Move to Jagran APP

वैवाहिक संबंधों में विचलन होने से समाज की नींव हिलना स्वाभाविक, एक्सपर्ट व्यू

समाज की आधारभूत इकाई परिवार और परिवार का आधार-स्तंभ विवाह होता है। परिवार सामाजिक गुणों की प्रथम पाठशाला है। यदि वैवाहिक संस्था संकटग्रस्त होती है तो परिवार भी संकटग्रस्त होंगे। परिवार के अभाव में सामाजिक प्राणी मनुष्यों का नहीं बल्कि आत्मजीवी व्यक्तियों का निर्माण होगा।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Fri, 07 Oct 2022 03:17 PM (IST)
Hero Image
उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे सामाजिक जीवन को कर रही दुष्प्रभावित,।
प्रो. रसाल सिंह। केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने तलाक के एक मामले की सुनवाई करते हुए वैवाहिक संबंधों की स्वार्थपरता और टूटन को रेखांकित किया है। न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुश्ताक और न्यायमूर्ति सोफी थामस की इस पीठ ने वर्तमान सामाजिक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए समाज को आईना दिखाने का सराहनीय कार्य किया है। इस पीठ ने कहा है कि आज की युवा पीढ़ी विवाह को एक अनावश्यक बोझ के रूप में देखने लगी है। यह पीढ़ी उत्तरदायित्वहीन जीवन जीते हुए आनंद उठाना चाहती है।

यह पीढ़ी विवाह जैसी सामाजिक जिम्मेदारी से बचना चाहती है। इसका विकल्प उसने ‘लिव-इन’ संबंध के रूप में तलाश लिया है। यह पीढ़ी पत्नी (वाइफ) को ‘सदा के लिए समझदारी वाले निवेश’ (वाइज इन्वेस्टमेंट फार एवर) की जगह ‘हमेशा के लिए आमंत्रित चिंता’ (वरी इनवाइटेड फार एवर) के रूप में देखती है। लड़कियों के मन में पति को लेकर भी कमोबेश यही सोच हावी है।

सामाजिक संबंध

भले ही न्यायालय ने अपनी टिप्पणी का दायरा केरल के समाज तक सीमित रखा है, लेकिन सच्चाई यह है कि इस प्रकार का चलन पूरे भारत में बढ़ रहा है। शिक्षित, शहरी और समृद्ध वर्ग में भले ही यह प्रवृत्ति अधिक दिख रही हो, लेकिन अशिक्षित/ अल्पशिक्षित, ग्रामीण और गरीब वर्ग भी इससे अछूता नहीं है। विवाह संस्था के प्रति अनास्थावान युवा पीढ़ी पश्चिमप्रेरित और उपभोक्तावादी संस्कृति की शिकार है। यह विवाह संस्था को खोखला और निष्प्राण करने पर उतारू है। युवा पीढ़ी का यह वैचारिक प्रतिस्थापन चिंताजनक है। यह प्रवृत्ति बदलते जीवन-मूल्यों और प्राथमिकताओं का परिणाम है। ऐसे में न्यायालय की यह टिप्पणी सामाजिक विचलन की सार्वजनिक स्वीकृति और अभिव्यक्ति है।

न्यायालय ने यह तीखी टिप्पणी अलप्पुझा के एक 34 वर्षीय व्यक्ति द्वारा दायर अपील को निरस्त करते हुए की है। एक अन्य स्त्री के साथ अवैध संबंध रखने वाले इस व्यक्ति की ‘वैवाहिक क्रूरता’ को आधार बनाकर दायर की गई तलाक की अर्जी को पारिवारिक अदालत ने अस्वीकार कर दिया था। यह व्यक्ति जिस पत्नी से तलाक चाहता है, वह उसके तीन बच्चों की मां भी है। वह एक अपेक्षाकृत युवा और आकर्षक स्त्री के मोहपाश में फंसकर अपनी पत्नी और बच्चों से छुटकारा पाना चाहता था। इसलिए उसने अपनी पत्नी पर असामान्य व्यवहार और क्रूरता करने का आरोप लगाते हुए पारिवारिक अदालत में विवाह-विच्छेद की याचिका दायर की थी। केरल उच्च न्यायालय ने बदलते समसामयिक परिदृश्य, सामाजिक संबंधों और जीवन-मूल्यों पर गंभीर टिप्पणी की। इस याचिका के निस्तारण की पृष्ठभूमि में न्यायालय द्वारा उठाए गए प्रश्न और चिंताएं विचारणीय हैं। न्यायालय की चिंताएं समाज का ध्यान आकृष्ट करने वाली हैं और संशोधन की मांग करती हैं।

उदारीकरण

आज पश्चिम प्रेरित उपभोक्तावादी संस्कृति का चतुर्दिक बोलबाला है। भारतीय समाज भी उससे अप्रभावित नहीं है। अबाध और अंध उपभोग के बाद निर्मम परित्याग इस संस्कृति का सार है। स्वार्थपरता और आत्मजीविता इसकी मूल-प्रेरणा और प्राप्य है। यह आंधी सामाजिकता, सामूहिकता, समरसता, समर्पण, सहनशीलता, सहयोग जैसे जीवन-मूल्यों को उखाड़ फेंकने पर आमादा है। ‘यूज एंड थ्रो’ ही इस संस्कृति का जीवन-सूत्र है। जो काम का नहीं है, जो उपयोगी नहीं है उसे अपने जीवन, अपनी दुनिया से निकाल फेंको, वह चाहे वस्तु हो, व्यक्ति हो, संबंध हो या जीवन-मूल्य हो। आत्मग्रस्त आनंदवाद उपभोक्तावादी संस्कृति की संचालक शक्ति है।

भारतीय समाज में एक-दूसरे से संबंध तोड़ने की इच्छा रखने वाले जोड़ों, पिता अथवा माता द्वारा त्यागे गए बच्चों और निराश-हताश तलाकशुदा लोगों की संख्या क्रमशः बढ़ती जा रही है। अपने बच्चों तक की परवाह किए बिना वैवाहिक बंधन को तोड़ना चलन बन गया है। इससे सामाजिक शांति, सुरक्षा, व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट होने की आशंका है। परिवार योगक्षेम का आधार है। उसके टूटने-बिखरने से सामाजिक ताना-बाना भी टूट जाएगा। विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं के अवसान से व्यक्ति अकेलेपन के बियाबान में भटक जाएगा, क्योंकि परिवार ही सुख-शांति, सामाजिक सुरक्षा और स्थायित्व का स्रोत होता हैI

कुटुंब प्रबोधन

विवाह और परिवार जैसी पवित्र और मान्य संस्थाओं को स्त्री जीवन की बेड़ियों के रूप में दुष्प्रचारित करना नवोदित नारीवादियों का प्रिय शगल है। वे इसे स्त्री के विकास की बाधा मानते हैं। विवाह को एक सामाजिक समझौता मात्र मानते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित और प्रोत्साहित दायित्वहीन स्वतंत्रता सामाजिक अराजकता और उच्छृंखलता को बढ़ावा देती है। केरल उच्च न्यायालय की टिप्पणियों का संज्ञान लेकर सामाजिक जीवन में परिवार का महत्व स्वीकारने और समझने वाले सुधिजनों और संस्थाओं को आगे आकर कुटुंब प्रबोधन का काम करना चाहिए, ताकि समय रहते इस चुनौती से निपटा जा सके। उल्लेखनीय है कि ‘निवेदिता एंडीवर फार सोशल ट्रांसफोर्मेशन’ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन कुटुंब प्रबोधन कार्य में लगे हैं।

समुचित संवाद

संवाद सामाजिक संबंधों की आधारशिला है। संवेदना और संवाद से ही संबंध दीर्घायु होते हैं। तमाम व्यस्तताओं और व्यावसायिक जिम्मेदारियों के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति को महीने में कम-से-कम दो दिन परिवार के साथ बिताने चाहिए। महीने में कम-से-कम एक दिन मित्रों के साथ पारिवारिक रूप से मिलना-जुलना चाहिए। अपने दूरस्थ परिजनों और सगे-संबंधियों से संपर्क और संवाद बनाए रखना चाहिए। उनके सुख-दुःख में शामिल होते हुए अपनी सामर्थ्य अनुसार सहयोग करना चाहिए। सामाजिक और सार्वजनिक हित के कार्यों में भी अपने समय, ऊर्जा और आय का कुछ अंश देना चाहिए। सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर सामाजिकता के भाव को पुष्ट करना चाहिए। अपनी रुचि के अनुसार नियमित पठन-पाठन करना चाहिए। ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार और स्वार्थ जैसे नकारात्मक मनोभावों का परिमार्जन करते हुए अपने व्यक्तित्व को निर्मल और सरल बनाने की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस कार्य में आत्म-निरीक्षण अत्यंत उपयोगी होता है।