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इतिहास वो है जो लोककथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है

महाराज सुहेलदेव पर आयोजित एक कार्यक्रम में पीएम नरेन्द्र मोदी ने इतिहास लेखन को लेकर बेहद महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने अपनी उस टिप्पणी में भारतीय इतिहास लेखन को लेकर भी टिप्पणी की। इतिहास वो है जो लोककथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Published: Sun, 21 Feb 2021 07:05 AM (IST)Updated: Sun, 21 Feb 2021 07:05 AM (IST)
एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतिहास लेखन को लेकर बेहद महत्वपूर्ण बात कही।

नई दिल्ली [अनंत विजय]। हाल ही में महाराज सुहेलदेव पर आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतिहास लेखन को लेकर बेहद महत्वपूर्ण बात कही। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी उस टिप्पणी में भारतीय इतिहास लेखन को लेकर भी टिप्पणी की। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि ‘देश का इतिहास वो नहीं जो भारत को गुलाम बनाने वालों और गुलाम मानसिकता वालों ने लिखा।

इतिहास वो है जो लोककथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है।‘ नरेन्द्र मोदी ने इस ओर भी स्पष्ट तौर पर संकेत किया भारत में हमने कई महापुरुषों को अपनी इतिहास की पुस्तकों में भुला दिया। उन्होंने कई उदाहरण भी दिए। भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में देखें तो अबतक तो यही दिखाई देता है कि हमारे देश का ज्यादातर इतिहास गुलाम बनाने वालों ने या गुलाम मानसिकता वालों ने ही लिखा।

मार्क्सवादियों ने जिस प्रकार से इतिहास लेखन किया उसको देखने के लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों की पड़ताल कर ली जाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। जब 1972 में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना की गई थी तब इसका प्रमुख उद्देश्य था ‘वस्तुपरक और वैज्ञानिक इतिहास लेखन को बढ़ावा देना, जिससे देश की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत की समझ बढ़े व सही मूल्यांकन भी हो सके।‘

अपने स्थापना काल से ही भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, मार्क्सवादी इतिहासकारों के कब्जे में चला गया। परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास लेखन में छल की प्रविधि का उपयोग होने लगा। यह अनायास नहीं है कि प्राचीन भारत के इतिहास से लेकर मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत के इतिहास में भारतीय नायकों को परिधि पर रखने की एक कोशिश दिखाई देती है। इतिहास लेखन के लिए औपनिवेशिक और मार्क्सवादी पद्धति अपनाई गई। वही पद्धति जिसने रूस के लेनिन-त्रॉतस्की शासन को लेनिन-स्तालिन शासन बना दिया। रूस के इतिहास से त्रॉतस्की को प्रयासपूर्वक ओझल कर दिया गया।

इस पद्धति के अलावा ब्रिटिश इतिहासकारों के लिखे को भी आधार बनाकर लेखन किया गया। लेकिन ब्रिटिश इतिहासकार किस तरह से सोचते हैं इसका एक उदाहरण डेविड वॉशब्रुक की आधुनिक भारत के संबंध में की गई एक टिप्पणी है। इस टिप्पणी से भारत को लेकर उनकी दृष्टि और मानसिकता का संकेत मिलता है। आधुनिक भारत का इतिहास लिखते वक्त वो एक जगह टिप्पणी करते हैं कि ‘1895 और 1916 के बीच मद्रास की सड़क पर शायद ही कोई ब्रिटिश विरोधी कुत्ता भौंका हो।‘

अब जब हमारा देश अपनी स्वतंत्रता के पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है तो भारत के वस्तुनिष्ठ इतिहास का प्रश्न एक बार फिर से हमारे सबके सामने चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि हम अपने नायकों को याद करें, उनको पुनर्स्थापित करें और आनेवाली पीढ़ियों को उनके बारे में बताएं। आज आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है, उस दिशा में गंभीर काम भी हो रहे हैं।

एक बार फिर से स्वदेशी बनाने और उसको अपनाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन क्या हम आधुनिक भारत में स्वदेशी को लेकर अपना पूरा जीवन होम करनेवाले नायकों को याद कर पा रहे हैं। अंग्रेजों को चुनौती देनेवाले चिदंबरम पिल्लई, जिनको ‘स्वदेशी पिल्लई’ कहा जाता है, को याद करते हैं? चिंदबरम पिल्लई हमारी धरती का ऐसा साहसी सपूत है जिसने अंग्रेजों को स्वदेशी के नाम पर खुली चुनौती दी थी।

तूतीकोरन में 1872 में जन्मे चिदंबरम पिल्लई की कहानी बेहद प्रेरणादायक है, लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उनको हाशिए पर रखा। चिदंबरम पिल्लई पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने दक्षिण में स्वदेशी का आंदोलन चलाया। उन्होंने ‘ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेविगेशन शिपिंग कंपनी’ के मुकाबले अपनी शिपिंग कंपनी बनाकर उनको चुनौती दी थी। उनकी कंपनी का नाम ही ‘स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी’ था और उनके जहाज पर स्वदेशी लिखा होता था। उनकी कंपनी की इतनी लोकप्रियता थी ब्रिटिश कंपनी के लोग अपनी जहाज पर यात्रा करनेवालों को कम किराए का प्रलोभन तो देते ही थे, यात्रा करने वालों को मुफ्त में छाता आदि भी देते थे।

बावजूद इसके पिल्लई की कंपनी का मुनाफा इतना बढ़ा कि उन्होंने दो और जहाज आयात किए। ‘स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी’ के बढ़ते कारोबार से अंग्रेज इतना घबरा गए थे कि उन्होंने ब्रिटिश इंडिया नेविगेशन कंपनी के जहाजों पर भी ‘स्वदेशी’ लिखकर यात्रियों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा करने की कोशिश की थी। इसी समय से दक्षिण भारत में चिदंबरम पिल्लई को लोग ‘स्वदेशी पिल्लई’ कहने लगे थे। ये समय 1905 के आसपास का था।

अब अगर हम पिल्लई की विकास यात्रा को देखते हैं तो उसमें तमिलनाडू में चलनेवाले ‘शैव सभाओं’ का बड़ा योगदान रहा है।

इन सभाओं में जब पिल्लई सक्रिय हुए थे तब उनके संपर्क का दायरा बढ़ा था और इलाके के बुद्धिजीवियों से उनका संवाद आरंभ हुआ था। इन्हीं सभाओं के सदस्यों के मार्फत उनका परिचय लोकमान्य तिलक के लेखन और कार्य ये हुआ। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को अपना गुरू मान लिया था। वर्षों बाद 1907 में सूरत में आयोजित कांग्रेस की वार्षिक बैठक में पिल्लै अपने गुरू बाल गंगाधर तिलक से मिले थे। 1907 का ये अधिवेशन कई मायनों में ऐतिहासिक रहा था।

इस बैठक में ही कांग्रेस उदारवादी और अतिवादी समूह में विभाजित हुई थी। इस बैठक के बाद ही पिल्लई के काम को कांग्रेस ने मान्यता दी और उनको दक्षिण भारत का प्रभार सौंपा। उसके बाद उनकी सक्रियता बहुत बढ़ गई थी। इस बात के भी उल्लेख मिलते हैं कि जब 1911 में उनकी गिरफ्तारी हुई थी तब उनके एक समर्थक ने उस अंग्रेज अफसर की हत्या कर दी थी जिन्होंने इनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए थे। इन आरोपों के मद्देनजर पिल्लई को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी लेकिन जनता के गुस्से को देखते हुए सजा को छह साल की कैद में बदल दिया गया था।

अब अगर स्वदेशी और आत्मनिर्भरता को केंद्र में रखकर पिल्लई के संघर्षों का आकलन किया जाता तो वो एक राष्ट्रीय नायक के तौर पर बाद की पीढ़ियों में जाने जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उनपर 1961 में तमिल भाषा में एक फिल्म जरूर बनी लेकिन उनके लेखन को, उनके योगदान को, उनके संघर्षों को वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी हैं।

स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष में प्रवेश को एक अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों के काम को सामने लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अलावा अन्य अकादमियों को भी इस काम में आगे आकर पहल करनी चाहिए। इन स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन को सामने लाने के लिए साहित्य अकादमी से लेकर देश के विश्वविद्यालयों को भी पहल करनी चाहिए। उनको इतिहास और राजनीति में रुचि रखनेवाले विद्वानों और शोधार्थियों को चिन्हित करके प्राथमिकता के आधार पर ये काम सौंपा जाना चाहिए।

शोधार्थियों और विद्वानों के सामने एक समय सीमा हो जिसके अंदर इस तरह के प्रोजेक्ट पूरे किए जाएं। जब पूरा राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनाए तो इन पुस्तकों का प्रधानमंत्री के हाथों विमोचन हो और उसका खूब प्रचार प्रसार किया जाए। इन सकारात्मक प्रयासों को अलावा जो गलत इतिहास लेखन हुआ है उसको भी चिन्हित करके उसका प्रतिवाद किया जाना चाहिए।

जैसे ब्रिटिश सरकार के उस ट्रांसफर ऑफ पॉवर नाम के उस दस्तावेज का प्रतिकार आवश्यक है जिसमें उन्होंने ये मान्यता दी है कि वो भारत को गुलाम बनाने नहीं आए थे बल्कि सभ्य बनाने आए थे। वो भारत का विभाजन नहीं चाहते थे आदि आदि। ये तभी संभव है जब सरकार के स्तर पर इन कार्यों के लिए संसाधन उपलब्ध करवाया जाए और इसको पूरा करने की इच्छाशक्ति हो। 


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