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भारत में जल संकट और उसके निदान को समझने के लिए इन तीन जल संबंधी समस्याओं पर करनी होगी बात

बीते 50 साल में देश में जिस तरह से पानी की मांग बढ़ी है उसके सापेक्ष जल प्रबंधन की प्रक्रिया में तेजी नहीं देखी गई है। इसी से आपूर्ति और मांग में अंतर बढ़ा। सभी जल जरूरतों की पूर्ति के लिए वृहद स्तर पर काम करने की जरूरत है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 21 Mar 2022 03:18 PM (IST)
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जल के विकल्प खोजने में सभी भारतीय शहर कम से कम 20 वर्ष पिछड़ चुके हैं।

प्रो असित के बिस्वास/ प्रो सेसिला तोरतात्जा। भारत में जल संकट और उसके निदान को गहराई से समझने के लिए वर्तमान की तीन जल संबंधी समस्याओं पर बात करनी होगी। पहली बात, सभी आवश्यकताओं के लिए जल की मांग बढ़ रही है। इसका तात्पर्य है कि इस समय मध्यम स्तर की वर्षा जल संबंधी मांगों की पूर्ति के लिए व्यवस्था नहीं कर पा रही हैं। देश की सभी प्रमुख नदियों का पानी कम वर्षा वाले कालखंड में आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सीमा से अधिक आवंटित किया गया। भारत हाइड्रोलिक संरचनाओं की स्थापना भी नहीं कर सका जिससे अधिक वर्षा वाले वर्षों में कम वर्षा या सूखे वाले वर्षों के लिए जल संचयन किया जाता है।

दूसरी बात, केंद्र व राज्य स्तर पर समुचित योजनाओं की अनुपलब्धता से सामान्य वर्षाकाल में भी नवीकरणीय भूजल नहीं रहा जिसका प्रयोग सभी आवश्यकताओं में किया जा सकता। हरित क्रांति के बाद स्थिति और खराब हुई है। बिजली पर किसानों को दी जा रही सब्सिडी ने अनावश्यक सिंचाई को बढ़ावा दिया है। भारत इस समय अमेरिका और चीन द्वारा संयुक्त रूप से प्रयोग किए जा रहे भूजल से भी अधिक का उपयोग कर रहा है। आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान तेलंगाना में भूजल दोहन सीमा के पार जा चुका है। कई स्थानों पर भूजल स्तर प्रतिवर्ष एक मीटर से अधिक कम हो रहा है। इंडो-गैंजेटिक एक्विफर (जलाभृत) अब विश्व का दूसरा सबसे दबाव वाला जलाभृत है।

तीसरी बात यह है कि जल प्रदूषण भारत में महामारी की तरह हो चुका है और शहरी क्षेत्रों के निकट सभी जलस्नोत प्रदूषित हो चुके हैं। जल प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। इसमें दूषित पानी के ट्रीटमेंट की कमी भी शामिल है। भारत के सामने जल संबंधी कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, लेकिन सही नीतियों व संस्थागत सुधारों से इन समस्याओं से पार पाया जा सकता है। मैं स्थान की कमी के कारण केवल घरेलू जल प्रयोग, समस्याओं और निदान की बात करूंगा। शहरी मामलों के मंत्रालय का आकलन है कि प्रतिदिन प्रत्येक नागरिक की पहुंच 130 लीटर पानी तक होनी चाहिए, लेकिन किसी राजनेता या जल विशेषज्ञ ने एक मूलभूत सवाल का जवाब देना तो दूर, प्रश्न ही नहीं किया कि आखिर 130 लीटर क्यों। स्वस्थ जीवनशैली के लिए प्रतिदिन प्रयोग के जल की मात्रा का निर्धारण तथ्यों के आधार पर होना चाहिए।

दुखद है कि इस मुद्दे को समूचे भारतीय इतिहास में कभी पढ़ा-पढ़ाया ही नहीं गया। एशिया के एक अन्य देश सिंगापुर में इस मुद्दे पर 1960 से 1970 तक दस वर्ष तक विमर्श और अध्ययन किया गया। इससे पता चला कि 75 लीटर प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति से अधिक जल प्रयोग करने से कोई स्वास्थ्य लाभ नहीं होता है। 1965 में अपनी स्वतंत्रता के समय सिंगापुर की जलवायु और आर्थिक स्थितियां भारत के समान ही थीं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रतिव्यक्ति जल प्रयोग की मात्रा भी समान हो सकती है। ऐसा हो तो भारत में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 55 लीटर पानी बचेगा। चूंकि घरेलू प्रयोग में पानी का 85 से 90 प्रतिशत भाग बर्बाद हो जाता है तो पानी की इस प्रकार की बर्बादी भी कम होगी।

बड़े भारतीय शहरों के सामने एक और प्रमुख समस्या यह है कि वहां जल संबंधी संस्थानों के प्रमुख भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हैं। वह बिना किसी पूर्व अनुभव या ज्ञान के जल संबंधी संस्थान में नियुक्त हो जाते हैं और वहीं रहकर सीखते हैं कि कैसे जल प्रयोग संबंधी काम किए जाएं। विडंबना यह है कि जब तक यह

अधिकारी सीखकर तैयार होते हैं, उनका स्थानांतरण कर दिया जाता है। आमतौर पर 18 माह में स्थानांतरण हो जाता है। इसे बदलने की जरूरत है। भारत में सभी जल संबंधी संस्थाओं के प्रमुख के तौर पर सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों का चयन होना चाहिए। उन्हें वार्षिक समीक्षा के आधार पर तीन वर्ष का शुरुआती कार्यकाल दिया जाना चाहिए। अगर इस सामान्य प्रक्रिया का पालन कर लिया जाए तो दिल्ली, मुंबई या चेन्नई की जल समस्याओं को वर्तमान में उपलब्ध वित्तीय संसाधनों से ही 60 से 70 प्रतिशत तक समाप्त किया जा सकता है। जल संस्थाओं के प्रमुखों का कार्यकाल अगले तीन वर्ष बढ़ाया जा सकता है यदि वह कार्यकुशलता के मापदंड पर खरे उतरें।

अंत में, हर घर नल से जल योजना पर कुछ कहना चाहूंगा। इस बात में कोई प्रश्न ही नहीं है कि यह योजना चालीस वर्ष पहले ही आरंभ की जानी चाहिए थी। यह करोड़ों भारतीयों की जल समस्याओं का निस्तारण करेगी, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इस योजना में दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में संशोधन जरूरी हैं। पहला यह कि घर-घर पानी पहुंचाना उतना कठिन या महंगा नहीं है जितना घरेलू उपयोग से बर्बाद होने वाले पानी का संकलन और ट्रीटमेंट। ताकि इसका पुन: प्रयोग किया जा सके और पीने योग्य भी बनाया जा सके। अभी तक वहां किसी प्रकार की समस्या इससे नहीं देखी गई है। इसी तरर्ह ंसगापुर में ट्रीट किया गया बेकार पानी गुणवत्ता में नल के जल से बेहतर होता है। इसी कारण वहां ट्रीट किया हुआ पानी वेफर उद्योग में प्रयोग किया जाता है जहां बहुत शुद्ध पानी की आवश्यकता होती है। 

हर घर नल से जल योजना में दूसरी बड़ी समस्या है कि भारत में नगरपालिका पानी की गुणवत्ता 20 मानकों पर मापती है। वहीं, र्ंसगापुर में 351 और चीन में 110 से अधिक मानकों पर पानी की गुणवत्ता कसी जाती है। यही कारण है कि भारत में अमीर-गरीब किसी को भी नल से जल की गुणवत्ता पर भरोसा नहीं है। अमीर रिवर्स ओस्मोेसिस यानी आरओ वाले फिल्टर का प्रयोग करते हैं तो गरीब पानी उबालकर काम चलाते हैं। उबालने से बैक्टीरिया तो खत्म हो जाते हैं, लेकिन खतरनाक रसायनों और भारी धातुओं से निजात नहीं मिलती। जब तक भारत का जल क्षेत्र तेज और प्रभावी सुधार नहीं करता, आने वाले दशकों में भी इसके नागरिकों के लिए जल परीक्षण एक स्वप्न ही रहेगा।

प्रो असित के बिस्वास, ग्लास्गो विश्वविद्यालय, निदेशक, वाटर मैनेजमेंट इंटरनेशनल पीटीई लि. सिंगापुर

प्रो सेसिला तोरतात्जा, ग्लासगो विश्वविद्यालय, स्कूल आफ इंटर डिसिप्नरी स्टडीज