इजरायल में बेंजामिन नेतन्याहू युग की समाप्ति, बहुत मजबूत हैं भारत-इजरायल संबंध
भारत फलस्तीन की स्वतंत्रता का समर्थक रहा है। ऐसे में जब फलस्तीन और इजरायल के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा होती है तो भारत के लिए धर्मसंकट की स्थिति बन जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इजरायल और फलस्तीन की यात्र कर चुके हैं।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Wed, 09 Jun 2021 01:35 PM (IST)
राहुल लाल। इजरायल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के विरोधियों के बीच गठबंधन सरकार बनाने को लेकर सहमति बन गई है, जिसके बाद उनकी विदाई का रास्ता लगभग साफ हो गया है। अब नए गठबंधन को वहां की संसद नेसेट में शीघ्र बहुमत हासिल करना है। नेसेट के स्पीकर यारिव लेविन ने सोमवार (सात जून) को कहा कि एक सप्ताह अर्थात 14 जून तक नए गठबंधन को बहुमत साबित करने का मौका मिल जाएगा। मालूम हो कि नेतन्याहू इजरायल के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले नेता हैं।
दक्षिणपंथी यामिना पार्टी के नेफ्टाली बेनेट प्रधानमंत्री बनेंगे
पिछले 12 वर्षो से इजरायल की राजनीति कमोबेश उन्हीं के आसपास घूमती रही है, लेकिन इस बार स्थितियां उनके हाथ से निकल गई हैं। जिस गठबंधन को लोग असंभव बता रहे थे, वह वास्तव में अस्तित्व में आ चुका है। विपक्षी नेता येर लेपिड के नेतृत्व में आठ दल मिलकर वहां सरकार बनाएंगे। इस गठबंधन के लिए हुए समझौते के तहत बारी-बारी से दो अलग-अलग दलों के नेता प्रधानमंत्री बनेंगे। सबसे पहले दक्षिणपंथी यामिना पार्टी के नेफ्टाली बेनेट प्रधानमंत्री बनेंगे। बेनेट 2023 तक प्रधानमंत्री रहेंगे। उसी वर्ष 27 अगस्त को वे अपना पद मध्यमार्गी येश एडिट पार्टी के नेता येर लेपिड को सौंप देंगे।
इजरायल की चुनाव व्यवस्था : इजरायल में पिछले दो वर्षो में चार बार चुनाव हो चुके हैं। अगर आने वाले दिनों में विपक्षी गठबंधन वहां की संसद नेसेट में बहुमत साबित नहीं कर पाता है तो वहां दो वर्ष में पांचवीं बार चुनाव की स्थिति भी आ सकती है। वास्तव में इजरायल में कभी भी आज तक पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बनी है, सदैव गठबंधन सरकार ही बनी है। इसका कारण वहां की अनोखी चुनाव प्रणाली भी है। वहां की संसद में सदस्यों की संख्या 120 है।
इजरायल में आनुपातिक प्रतिनिधित्व चुनावी व्यवस्था है, जिसमें सूची प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। इसमें मतदाता किसी एक राजनीतिक दल के लिए अपना मत डालते हैं। किसी भी राजनीतिक दल को चुनाव में जितना प्रतिशत मत मिलता है, उसी अनुपात में संसद में उन्हें सीटें प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए किसी राजनीतिक दल को 10 प्रतिशत मत मिलता है तो उसे उसी अनुपात में 120 में से 12 सीटें मिल जाएंगी। इजरायल की संसद में सीट हासिल करने के लिए मतदान का न्यूनतम 3.25 प्रतिशत मत हासिल करना जरूरी है। अगर कोई पार्टी इससे कम मत हासिल करती है तो उसे नेसेट में सीटें नहीं मिलेंगी। वहां बहुमत का जादुई आंकड़ा 61 है, जो आजतक किसी पार्टी को नहीं मिला है। इसलिए वहां हमेशा गठबंधन सरकार ही बनती रही है। चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद राष्ट्रपति सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं।
सरकार बनाने से पहले बहुमत की व्यवस्था : भारत में प्रधानमंत्री को पहले शपथ दिला दिया जाता है, फिर संसद में बहुमत साबित करने के लिए कहा जाता है। जबकि इजरायल के संविधान ‘बेसिक लॉ : द गवर्नमेंट’ के खंड 13(ए) के अनुसार वहां वैकल्पिक सरकार बनाने से पहले संसद में बहुमत साबित करना होता है। यही कारण है कि इजरायल में गठबंधन बन जाने के बाद भी उसे पहले विश्वास प्राप्त करना होगा, तब वैकल्पिक सरकार का गठन हो सकेगा। हालांकि इस बार भी नेतन्याहू की लिकुड पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर आई है। संसद में इस पार्टी को 30 सीटें मिली हैं, जो बहुमत से 31 कम हैं। चूंकि वह सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा जुटाने में या गठबंधन बनाने में असफल रहे, तब वहां के राष्ट्रपति ने दूसरे सबसे बड़े दल येश एडिट पार्टी के मुखिया येर लेपिड को सरकार के लिए गठबंधन बनाने के लिए कहा, जिन्हें चुनाव में मात्र 17 सीटें ही प्राप्त हुई हैं।
गठबंधन निर्माण का नाटकीय घटनाक्रम : 30 मई तक लेपिड ने 51 सीटें जुटा ली थीं। अब उन्हें सरकार बनाने के लिए और 10 सीटों की जरूरत थी। उसी शाम दक्षिणपंथी यामिना पार्टी के अध्यक्ष नेफ्टाली बेनेट ने अपनी घोषणा से सबको चौंका दिया। बेनेट ने अपने पुराने बॉस नेतन्याहू का ऑफर ठुकरा दिया। नेतन्याहू ने बेनेट को ऑफर दिया था कि हम दोनों मिलकर सरकार बनाते हैं। रोटेशन के आधार पर प्रधानमंत्री की कुर्सी दोनों के बीच शेयर होती रहेगी, लेकिन बेनेट ने कहा कि वह येर लेपिड के गठबंधन का हिस्सा बनेंगे। नेफ्टाली बेनेट के पास कुल छह सीटें थीं। इस तरह गठबंधन का आंकड़ा 57 पर पहुंच गया। अब उसे बस चार सीटों की कमी थी। लेपिड की नजर मंसूर अब्बास की पार्टी यूनाइटेड अरब लिस्ट पर थी। उनके पास चार सीटें थीं। मंसूर अब्बास समर्थन देने के लिए तैयार भी थे, लेकिन गठबंधन में नेफ्टाली बेनेट की उपस्थिति से मामला थोड़ा उलझ रहा था।
दरअसल मंसूर अब्बास और नेफ्टाली बेनेट की विचारधारा में काफी अंतर है। बेनेट को नेतन्याहू से भी अधिक कट्टर माना जाता है। बेनेट फलस्तीनी इलाकों में भी इजरायली सेटलमेंट को सही ठहराते हैं। जबकि यूनाइटेड अरब लिस्ट पार्टी दो राज्य समाधान पद्धति में भरोसा रखती है। वह इजरायल में रहने वाले अरब नागरिकों के लिए बराबरी का दर्जा भी चाहती है। विचारधारा के स्तर पर दोनों में टकराव के कारण दो जून की तिथि आ गई, लेकिन समझौता नहीं हो पा रहा था। जब शाम तक बात नहीं बनी तो नेफ्टाली बेनेट और मंसूर अब्बास के बीच बंद कमरे में मीटिंग हुई।
बात यूनाइटेड अरब लिस्ट पार्टी की सबसे मजबूत संस्था शूरा काउंसिल तक भी पहुंच गई। मंसूर अब्बास को अचानक से शूरा काउंसिल बुलाया गया। काफी विचार-विमर्श के बाद शूरा काउंसिल ने गठबंधन के लिए स्वीकारोक्ति प्रदान की। तब जाकर रात 10 बजकर 20 मिनट पर मंसूर अब्बास ने गठबंधन में शामिल होने के पत्र पर हस्ताक्षर किया। समय सीमा समाप्त होने के आधे घंटे पहले राष्ट्रपति ने इस गठबंधन की आधिकारिक पुष्टि की। इस तरह 30 मिनट पहले लेपिड ने सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत जुटाया। हालांकि बेंजामिन नेतन्याहू ने इसे सदी का सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा कहा है। इस नए गठबंधन में दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यममार्गी पार्टयिां शामिल हैं। इन सभी राजनीतिक दलों में काफी कम समानता है, लेकिन इनका लक्ष्य एक है-नेतन्याहू के शासन को समाप्त करना।
कमजोर क्यों हुई नेतन्याहू की स्थिति : नेतन्याहू ने चुनाव प्रचार में कोरोना रोधी टीकाकरण को मुख्य मुद्दा बनाया था। उन्होंने फाइजर की वैक्सीन खरीद कर मार्च में ही अपनी 50 फीसद आबादी को दोनों डोज लगवा दिए थे। कहा जा रहा है कि टीका खरीद में रिश्वतखोरी और धांधली के आरोपों के कारण ही मार्च में हुए चुनाव में वे समुचित जन समर्थन नहीं पा सके। नेतन्याहू के ऊपर तीन मुकदमे चल रहे हैं। उन पर फर्जीवाड़ा करने, रिश्वत लेने और उद्योगपति मित्रों को गलत फायदा पहुंचाने के आरोप हैं। अगर उपरोक्त आरोप सही हुए तो उन्हें 13 वर्ष जेल की सजा भी हो सकती है। अब नेतन्याहू अपने बचाव का रास्ता खोज रहे हैं। इसके लिए वे फिर से चुनाव कराना चाहते हैं।
नेतन्याहू के हटने का वैश्विक प्रभाव : डोनाल्ड ट्रंप के समय नेतन्याहू की स्थिति काफी मजबूत थी। पिछले चुनाव में ट्रंप ने फलस्तीन प्रशासन को वित्तीय मदद कम कर दी थी, जिसे नेतन्याहू ने अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रदर्शित किया था, परंतु इस बार वे अमेरिका से इस तरह का कोई समर्थन प्राप्त नहीं कर सके। इस बार के हमास-इजरायल संघर्ष में भी इजरायल को अमेरिका से मजबूत समर्थन नहीं मिला, बल्कि उसने उस पर युद्धविराम का भारी दबाव बनाया। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन अभी चीन पर ध्यान केंद्रित करना चाह रहे हैं। इसके अतिरिक्त बाइडन प्रशासन ईरान के परमाणु समझौता को पुनर्जीवित करने पर भी विचार कर रहा है। इसलिए बाइडेन अभी अरब-इजरायल के बीच किसी तरह का तनाव नहीं चाहते हैं। मंसूर अब्बास के समर्थन के लिए बेनेट को भी फलस्तीन के प्रति अपने सोच में नरमी लानी होगी। इस स्थिति में इजरायल के संबंध अधिकांश अरब देशों से सुधर सकते हैं। संयुक्त अरब अमीरात इत्यादि के साथ तो इजरायल ने घोषित तौर पर अच्छे संबंध बनाएं हुए हैं। वहीं साऊदी अरब जैसे देशों के साथ रिश्ते राजनयिक संबंधों में भी परिवíतत हो सकते हैं।
नेतन्याहू की हार मूलत: उनके वामपंथी विरोधियों के कारण नहीं, अपितु उन्हीं के अपने दक्षिणपंथी सहयोगियों के कारण हुई है, जिन्हें उन्होंने अपने सख्त रवैये से दुश्मन बना लिया था। हालांकि आठ दलों के नए गठबंधन से भी किसी बड़े फैसले की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। अभी नेतन्याहू को हटाने के नाम पर सभी दल एकजुट हुए हैं, लेकिन सरकार बनने के बाद इस सरकार को चलाना ही उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी। ज्ञात हो कि नेतन्याहू सरकार भी बेनेट के समर्थन पर ही टिकी हुई थी। ये धुर दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और धुर वामपंथी विचारधारा वाले दल आपस में कैसे तालमेल बैठाएंगे, यह अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है।
नेतन्याहू इजरायल के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले नेता हैं। पिछले 12 वर्षो से इजरायल की राजनीति कमोबेश उन्हीं के आसपास घूमती रही है, लेकिन इस बार स्थितियां उनके हाथ से निकल गई लगती हैं। हालांकि आठ दलों के नए गठबंधन से भी किसी बड़े फैसले की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। अभी नेतन्याहू को हटाने के नाम पर सभी दल एकजुट हुए हैं, लेकिन सरकार बनने के बाद अलग-अलग विचारधाराओं वाले दलों के इस गठबंधन सरकार को चलाना ही उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगीफलस्तीन के राष्ट्रपति भी भारत आ चुके हैं। अगर मंसूर अब्बास के दबाव में फलस्तीन-इजरायल के बीच तनाव खत्म होता है तो भारतीय विदेश नीति के समक्ष धर्मसंकट की स्थिति खत्म हो जाएगी। हालांकि कई विशेषज्ञ मान रहे हैं कि बेनेट के अति दक्षिणपंथी होने के कारण आने वाले दिनों में इजरायल और फलस्तीन के बीच तनाव में और वृद्धि हो सकती है, लेकिन ऐसी स्थिति आने पर मंसूर अब्बास सरकार को समर्थन नहीं दे सकेंगे और फिर सरकार गिर जाएगी। इसलिए बेनेट सरकार में तनाव घटने की उम्मीद की जा सकती है। इजरायल के विरोधी और फलस्तीन समर्थक ईरान के साथ भी भारत की मित्रता है। ऐसे में अरब और इजरायल के बीच तनाव में कमी आती है तो यह भारत के लिए फायदेमंद रहेगा। मध्य पूर्व में शांति भारत की ऊर्जा सुरक्षा के हित में है।[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]