल निगरानी करेगी। लेकिन, इसी दौरान प्रभाकरण ने शांति समझौते को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने भारतीय सेना पर ही हमला करना शुरू कर दिया। लेकिन भारतीय सेना ने उन्हें काबू में करने के लिए रणनीति तैयार की।
भारतीय सेना पर लिट्टे ने किया हमला
सेना ने लिट्टे के हेडक्वार्टर पर कब्जे की रणनीति बनाई। इसके लिए 10 पैरा कमांडोज को जाफना यूनिवर्सिटी में LTTE के हेडक्वार्टर पर नियंत्रण करने के लिए भेजा गया था। अंधेरी रात में 50 सैनिकों को हेलिकॉप्टरों से वहां भेजा गया था। अभियान को गुप्त रखने के लिए हेलीकॉप्टर की सारी लाइट बंद कर दी गई थीं। लिट्टे के हेडक्वार्टर पर दो-दो की संख्या में 4 हेलीकॉप्टर को वहां उतरना था, लेकिन जब पहले 2 हेलिकॉप्टर उतरने लगे तो उनकी तरफ तेज फायर हुआ। इसके बाद हेलिकॉप्टर्स की दूसरी टीम आई, जिसमें 53 कमांडो थे। लिट्टे ने उस पर भी ताबड़तोड़ फायर किया, जिससे भारतीय सेना को वहां से पीछे हटना पड़ा। गोलीबारी से हेलिकॉप्टर्स में बड़े-बड़े छेद हो गए। हेलिकॉप्टर में 17 छेद थे। सिख एलआई के 29 जवान शहीद हो गए। जबकि 31 जवान वहां उतरने में कामयाब रहे।
भारतीय सेना के 1165 जवान हुए शहीद
1989 में राजीव गांधी चुनाव हार गए और वीपी सिंह की सरकार बनी। 1990 में 32 महीने बाद भारतीय सेना ने इस कार्रवाई को स्थगित कर अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। 15 दिसंबर 1999 को रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने राज्यसभा में बताया कि श्रीलंका में भारतीय सेना के 1165 जवान शहीद हुए और 3009 जवान घायल हुए थे।
प्रभाकरण के खात्मे की शुरुआत
भारतीय सेना की वापसी के बाद से भी वहां लगातार श्रीलंका सरकार और लिट्टे में जंग चलती रही। फरवरी 2002 में नॉर्वे की मध्यस्थता से श्रीलंका सरकार और लिट्टे युद्ध विराम के समझौते पर राजी हुए। हालांकि, 2006 तक सीजफायर खत्म हो गया। इसके बाद जनवरी 2008 में लिट्टे ने दोबारा से हमला किया। उसने कोलंबो में एक सैन्य अस्पताल में सैनिकों को ले जा रही बस को निशाना बनाया। इसके बाद राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की सरकार ने LTTE के साथ सीजफायर समझौते को खत्म करने का ऐलान कर दिया। हालांकि प्रभाकरण को लगा कि सरकार उससे फिर समझौता करने के लिए राजी होगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
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33 साल बाद मारा गया प्रभाकरण
श्रीलंकाई सेना ने इस दौरान बड़ा ऑपरेशन चलाया और जनवरी 2009 में LTTE की प्रशासनिक राजधानी किलिनोच्ची पर कब्जा कर लिया। इसी समय से लिट्टे का श्रीलंका से पूरी तरह से सफाया होना शुरू हो गया। 17 मई 2009 को श्रीलंकाई सेना ने बड़ा हमला किया। इसमें सारे LTTE विद्रोही मारे गए और सेना के साथ हुई झड़प में प्रभाकरण भी मारा गया। 18 मई को श्रीलंका की सेना ने दावा किया कि बख्तरबंद वैन में अपने साथियों के साथ भागते वक्त प्रभाकरण भी मारा गया। उसके पीछे बस में भी LTTE के लड़ाके थे। दो घंटे की गोलीबारी के बाद श्रीलंकाई सैनिकों ने वैन पर एक रॉकेट दागा जिसमें प्रभाकरण की मौत हो गई।
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