संसद से पारित तीनों विधेयकों को लेकर पैदा किया जा रहा है भ्रम, इसको है समझने की जरूरत
कृषि कानूनों को लेकर किसानों का जो बवाल मचा है उसको समझने की जरूरत है। इस तरह के प्रदर्शनों के पीछे केवल राजनीति करना ही एकमात्र मकसद रह गया है। इससे किसानों के हितों का कोई लेना देना नहीं है।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Mon, 28 Sep 2020 08:09 AM (IST)
आरएस देशपांडे। कृषि विधेयकों के विरोध की साजिश को समझने की जरूरत है। इनमें किसानों के हित में जैसे प्रावधान किए गए हैं, उससे तय है कि उनका विरोध कोई किसान नहीं कर सकता। अब सवाल उठता है कि इन विधेयकों का विरोध कौन और क्यों कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में अपने पांच दशक के अनुभवों के आधार पर मैं दावे से कह सकता हूं कि संसद से पारित तीनों विधेयकों को लेकर भ्रम पैदा किया जा रहा है। ये विरोध प्रायोजित हैं। वास्तव में ये विधेयक अचानक से नहीं लाए गए हैं, बल्कि कृषि उत्पाद बाजार की खामियों पर पिछली सदी के छठे दशक से ही चर्चा शुरू हो गई थी। वर्ष 1967 में कृषि बाजार उत्पाद समिति यानी एपीएमसी के प्रभाव में आने से पहले बाजार की खामियों व किसानों के शोषण पर काफी चर्चा हुई थी।
कानून के प्रभाव में आने के बाद भी बाजार की खामियां दूर नहीं हुईं और किसानों को उन्हीं परिस्थितियों में छोड़ दिया गया। अंतर सिर्फ इतना रहा कि पहले किसानों का शोषण करने वालों को लाइसेंस नहीं दिया गया था और एपएमसी एक्ट के प्रभाव में आने के बाद उन्हें सरकारी लाइसेंस दे दिया गया। वर्ष 1991 के बाद र्आिथक सुधारों में कृषि उत्पाद बाजारों की उपेक्षा की गई है। इसके पीछे और बिचौलियों का प्रभाव प्रमुख कारण रहा। करीब एक दशक बाद वर्ष 2001 में शंकरलाल गुरु समिति ने कृषि उत्पाद बाजार के संवद्र्धन एवं विकास के लिए 2,600 अरब रुपये के निवेश का सुझाव दिया, लेकिन उस पर कुछ भी नहीं हुआ। संसद से पारित तीनों कृषि विधेयक क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले हैं। हालांकि, इससे उस वर्ग को खीझ हो सकती है, जिसने अब तक कृषि उत्पाद बाजार से कुछ ज्यादा ही कमाई की है।
कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020 से अब किसानों को अपना उत्पाद बेचने के लिए एपीएमसी यानी कृषि मंडियों तक सीमित रहने के लिए मजबूर नहीं होना होगा। कानून बनने के बाद राज्य की मंडियां या व्यापारी किसी प्रकार की फीस या लेवी नहीं ले पाएंगे। ऐसे में निश्चिततौर पर इस विधेयक का विरोध वही व्यापारी या कमीशन एजेंट करेंगे जिनके लिए कृषि मंडियां कमाई का अहम जरिया हैं। बड़ी संख्या में लोग कृषि मंडियों की खामियों व उनके परिसर में संचालित होने वाले उत्पादक संघों से वाकिफ नहीं हैं। कृषि मूल्य समिति, कर्नाटक के सदस्य के तौर पर मैंने देखा है कि किसान ने मंडी में 250 रुपये प्रति क्विंटल की दर से प्याज बेचा। उसी समय यशवंतपुर बाजार के ठीक बाहर 1,800 रुपये क्विंटल की दर से प्याज बिक रहा था और उसका खुदरा भाव 25 रुपये प्रति किलोग्राम था।
अब जरा सोचिए कि महीनों तक खेत में काम करने वाले किसान को मंडी में प्याज की दर 250 रुपये प्रति किलोग्राम मिलती है, जबकि बाजार को नियंत्रित करने वाले लोग उससे नौ गुना ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। मूल्य आश्वासन व कृषि सेवा विधेयक-2020 किसानों को अनुबंध कृषि का विकल्प प्रदान करता है। देश में पहले से भी अनुबंध कृषि हो रही थी, लेकिन उसमें किसानों का हक सुरक्षित नहीं था। इस विधेयक के कानून बनने के बाद किसान फसल उत्पादन से पहले ही उसकी कीमत तय करते हुए खरीदारों से समझौता कर सकेंगे। किसी भी प्रकार के विवाद के निपटारे के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था की गई है। आलोचकों को समझना चाहिए कि यह प्रावधान किसानों के हक में है न कि उनके खिलाफ।
आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 असीमित भंडारण का विकल्प देता है। पिछली सदी के पांचवें दशक में जब अनाज की किल्लत पैदा हो गई थी तब आवश्यक वस्तु कानून-1955 लागू किया गया था। यह केंद्र सरकार को कुछ कृषि उत्पादों के नियमन व उनके भंडारण की सीमा तय करने का अधिकार प्रदान करता है। नया कानून आने के बाद भी केंद्र सरकार युद्ध, सूखा, अप्रत्याशित मूल्य वृद्धि व प्राकृतिक आपदा की स्थिति में आवश्यक वस्तुओं का नियंत्रण करती रहेगी।
कर्नाटक के किसानों ने एक प्रयोग किया। राज्य के तरबूज किसानों ने इकट्ठा होकर अपने उत्पाद को मालगाड़ी से दिल्ली के बाजार में भेज दिया। इससे प्रति किसान को स्थानीय बाजार के मुकाबले एक-एक लाख रुपये का ज्यादा मुनाफा हुआ। साफ है कि विधेयकों के विरोध में कमीशन एजेंटों का बड़ा हाथ है। विधेयकों में भी कहीं नहीं लिखा है कि एमएसपी या मंडियां बंद होने जा रही हैं। दूसरी अफवाह यह उड़ाई जा रही है कि किसान अपने उत्पाद कॉरपोरेट को बेचने के लिए मजबूर हो जाएंगे। पहली बात तो किसान को कोई भी उत्पाद बेचने के लिए मजबूर नहीं कर सकता और दूसरी बात इस विधेयक में प्रावधान है कि किसान देशभर में जहां भी बेहतर कीमत मिले वहां उत्पाद बेच सकते हैं।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बेंगलुरु के पूर्व निदेशक हैं)ये भी पढ़ें:- कृषि विधेयकों को लेकर निराधार नहीं हैं किसानों की शंकाएं, इनका समाधान हो ता बन जाएगा वरदान