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'राजनीति में महिलाएं सिर्फ अतिथियों को गुलदस्ता देने के लिए नहीं', खास बातचीत में बोलीं NCW प्रमुख रेखा शर्मा

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में देशभर से सांसद चुनकर भेजने में महिला मतदाताओं की इतनी बड़ी भागीदारी है लेकिन उसी संसद में उनकी तादाद इतनी कम क्यों है? इसके लिए राजनीतिक दलों को क्या करना चाहिए? इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा से दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने विस्तार में चर्चा की।

By Rumani GhoshEdited By: Siddharth Chaurasiya Published: Sat, 29 Jun 2024 08:18 PM (IST)Updated: Sat, 29 Jun 2024 08:18 PM (IST)
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने दैनिक जागरण से कई मुद्दों पर खास बातचीत की। (जागरण फोटो)

जागरण न्यूज नेटवर्क, नई दिल्ली। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में 427 सीटों में से 137 सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले ज्यादा मतदान किया। राजनीतिक आंदोलनों, सभाओं और प्रदर्शनों में भी महिलाओं की भागीदारी पहले के मुकाबले बढ़ी है। महिलाओं का मतदान प्रतिशत बढ़ना उनके सशक्तीकरण का परिचायक है लेकिन जब लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या देखते हैं तो निराशा होती है।

इस बार यानी 18वीं लोकसभा में कुल 74 महिला सदस्य (13.62 प्रतिशत) जीतकर आई हैं, जो 2019 की 78 महिला सदस्यों (14 प्रतिशत) के मुकाबले कम है। यही नहीं पहली बार जीतकर ससंद में पहुंचने वाली महिला सदस्यों की संख्या भी पिछली बार की तुलन में कम है। बेशक भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन महिला सांसदों की संख्या में हम दक्षिणी अफ्रीकी रवांडा सहित अन्य कई देशों से भी काफी पीछे हैं।

देशभर से सांसद चुनकर भेजने में महिला मतदाताओं की इतनी बड़ी भागीदारी है, लेकिन उसी संसद में उनकी तादाद इतनी कम क्यों है? इसकी वजह जानने और देश की महिला आबादी की तुलना में संसद में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो, इसके लिए राजनीतिक दलों को क्या करना चाहिए? इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा से दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने विस्तार में चर्चा की।

पार्टी लाइन से ऊपर उठकर उन्होंने सभी राजनीतिक दलों की उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए कहा कि राजनीति में आने व आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाली महिलाएं मंच पर अतिथियों को सिर्फ गुलदस्ता देने तक ही सीमित न रहें, बल्कि उन्हें कार्यक्रम के मंच पर बैठने वालों में शामिल करें। वह मानती हैं जिन महिला मतदाताओं के बलबूते बड़ी संख्या में पुरुष प्रत्याशी चुनाव जीतकर संसद तक पहुंचते हैं, लेकिन वही राजनीतिक दल टिकट बांटते वक्त उन महिलाओं पर भरोसा नहीं कर पाते हैं।

उनका मानना है कि राजनीतिक दलों के सदस्यों को अब कुछ सीटें महिला कार्यकर्ताओं के साथ बांटना चाहिए, ताकि उन्हें यहां तक पहुंचने का मौका मिले। उन्हें उम्मीद है कि नारी शक्ति वंदन कानून लागू होते ही यह बदलाव दिखेगा।

प्रस्तुत है संसद से लेकर संदेशखाली, मणिपुर से लेकर महिलाओं के मान-सम्मान के मुद्दे पर बातचीत के प्रमुख अंश:

प्रश्न- 18वीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू हो चुका है। पिछले सत्र की तुलना में महिला सांसदों की संख्या घटी है। वर्ष 2019 में जहां 78 और इस बार 74 महिलाएं ही संसद तक पहुंची हैं। लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों को मिला लें, तो भी महिला सांसदों की संख्या सिर्फ 104 ही है। इस परिदृश्य को आप कैसे देखती हैं?

उत्तर- इसमें कोई दो-मत नहीं है कि संसद में पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या घटी है। दरअसल, इसके पीछे सिर्फ एक कारण नहीं है। सामाजिक व्यवस्था से लेकर राजनीतिक दलों के सोच इसमें शामिल हैं। हर राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए लड़ते हैं। वह ऐसे प्रत्याशियों को उतारना चाहते हैं, जिनके जीतने का उन्हें पूरा भरोसा होता है।

हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसा है कि राजनीति में कई तरह के समीकरण होते हैं। उसके आधार पर टिकटों का वितरण होता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में अधिकांश राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने महिला प्रत्याशियों को तुलनात्मक रूप से कम टिकट दिए। यही वजह रही कि वह कम संख्या में संसद तक पहुंचीं। बावजूद इसके बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से अच्छी संख्या में जीतकर आई हैं।

प्रश्न- छोटे-छोटे देशों के संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भारत से ज्यादा है। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन की रिपोर्ट अनुसार दक्षिण अफ्रीकी देश रवांडा में महिला सदस्यों की भागीदारी 61.3 प्रतिशत है। 2008 में रवांडा महिला बहुमत वाला पहला संसद बना।

दुनियाभर के संसदों में महिलाओं की उपस्थिति देखें तो यह औसतन 26.9 प्रतिशत है। वहीं, भारत में महिला सांसदों की भागीदारी सिर्फ 13.1 प्रतिशत है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद भारत में महिलाएं संसद तक पहुंचने में क्यों पिछड़ रही हैं?

उत्तर- ऐसा कहना गलत होगा कि भारत में राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं का दबदबा अन्य देशों की तुलना में कम है। हम यदि पंचायत या स्थानीय निकाय स्तर पर देखें तो भारत में जितनी महिलाएं जीतकर आई हैं, वह अन्य देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। यह आंकड़ा 50 प्रतिशत तक पहुंच गया है। कुछ समय पहले महिला आयोग द्वारा एक कार्यक्रम 'पंचायत से पार्लियामेंट तक' आयोजित किया गया था। इसमें बड़ी संख्या में वे महिलाएं शामिल हुईं, जो पंचायत स्तर पर काम कर रही हैं।

कुछ साल पहले तक एक शब्द बहुत सुनने को मिलता था, पंचायत-पति। अब धीरे-धीरे यह कम हो गया, क्योंकि महिलाएं अपने अधिकारों से अवगत हुईं और उन्होंने पंचायतों को खुद संभालना शुरू किया। चाहे वह अनपढ़ महिला हो या पढ़ी-लिखी उच्च शिक्षिता, वहां के लोग उनके नेतृत्व क्षमता से अवगत हुए। कई पंचायतें तो ऐसी भी हैं, जिसमें सरपंच से लेकर सभी सदस्य महिलाएं हैं। अब तो धीरे-धीरे स्थानीय निकायों में भी यह बदलाव आ रहा है।

यह सही है कि यह बदलाव इतने बड़े स्तर पर विधानसभा या लोकसभा में देखने को नहीं मिल रहा है। यहां सुधार की जरूरत है। अब वैश्विक स्थिति पर एक बार नजर डालते हैं। यहां बात सिर्फ भारत जैसे बड़े देशों की नहीं है अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे विकासशील देशों के संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। यह टाप-10 की सूची में नहीं है, लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं।

आपने इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन का उल्लेख किया। इसी रिपोर्ट के हवाले से बात करें तो 2008 के बाद से विश्वभर के संसदों में महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। दुनिया के हर कामकाजी संसद में कम से कम एक महिला है। गति धीमी हो सकती है, लेकिन ठहराव नहीं है।

प्रश्न- तो क्या यह माना जाए कि जहां बात उच्च सदनों की आती है तो न तो जनता और न ही राजनीतिक दल महिला प्रत्याशियों पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं?

उत्तर- नहीं, ऐसा नहीं है। जनता को महिला प्रत्याशियों पर उतना ही भरोसा है, जितना पुरुषों पर होता है। बशर्तें महिला प्रत्याशियों के नेतृत्व क्षमता के बारे में आश्वस्त हों। यह जरूर है कि राजनीतिक दलों को अपनी महिला कार्यकर्ताओं को चुनाव की मानसिकता से तैयार करना होगा। उन्हें एक्सपोजर देना होगा।

प्रश्न- मतदान प्रतिशत के आंकड़ों से साफ है कि कई राज्यों के बड़े लोकसभा क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में ज्यादा मतदान किया, लेकिन प्रतिनिधित्व की बारी आती है तो उन्हें मौका नहीं मिल पाता है। ऐसा क्यों है?

उत्तर- मतदान को लेकर भारतीय महिलाएं काफी जागरूक हुई हैं। शिक्षा का स्तर बढ़ने और डिजिटलाइजेशन के दौर में अब वह अपना मत व्यक्त करने में खुद को सक्षम पा रही हैं, लेकिन यह स्थिति अभी तक राजनीति में आकर करियर बनाने वाली महिलाओं के लिए नहीं बन पाया है। इस पर सभी को मंथन करने की जरूरत है।

प्रश्न- यदि ऐसा होता तो संदेशखाली कांड की पीड़िता रेखा पात्रा को जीतना चाहिए था। इतने बड़े घोटाले का राजफाश करने के बाद भी वह क्यों नहीं जीत पाईं? भाजपा ने तो ऐसे ही एक प्रत्याशी को मौका दिया था।

उत्तर- रेखा पात्रा बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी थीं। संदेशखाली इस लोकसभा क्षेत्र का एक इलाका है। रेखा पात्रा को संदेशखाली में अच्छे वोट मिले हैं। वहां के लगभग 60 प्रतिशत लोगों ने उनके पक्ष में मतदान किया, यानी वहां के लोगों ने उन पर भरोसा जताया। इतने कम समय में उन्हें जितने वोट मिले हैं, वह बड़ी बात है। बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र के अन्य इलाकों से उनका मार्जिन कम हुआ है।

प्रश्न- आपने कहा कि राजनीतिक दलों को अपने कार्यकर्ताओं को एक्सपोजर या खुद को साबित करने का मौका देना होगा? इससे क्या आशय है?

उत्तर- मैं बहुत से कार्यक्रमों में भाग लेती हूं या फिर बतौर मुख्य अतिथि जाती हूं। किसी भी राजनीतिक दल का कार्यक्रम हो, मंच पर लगी कुर्सियों पर आपको महिलाएं या तो दिखेंगी नहीं या फिर इक्का-दुक्का होंगी। अतिथियों का स्वागत करना हो, गुलदस्ता देना हो तो उनका नाम पुकारा जाता है और फिर वह भीड़ में जाकर बैठ जाती हैं।

यदि वास्तव में बदलाव देखना चाहते हैं तो महिला कार्यकर्ताओं को अपने आपको इस सीमित दायरे से निकालना होगा। उन्हें अपने-अपने नेतृत्व को कहना होगा कि सिर्फ गुलदस्ता देने के लिए नहीं हैं। ...और सभी राजनीतिक दलों पर यह बड़ी जिम्मेदारी है कि वह अपनी महिला कार्यकर्ताओं को पीछे भीड़ में बिठाने के बजाय मंच तक लेकर आएं, ताकि आने वाले समय में वह उन्हें टिकट दे सकें और महिलाएं चुनाव जीतकर खुद ब खुद यहां तक पहुंच सकें।

प्रश्न- लोकसभा चुनाव में महिलाओं की खूब बातें हुईं? उन्हें तमाम तरह की सुविधाएं देने का वादा किया गया? बतौर महिला आयोग अध्यक्ष इसको आप कैसे देखती हैं?

उत्तर- बहुत से राजनीतिक दलों ने फ्रीबिज या मुफ्त रेवड़ियों के नाम पर महिलाओं के लिए सरकारी खजाना खोल दिए। यह महिलाओं के लिए नुकसानदेह है। जरूरत उन्हें सचेत करने, सक्षम बनाने की है। जब वह सक्षम होंगी तो संसद के गलियारों तक भी पहुंचेंगी। मुफ्त और झूठी गारंटियों से वह सही जगह नहीं पहुंच सकतीं और न ही ऐसी सरकार चुन सकती हैं, जो उन्हें आत्मनिर्भर बनाए।

प्रश्न- परिस्थिति को कैसे बदला जा सकता है? क्या राजनीतिक दलों द्वारा कोई पहल की जा रही है?

उत्तर- यदि राजनीतिक दल चाहते हैं कि महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़े तो उन्हें भी अपने हिस्से में से कुछ सीटें महिलाओं को देना होंगी। आखिर संसद की सीटें तय हैं, उसमें से ही बंटवारा करना होगा। उम्मीद करती हूं कि आने वाले समय में ऐसे उदाहरण देखने को मिलेंगे।

प्रश्न- आप देश के हर राज्य का दौरा कर चुकी हैं? किस राज्य में महिलाओं की स्थिति सुदृढ है और कहां पिछड़ी हुई हैं?

उत्तर- सिक्किम...। छोटा-सा राज्य है, लेकिन मेरी नजर में यहां महिलाओं की स्थिति सबसे अच्छी हैं। घर से लेकर बाजार, उद्योग से लेकर स्कूल तक हर जगह महिलाओं का दबदबा है। यदि पिछड़े इलाकों की बात करूं तो बंगाल और ओडिशा जैसे राज्य सामने आ जाते हैं। बंगला के 24 परगना इलाके के अंदरूनी गांवों में तो इतनी गरीबी है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इसका असर महिलाओं पर ही सबसे ज्यादा है।

प्रश्न- महिला सांसदों से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?

उत्तर- जब संसद में महिलाओं से जुड़ा हुआ कोई मुद्दा पहुंचे तो पार्टी लाइन से हटकर सभी महिलाएं एक साथ खड़ी हों। जैसे केंद्र सरकार यदि महिलाओं से संबंधित कोई बिल लाती हैं तो विपक्ष की महिला सांसद मिलकर उसका समर्थन करें।

प्रश्न- और मणिपुर-संदेशखाली जैसी घटनाओं के बारे में यदि महिला सांसद बात करना चाहें तो?

उत्तर- उनका बहुत स्वागत है, लेकिन सिर्फ राजनीति करने के लिए संसद में हल्ला न करें। सही मायने में यदि वे महिलाओं का उत्थान चाहती हैं, सब मिलकर मौके पर जाएं। वहां की वास्तविक स्थिति से अवगत हों। उनके उत्थान के लिए सरकार की जितनी भी योजनाएं चल रही हैं, वे सांसद उन्हें वह सुविधा उपलब्ध करवाकर अपनी जिम्मेदारी निभाएं। महिलाओं से जुड़े गंभीर मामलों में नारे, प्रदर्शन और बहिष्कार हल नहीं है।


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