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स्वास्थ्य व्यवस्था को बदलने वाला कानून, बजट बढ़ाए बिना सही मायने में नहीं मिल पाएगा स्वास्थ्य का सही अधिकार

अपने देश में प्रायः देखा गया है कि एक बार दिया हुआ वचन न तो वापस लिया जा सकता है और न ही इसे और राज्यों में फैलने से रोका जा सकता है। एक के बाद एक राज्यों में पुरानी पेंशन की उठती मांग इसका ताजा उदाहरण है।

By Jagran NewsEdited By: Praveen Prasad SinghUpdated: Thu, 20 Apr 2023 01:08 AM (IST)
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जब तक स्वास्थ्य बजट में भारी बढ़ोतरी नहीं होगी, तब तक लोगों को स्वास्थ्य का सही अधिकार नहीं मिल पाएगा।

नचिकेत मोर : राजस्थान में स्वास्थ्य का अधिकार कानून यानी राइट टू हेल्थ एक्ट लागू हो गया। राजस्थान देश का पहला राज्य है, जहां लोगों को अब स्वास्थ्य का अधिकार मिलेगा। इस कानून के लागू होने का मतलब है कि यदि राज्य का कोई भी नागरिक बीमार होता है तो उसे सरकारी और चुनिंदा प्राइवेट अस्तपालों को इलाज देना होगा। अगर उस व्यक्ति के पास पैसे नहीं हैं तो सरकार की ओर से उसके इलाज का खर्चा उठाया जाएगा। फिलहाल मुफ्त इलाज की सुविधा केवल सरकारी अस्पतालों में है।

कानून बनने के साथ ही इसे लेकर तरह-तरह की चर्चाएं भी होने लगी हैं। एक तरफ डाक्टरों का कहना है कि उनके पेट पर लात मारकर लोगों को एक खोखला-सा अधिकार दिया जा रहा है, जिसे डाक्टर चाहें तो भी अमल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि बगैर पैसों के वे काम नहीं कर पाएंगे। वहीं इस कानून के समर्थकों का कहना है कि यह एक आवश्यक अधिकार है और राजस्थान सरकार की पहल सराहनीय है।

चाहे आप डाक्टरों की बात मानें या न मानें, एक बात साफ है कि जब तक राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवा के अपने बजट में दोगुना-तिगुना बढ़ोतरी नहीं करेगी, तब लोगों को यह अधिकार सही मायने में दे नहीं पाएगी। हालांकि सरकार ने अपना बजट कुछ हद तक जरूर बढ़ाया है, परंतु यह बहुत ही कम है। अगर वह इसके लिए पूरा पैसा देना चाहे तो उसे अन्य मदों में से अपने बजट में कटौती करनी पड़ेगी। आज की तारीख में सरकार शायद इस तरह की कटौती के लिए तैयार नहीं है।

इसे एक उदाहरण से समझें। सिजेरियन एक बहुत ही महत्वपूर्ण सर्जरी है, जिसकी जरूरत औसतन 20 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को पड़ती है। राजस्थान में दो ही ऐसे जिले हैं, जिनमें सरकार आज की तारीख में करीब 15 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को सिजेरियन की सेवा उपलब्ध कर पा रही है। जाहिर है पूरे राज्य में इसे 20 प्रतिशत तक लाने के लिए सरकार को काफी पैसा खर्च करना पड़ेगा और अगर इन जिलों में अस्पताल ही नहीं हों तो सरकार इस अधिकार को पूरा करने में असफल रहेगी। कुछ जिलों में प्राइवेट अस्पताल जरूर हैं, जहां इस अधिकार की सहायता से लोग सिजेरियन करवा सकते हैं, परंतु ऐसे जिले बहुत कम हैं। अधिकांश जगह दोनों भी नहीं हैं। इस स्थिति को देखते हुए कई लोगों का कहना है कि सरकार ने इस कानून को जल्दबाजी में बिना सोचे-समझे और बगैर पैसों का इंतजाम किए सिर्फ वोट बटोरने के लिए बनाया है। सच्चाई जो भी हो, लेकिन यह साफ है कि सरकार को अब जनता की आवाज सुननी पड़ेगी और उसके इलाज के लिए पैसों का प्रबंध करना पड़ेगा। भारत के किसी राज्य ने आजादी के 70 साल बाद भी स्वास्थ्य जैसा मूल अधिकार देना जरूरी नहीं समझा।

अपने देश में प्रायः देखा गया है कि एक बार दिया हुआ वचन न तो वापस लिया जा सकता है और न ही इसे और राज्यों में फैलने से रोका जा सकता है। एक के बाद एक राज्यों में पुरानी पेंशन की उठती मांग इसका ताजा उदाहरण है। अधिकार देने की बात कर अपने हाथों में खुद ही हथकड़ी पहन लेना एक चतुर नेता का दांव भी हो सकता है। इससे वह पार्टी वालों को और सरकार पर दबाव डालने वाले लोगों से कह सकता है कि भाई अब यह तो करना ही पड़ेगा, क्योंकि बात मुंह से निकल चुकी है। अगर हम किसी स्थापित व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं तो उसमें असंतुलन लाना एक जरूरी कदम होता है। इस असंतुलन से ही एक नई संतुलित व्यवस्था उपजती है। बगैर असंतुलन के न हमारे देश को आजादी मिली और न ही स्वास्थ्य व्यवस्था में कोई परिवर्तन आ सकता है।

यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वास्थ्य में सिर्फ डाक्टर, दवाइयां और पैसा ही नहीं आते हैं। स्वास्थ्य एक व्यापक सोच है। जैसे-शुद्ध हवा, पानी, तनावमुक्त वातावरण। जब सरकार इस कानून पर गंभीरता से गौर करेगी तो उसे यह बात साफ नजर आ जाएगी कि और भी बहुत कुछ करना है। अगर कम पैसों में इस अधिकार को पूरा करना है तो उसे सोचना पड़ेगा कि कैसे बीमारियों को रोका जाए। हमारे शहरों में हृदय रोग तेजी से बढ़ रहे, परंतु ऐसे फुटपाथों की संख्या कम हो रही है, जिन पर लोग आसानी से चल सकें। टीबी और दमा की बीमारियां कम नहीं हो रही हैं, लेकिन इमारतों की डिजाइन में हवा-पानी तो दूर, उनमें रहने वाले सूरज की एक किरण देखने के लिए भी तरस जाते हैं। अगर सरकार इस पर ध्यान नहीं देगी तो बात नहीं बनेगी।

जब 1972 में सरकार ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू किया, तब शायद उसकी सोच रही होगी कि कुछेक जगहों पर शेर-भालू आदि को बचाकर टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा सकेगा। इस तरह से रोज-रोज परेशान कर रहीं स्वयंसेवी संस्थाएं चुप हो जाएंगी और विदेश में पर्यावरण के नाम पर सस्ते में वाहवाही प्राप्त हो जाएगी, लेकिन हर अधिनियम देश की कानूनी व्यवस्था का एक स्थायी अंग बन जाता है और जनता को अपने अधिकारों के प्रति प्रेरित करता है। सरकार ने सपने में भी सोचा नहीं होगा कि वही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 2020 में सरकार को हाथियों के आने-जाने के लिए सुपरस्पीड हाईवे के नीचे एक बड़ी सुरंग बनाने के लिए मजबूर कर देगा। यह राइट टू हेल्थ एक्ट भी इसी तरह का कानून है, जिसकी सहायता से पूरे देश की स्वास्थ्य प्रणाली में बदलाव लाया जा सकता है।

(लेखक स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं)