Move to Jagran APP

Katchatheevu Island: किसने बांटा देश का हिस्सा, कच्छथीवू का काला किस्सा

साल 1974 में जून-अगस्त के बीच दो बैठकें हुईं पहली दिल्ली में और दूसरी कोलंबो में। एक दोस्त ने दूसरी से तोहफा मांगा और उसने बेझिझक मां के शरीर से टुकड़ा काटकर उसे दे दिया। कच्छथीवू अब श्रीलंका का था शेष सब इतिहास है। न कोई जनमत संग्रह हुआ था न संसद में प्रस्ताव बस एक तानाशाही फैसला दो हस्ताक्षर और कच्छथीवू द्वीप पर लहराने लगा श्रीलंका का झंडा।

By Jagran News Edited By: Narender Sanwariya Updated: Mon, 01 Apr 2024 06:47 PM (IST)
Hero Image
सन 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने श्रीलंका ‘कच्छथीवू द्वीप’ दे दिया था। (Photo Jagran)
मनीष त्रिपाठी, नई दिल्ली। न कोई जनमत संग्रह, न संसद में कोई प्रस्ताव, न ही कोई संविधान संशोधन और भारत का एक द्वीप जैसे केक के टुकड़े की तरह काटकर दे दिया गया श्रीलंका को। 50 साल पुराना दोस्ती का यह नजराना अब दक्षिण का नासूर है और भारत की संप्रभुता-सुरक्षा को चुनौती भी, क्योंकि जहां कोई नहीं रहता था वहां अब है श्रीलंका की नौसेना का अड्डा। वही देश, जो लगभग दीवालिया होकर फंसा है चीन के चंगुल में, मनीष त्रिपाठी का आलेख...

इतिहास पर प्रतीकों की गहरी छाया होती है और होती है विवादों की धुंध। मगर सत्य का सूरज अपनी चमक से इस अंधेरे को चीरकर समय की एक-एक शिला को चमका देता है। 50 साल बाद पाक जलडमरूमध्य में भी वही प्रकाश फूटा है जिसने इतिहास के पीले पड़ चुके पन्नों को सुलगा दिया है और दग्ध हो गया है हर भारतवासी का हृदय।

हां, नाम की तासीर यहां जरूर अपनी पूरी तल्खी में मौजूद है। यहां भी भारत माता को विभाजन का दंश झेलना पड़ा है, मगर वजह कोई दहशत, दबाव या दबंगई नहीं थी। बस एक जैसे मिजाज की वजह से 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश का एक टुकड़ा काटकर दोस्ती के नाम पर श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरीमावो भंडारनाइके को सौंप दिया था और इसका नाम था ‘कच्छथीवू द्वीप’।

यह रामेश्वरम (तमिलनाडु) से करीब 14 समुद्री मील (लगभग 25 किलोमीटर) की दूरी पर बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर के नीले पानी के बीच स्थित लगभग डेढ़ वर्ग किलोमीटर की वह जगह है, जिसे अपने ही देश ने बड़ी खामोशी से ‘काला पानी’ की सजा सुना दी।

प्रत्येक भारतीय के आराध्य तीर्थ श्रीरामसेतु से जुड़ा यह ज्वालामुखी विस्फोट से उत्पन्न द्वीप एक संधि के नाम पर भारत के संप्रभु क्षेत्र से निष्कासित कर दिया गया, दक्षिण की दर्द भरी आवाजें दबाई जाती रहीं, जब तक कि 10 अगस्त, 2023 को संसद में अविश्वास प्रस्ताव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सिंहगर्जना नहीं गूंजी। उनके गंभीर स्वर में तमिलनाडु गरज रहा था, दक्षिण भारत गरज रहा था और था कुपित-व्यथित मां भारती का गर्जन, तमिलनाडु से आगे और श्रीलंका से पहले एक द्वीप है, किसी ने किसी दूसरे देश को दे दिया था। क्या वो मां भारती का अंग नहीं था!

इतिहास में इसका एक शब्द में ठोस जवाब है ‘हां’। भारत के इस भूभाग पर उन अंग्रेजों को भी कोई शंका नहीं थी, जिनकी नीति ही ‘बांटो और राज करो’ की थी। यह द्वीप भारत की तरफ से रामेश्वरम और श्रीलंका की तरफ से जाफना के निकट पड़ता है, वही जाफना जिसका जिक्र यहां भी जरूरी है और आगे भी होगा।

निकट होने की वजह से पूर्व मध्यकाल में जाफना के शासक इस पर काबिज होने की कोशिशें करते रहे, उनके दरबारी इतिहासकार इसे उनके विजय अभियान के रूप में चित्रित करते रहे परंतु यहां शासन और सिक्का चलता था मदुरै (तमिलनाडु) के रामनद राजवंश का।

श्रीरामसेतु क्षेत्र से संबंधित होने के कारण इस राजवंश के शासक ‘सेतुपति’ की उपाधि धारण करते थे। 1795 में वारिस के विवाद में फंसाकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने यह साम्राज्य हड़पकर इसे मद्रास प्रेसीडेंसी की जमींदारी घोषित कर दिया था।

वक्त के साथ कंपनी राज खत्म हुआ और ब्रिटिश शासन शुरू हुआ। तब मद्रास प्रेसिडेंसी और सीलोन (तत्कालीन श्रीलंका) दोनों पर ही अंग्रेज काबिज थे और सीलोन बार-बार कच्छथीवू पर दावा कर रहा था। 1921 में तो वाद-विवाद बहुत बढ़ा मगर इतिहास और इसी वजह से द्वीप का स्वामित्व भारत के पक्ष में था।

नतीजतन, अंग्रेज जाते-जाते भारत-पाकिस्तान को तो बांट गए पर कच्छथीवू को छू भी नहीं सके। मां भारती की यह समुद्रमणि अब भी उसका शृंगार थी।

स्वाधीनता के बाद बंगाल की खाड़ी में कितने ही ज्वार आए, हिंद महासागर में कितने ही तूफान उठे, मगर कच्छथीवू भारत की संप्रभुता में सुरक्षित था। भारतीय मछुआरे वहां तक मुक्त विचरण करते, मत्स्य आखेट करते और द्वीप पर जाल सुखाते- विश्राम करते थे।

छोटे-मोटे टकराव के साथ लगभग ढाई दशक तक सब कुछ शांत चल रहा था कि भारतीय उपमहाद्वीप में प्रधानमंत्रियों के रूप में सत्ता के दो नए उभार प्रदर्शित होने लगे, भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी और श्रीलंका में सिरीमावो भंडारनायके। दोनों में इतने गुण मिलते थे कि दोस्ती होनी स्वाभाविक थी।

एक सी तेजी, एक सा मिजाज और विपक्ष की एक सी अनदेखी के अलावा उनमें बाद के बरसों में एक और ऐतिहासिक सम्यता देखी गई थी- अपने देश में आपातकाल थोपना!

खैर बात करते हैं उस बरस की, जब दोनों ने मिलकर भारत-श्रीलंका की समुद्री सीमा तय की। साल था 1974 और जून-अगस्त के बीच दो बैठकें हुईं, पहली दिल्ली में और दूसरी कोलंबो में। एक दोस्त ने दूसरी से तोहफा मांगा और उसने बेझिझक मां के शरीर से टुकड़ा काटकर उसे दे दिया।

कच्छथीवू अब श्रीलंका का था, शेष सब इतिहास है। न कोई जनमत संग्रह हुआ था, न संसद में प्रस्ताव, न ही संविधान संशोधन, बस एक तानाशाही फैसला, दो हस्ताक्षर और कच्छथीवू द्वीप पर लहराने लगा श्रीलंका का झंडा।

करुणानिधि कहते रह गए, जयललिता सुप्रीम कोर्ट तक गईं, तमिलनाडु विधानसभा में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव तक पारित किया गया कि कच्छथीवू वापस चाहिए, मगर इतिहास का पांसा पलट चुका था। जिस द्वीप को निर्जन कहकर इंदिरा गांधी ने अपनी सखी के स्वामित्व में दे दिया था, जाफना में हुए गृहयुद्ध की आड़ को लेकर उस कच्छथीवू में श्रीलंका ने एक मजबूत नौसेना बेस बना दिया है। अधिक भयावह तथ्य यह है कि वित्तीय संकट में फंसा श्रीलंका बुरी तरह से चीन के चंगुल में है।

भारतीय मछुआरे अब साल में केवल एक बार मार्च के महीने में सेंट एंथोनी चर्च के दो दिवसीय उत्सव में कच्छथीवू द्वीप जाते हैं। श्रीलंका की नौसेना के कब्जे से पूर्व इस द्वीप पर इमारत और बसाहट के नाम पर केवल यही चर्च था, जिसका निर्माण भी रामनद राजवंश के धन से हुआ था।

यह भी पढ़ें: 'श्रीलंका को नहीं दी कोई जमीन', कच्चाथीवू द्वीप को लेकर कांग्रेस का भाजपा पर पलटवार, कहा- तमिलनाडु के चुनावों के कारण हो रही राजनीति

साल में केवल यही दो दिन होते हैं जब भारतीय मछुआरों को ‘इंडियारगलुकु चम्मा’ अर्थात ‘भारतीयों के लिए मुफ्त’ की हांक लगाकर हलवा बांटा जाता है। साल के बाकी दिनों में अगर वे इस द्वीप के आस-पास मछली पकड़ते दिख जाएं तो उनकी खातिरदारी सिर्फ हवालात में होती है!

(लेखक- वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)